Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 170
________________ १४४ जीवन का उत्कर्ष चिंतन के बिंदु मैं ज्ञान प्राप्त नहीं करता, मैं ही ज्ञान हूँ। पर्दा हटाकर मैं अपने आपको प्रकट कर रहा हूँ। जब मैं शरीर की इच्छाओं को आत्मा की अभिलाषा समझ बैठता हूँ, मैं देख नहीं पाता कि प्रेम क्या है। प्रेम आत्मा का पोषण है। वह सिर्फ 'है', वह किसी को पाना नहीं है। वह है साहचर्य में रहना। मुझे उस क्षण की खुशी मनाने दो जब मुझे विदित होगा कि मैं चिरस्थायी, अजन्मा, अविनाशी हूँ। जब मैं इस दुर्लभ आंतरिक निधि को अनुभव करूँगा, वह मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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