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दशम - लोक भावना
लोक का स्वरूप हम मानव जीवन के मंच पर खड़े हैं। यहाँ से हमें किसी एक विकल्प को अपनाना है। या तो हम अभिज्ञता के साथ ऊपर उठ जाएँ, या आश्रित रहने की वजह से नीचे धंसते जाएँ। हमें इन दो दिशाओं में से एक की तरफ जाना है। यह हमारा अपना निर्णय होगा। कोई भी हमें मजबूर नहीं कर सकता कि हम इसे चुनें या उसे चुनें। कोई बाह्य शक्ति हमारी दिशा को निर्धारित नहीं कर सकती। हमें मानना होगा कि निर्णायक शक्ति हमारे अंतर में ही है।
जब हम इस सत्य को जान लेते हैं, हम बाह्य चीज़ों को टटोलना बंद कर देते हैं, अपने अंतर से कार्य करने में तत्पर हो जाते हैं। हम निश्चय करते हैं कि हमें क्या करना है। यदि हम अभिज्ञता के साथ आगे बढ़ते हैं, तो यह जीवन हमारे लिए मूल्यवान और अर्थपूर्ण हो जाता है। यदि हमारे अंदर यह आकांक्षा नहीं जगती, तो जीवन उबाऊ और अर्थहीन लगने लगता है।
हम भले ही इस शरीर को कितना भी पोषण दें, इसका क्षय होकर ही रहेगा। एक दिन इसे जाना ही है। यदि हम इस शरीर का उपयोग उच्चतर अभिज्ञता की ओर बढ़ने के लिए नहीं करेंगे, तो फिर क्षणिक सुख या अस्थायी संतोष की प्राप्ति के लिए ही उसका उपयोग होगा। जिसके पास आंतरिक खोज की ललक नहीं है, वह अधिकतम भोग विलास के लिए मनमाने तरीके से इसका उपयोग कर सकता है। लेकिन इसके लिए मानव शरीर की कोई आवश्यकता नहीं है। यौन संबंध के लिए, जी भरकर खाने के लिए, वस्तुओं का संग्रह करने के लिए, आलस्य, निष्क्रियता, भय, क्लेश में जीने के लिए शरीर मानव का हो या पशु का, कोई फर्क नहीं पड़ता।
पशु जगत् पर दृष्टिपात कीजिए। वे सब यही तो कर रहे हैं। एक साँड़ यौन प्रक्रिया में उतना ही आनंद लेता है जितना कि मनुष्य। एक भालू .. घंटों सोया पड़ा रहता है और कोई उसकी नींद में खलल नहीं डालता।
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