Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 151
________________ लोक का स्वरूप १२५ लोक का विलोम है अलोक। हम उसे शून्य कह सकते हैं, क्योंकि वहाँ किसी का अस्तित्व नहीं है; अलोक केवल अस्तित्वहीन है, जीवन से शून्य। लोक और अलोक के बीच की सीमा रेखा पर प्रबुद्ध जीव अपना अंतिम विश्राम स्थल पाते हैं, अपनी चेतना की पराकाष्ठा। इस बिंदु तक पहुँचने के पहले जीव एक प्रक्रिया में, एक यात्रा में रहते हैं, कुछ सीमाओं से बंधे हुए। मोक्ष मुक्ति है, अनंतता है। जब आत्मा अपने सभी कर्मों का त्याग कर देती है, अपने घेरे हुए प्रत्येक पुद्गल के प्रत्येक कण को गिरा देती है, वह निर्विघ्न शांति पा लेती है। कोई संघर्ष नहीं, कोई गति नहीं, कोई यात्रा नहीं, कोई आवश्यकता नहीं। कहीं जाने की कोई इच्छा नहीं, क्योंकि आत्मा ऐसी स्थिति में पहुँच गई है जहाँ वह संपूर्णता में जीवन का अनुभव कर रही है, वह इच्छारहित हो गई है, यानी वह संतृप्त हो गई है। जीव यहाँ अपनी प्रकृति के अनुसार निवास करता है और शांति, आनंद, असीम प्रेम और संपूर्ण ज्ञान जैसे अपने गुणों को चारों ओर बिखेरता है। ____ जो जीव इस सीमांत प्रदेश में पहुँच जाते हैं, वे सिद्ध बन जाते हैं। सिद्ध यानी पूर्ण आत्माएँ। जिन्होंने अपने आप को सभी प्रकार की सीमाओं और अंदरूनी कमजोरियों से मुक्त कर लिया है, वे यहाँ विश्राम करने आते हैं। सभी धर्मों से, सभी संस्कृतियों से, सभी कालों से, वे इस जगह की ओर उत्थान करते हैं जहाँ कोई द्वैत नहीं है, केवल एकता है। आत्मा की खोज के इस अंतिम पड़ाव को ही मोक्ष कहते हैं। जब हम लोक को अलग दृष्टिकोण से देखते हैं, तो दो पहलू नज़र आते हैं: बाह्य लोक एवं आंतरिक लोक। बाह्य लोक तथ्यों का लोक है। वह सतत परिवर्तनशील है। वह जो आकार ग्रहण करता है, वे नित्य परिवर्तित भौतिक तत्त्वों की संरचनाएँ हैं। आंतरिक लोक कल्पानाओं का लोक है। वह विचारों और भावनाओं से निर्मित है। पहले बाह्य विश्व के स्वरूप को जानें। बहुमूर्तिदर्शी के टुकड़ों के समान वह और कुछ नहीं, पुद्गल के अनंत आकारों के अदल-बदल और जुड़ने से निर्मित भिन्न-भिन्न रचनाएँ हैं। इसके प्रमुख घटक हैं पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। ये घटक परस्पर जुड़ते हैं, फिर अलग हो जाते हैं, फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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