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विरल अवसर
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साधकों के लिए यह सही दिशा, यह परिष्करण, यह अंतर्दृष्टि 'बोधि' कहलाती है। बोधि का अर्थ है जानना, जागृत होना । यह वह ज्ञान है जो आंतरिक प्रविष्टि से, आंतरिक अनुभव से आता है। बोधि के अनेक अर्थ हैं। यह शब्द बुद्ध से निकला है, जिसका अर्थ है, 'वह जो जानता है'।
ग्यारहवीं भावना का नाम है बोधि दुर्लभ, जिसका अर्थ है इस तरह के प्रबुद्ध ज्ञान को प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयाँ और उनकी विरलता । ज्ञानोदय के पथ की खोज में समय और ऊर्जा दोनों की आवश्यकता है। इस चिंतन में शिष्य यह देखकर विस्मित और आनंदित होता है कि उसने इस पथ को जाना है, उस पर सफर किया है। दरअसल बोधि इतनी विरल और कीमती निधि है कि उसकी तुलना एक अद्भुत, कांतिमयी हीरे से की गई है। भारतीय सम्राट अपने मुकुट में जो चमकदार हीरा जड़ाते थे, उसे कोहिनूर कहा जाता था। ऐसा हीरा हरेक को उपलब्ध नहीं था; वह मात्र विशिष्ट लोगों के लिए था । इसी तरह आंतरिक बोध एक दुर्लभ निधि है जो 'साधारण' लोगों के बस की बात नहीं है। 'साधारण' से हमारा तात्पर्य क्या है? इसका पद, पैसे या पदवी से कोई संबंध नहीं है। साधारण व्यक्ति वह है जिसके पास आंतरिक संपदा नहीं है।
इस आंतरिक संपदा का वर्णन कैसे करें? विचार कीजिए कि आपके जीवन में ऐसा एक पल आता है, जब आप अनुभव करते हैं कि जिसका अंत हो रहा है, वह देह मात्र है, आत्मा नहीं है । यह अनुभूति ध्यान से आ सकती है, सही गुरु के शब्द सुनकर या सही संगति में रहने से आ सकती है। धीरे-धीरे आपके अंतर्मन में इस सत्य का जागरण होता है। आप चिंतन करते हैं, 'मैं शरीर मात्र नहीं हूँ। मैं इस शरीर में रह रहा हूँ। मैं अजन्मा हूँ।' इसलिए यद्यपि आपने जन्म लिया है, फिर भी आप अजन्मा हैं। यह बात विचित्र लगती है। आप सोच सकते हैं, 'मैं अपने आपको अजन्मा कैसे कह सकता हूँ? मेरे जन्म का प्रमाणपत्र मेरे पास है।' आप यह जानते हैं कि जिसके पास जन्म का प्रमाणपत्र है, उसके पास मृत्यु का प्रमाणपत्र भी होता है । यह वास्तविकता है। और यह एक संत्रस्त करने वाला विचार है कि हमारे सारे प्रयास श्मशान घाट में समाप्त होते हैं। यह बहुत ही दुःखदायी, नीरस विचार है।
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