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जीवन का उत्कर्ष पाँचवा पाश मिथ्यात्व का है - अज्ञान, असमंजस। मिथ्यात्व में सत्य झूठ में घुल-मिल जाता है, हिंसा को अहिंसा समझ लिया जाता है, कामुकता को प्रेम समझ लिया जाता है, सही को गलत से अलग नहीं पहचाना जाता। यह विचारों में भ्रान्ति का सूचक है। वह करुणा और वेदना पहुँचाने में फर्क नहीं कर पाता। उदाहरण के लिए, जिसका मन मिथ्यात्व से धूमिल हो, वह सार्वभौमिक प्रेम की बात करने के साथ-साथ पशु-बलि का समर्थन भी कर सकता है।
मिथ्यात्व इस बात का सूचक है कि आप सत्य देखने में विफल हैं। अर्ध-सत्य को पूर्ण सत्य मान लिया जाता है और कभी-कभी वह पूर्ण सत्य से भी अधिक प्रभावशाली हो जाता है। वह आपको बांध देगा, आप पर हावी हो जाएगा। इसके विपरीत सत्य पूर्ण प्रकाश है, वह आपको मुक्त करता है। मिथ्यात्व सबसे भयंकर पाश है क्योंकि वह आपको अंदर से जकड़ देता है।
ये ही वे पाँच द्वार हैं जिनसे श्रव बाहर से बहकर अंदर आ जाता है। जब इन द्वारों को खुला छोड़ा जाता है, तो हमारी निर्मल चेतना अनगिनत प्रदूषक तत्त्वों, भीतरी कमज़ोरियों और कपट से मंद पड़ जाती है।
भूत और वर्तमान काल की हर घटना ने आपकी चेतना पर छाप छोड़ी है - संस्कृति, परिवार, भौगोलिक परिस्थितियाँ, शिक्षा, धर्म। इनमें से कुछ छापों को हम संसारी श्रव कह सकते हैं। दूसरों को धार्मिक श्रव कहेंगे। यद्यपि हम संसारी श्रवों से बचने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन धार्मिक श्रवों से बचना और भी अधिक कठिन है। यह इसलिए क्योंकि इनकी छाप बहुत ही गहरी पड़ती है- अपराध-बोध, आत्म-निंदा, दोषारोपण और अंधविश्वास।
हमें दोनों प्रवाहों को देखना है, बाहर से अंदर आने वाला और अंदर से बाहर जाने वाला। अक्सर अपनी आंतरिक कट्टरता के कारण आप स्वयं को उस रूप में स्वीकार नहीं कर पाते हैं जैसे आप वास्तव में हैं। जब कोई आपकी आलोचना करता है, आपको ऐसे लगता है मानो कोई तीक्ष्ण बाण आपके हृदय को भेद गया हो। आप मानसिक पीड़ा का अनुभव करते हैं। आप भय का अनुभव करते हैं, और भय आपको जीवन जीने नहीं देता।
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