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लोक का स्वरूप
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संभव है। इसे समझने से अब आप स्वयं के या दूसरों के बारे में अपने जो अभिमत हैं, उनसे चिपके नहीं रहते हैं। आप एक क्षण पहले जैसे थे, एक वर्ष पहले जैसे थे, चेतना के एक जीवनकाल पहले जैसे थे, वैसे इस समय नहीं हैं। विगत का कड़वापन एक पल में घुल सकता है। जिसे आप पहले एक तरह से जानते हैं, वह आज बिलकुल अलग तरह का हो जाता है।
ऐसे उदाहरण भी हैं जब लोग अपने आत्म स्वरूप की एक झलक पाकर अपने आंतरिक संसार के संपूर्ण ढाँचे को ही बदल डालते हैं। कुछ ही क्षणों में वे अपने जीवन को एक नया रूप दे देते हैं। यह कैसे संभव है? आत्मा में असीम शक्ति है। उसका तेज लेसर पुंज से भी तीक्ष्ण है। ध्यान में आत्मा की इस रोशनी को एक विशिष्ट आंतरिक संरचना पर केंद्रित करने पर एक चमत्कार घटित हो जाता है। अंतर्दृष्टि से एक पल में सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं। अपनी चेतना को किसी भी अवांछित तत्त्व पर केंद्रित करने का भी ऐसा ही नतीजा है। वह अवांछित तत्त्व सदा के लिए नष्ट हो जाता है, जीवन भर का बोझ हट जाता है।
आप पूछ सकते हैं कि हम विचारों और भावनाओं को सूक्ष्म पुद्गल क्यों कह रहे हैं। आत्मा या चेतन ऊर्जा का स्वभाव है अपनी अभिज्ञता की ओर निरंतर प्रवाह में बहना - प्रेम और सत्य की अमर आनंदमयी ऊर्जा के रूप में। वह सर्वव्यापी चेतना की अनुभूति करने और सिद्धों की संगत पाने के लिए आतुर रहती है।
लेकिन अनादिकाल से ही यह आत्मा पुद्गल के साथ बंधी हुई है। उसका प्रवाह चारों ओर विद्यमान कुछ कणों के कारण अवरुद्ध है, जो उसे आवृत किए हुए हैं। पुद्गल के इन कणों को अजीव कहा जाता है, यानी निर्जीव ऊर्जा। आत्मा अपने आपको इन बंधनों में अवरुद्ध पाती है। जब आत्मा बाहरी विश्व को इंद्रियों के माध्यम से और भीतरी विश्व को मन से देखती है, तो वह निरंतर पुद्गल के इन कणों से प्रभावित और अनुबंधित होती रहती है। वह पुद्गलाधीन दशा में है, ऐसा कहा जा सकता है, और वह कर्म के अतिरिक्त कंपनों को या कणों को अपनी ओर आकर्षित करती है। कर्म के ये कण ही हमारी भावनाएँ और विचार-धाराएँ बन जाती हैं।
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