Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 148
________________ १२२ जीवन का उत्कर्ष इस दसवीं भावना में साधक लोक का स्वरूप समझता है - इस लोक का, जिसमें हम सब विचरण कर रहे हैं। इस लोक में हम सब चिरकालिक भी हैं और क्षणिक भी। दो अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। सत्व के दृष्टिकोण से हम चिरकालिक हैं, आकार के दृष्टिकोण से क्षणिक हैं। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, हम दुहरी अभिज्ञता से दो गुणों को देखते हैं: द्रव्य या पदार्थ, और पर्याय या परिवर्तन। द्रव्य सत्व है और उसका स्वभाव है चिरकालिक रहना। पर्याय आकार है जो द्रव्य के चारों ओर घूमता है, यह स्वभाव से क्षणिक है। हम एक ही क्षण में सत्व और आकार दोनों को देखते हैं। फूलों का पल्लवित होना और उनका मुरझाना, हम दोनों की अनुभूति एक साथ करते हैं। यह गहन अभिज्ञता जो साधना से आती है, आपको वर्तमान में जीने देती है, कल की चिंताओं से दूर। किसी ज्योतिषी के पास भागकर उससे अपनी आयु के बारे में पूछने से क्या मिलेगा? यदि कोई कहे कि आप अस्सी वर्ष जीने वाले हैं, तो आप क्या करेंगे? शायद आप कहेंगे, 'खैर, मुझे तो अभी बहुत समय जीना है।' पर इससे क्या आप खुश होंगे? यदि ये अस्सी वर्ष बीमारी में, अस्पताल में, विकृत सोच में या बिस्तर पर पड़े-पड़े बीतेंगे, तो? एवं यदि कोई कहे कि आप केवल एक वर्ष और जिएँगे, तो? आप बौखलाकर कहेंगे, 'एक वर्ष बाद मैं चला जाऊँगा। क्या करूँ?' आप शायद जान जाएँगे कि कितने वर्ष जीवित रहेंगे, पर क्या आप जानते हैं कि जीना कैसे चाहिए? जो थोड़े से वर्ष बचे हैं, उनमें हमें क्या करना है? क्या हम यहाँ निष्क्रिय पड़े रहने के लिए हैं? यदि हमें जीने की कला आती है, तो एक वर्ष का जीवन भी सौ वर्ष की निष्क्रियता से बेहतर है। हम कितने वर्ष जीते हैं, इससे हमें खुशी नहीं मिलती। खुशी की गिनती सालों में नहीं होती, वह क्षणों में गिनी जाती है। क्या हम वर्तमान के इस क्षण में जीना सीख सकते हैं और अपने द्रव्य, अपने सत्व से संपर्क साध सकते हैं? हम हमेशा भविष्य के बारे में ही सोचते हैं। भविष्य की चिंता करते रहते हैं। हम वर्तमान में नहीं जीते हैं। यही हमारी समस्या है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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