Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 124
________________ ९८ जीवन का उत्कर्ष बनाता है। एक साधक होकर, आप अपने हर कृत्य का दायित्व स्वयं स्वीकार करते हैं। आप जानते हैं, 'यदि हर कदम के लिए मैं ही ज़िम्मेदार हूँ, तो कोई खतरा नहीं है। मैं अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच ही जाऊँगा क्योंकि मैं हूँ ही उसी के लिए।' चढ़ते समय कभी-कभी आप सहारे के लिए किसी का हाथ थाम सकते हैं, लेकिन वह सहारा गौण होगा। आप किसी पर निर्भर नहीं रह सकते। इस तरह, न ही घमंड आपको छू सकेगा एवं न ही झूठी विनम्रता; दोनों ही स्थितियों में तीव्रता है। दोनों ही मनोवृत्तियाँ चरम स्थितियों की द्योतक हैं। दोनों का मतलब है दिखावा । जो व्यक्ति समाज में चमकने की कोशिश कर रहा है, नाम कमाने की कोशिश कर रहा है, वह पालतू कुत्ते के समान विनम्र बनने का दिखावा कर सकता है। पर यह दिखावा ही है, दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींचने की एक चाल । आप सबको क्यों बताना चाह रहे हैं कि मैं कितना विनम्र हूँ? इसका मतलब यह हुआ कि आप अपनी विनम्रता का लाभ उठाना चाहते हैं। सहज रहिए, स्वाभाविक रहिए, वही रहिए जो आप हैं ! सिर्फ अपने आप को देखें ! जब स्वयं पर नज़र रखने लगेंगे, तो आपकी चेतना इतनी सूक्ष्म हो जाएगी कि आपको हर समय ज्ञात होगा कि आप कहाँ हैं। यदि आप इतना जान लेंगे, तो पर्याप्त है। तब आपको संसार से अनुमोदन प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहेगी । और जब संसार का अनुमोदन आपके लिए कोई माने नहीं रखेगा, तभी संसार उसे देने के लिए आपके पीछे दौड़ेगा । यह विडंबनापूर्ण बात लग सकती है। लेकिन अब लोग आपकी मौलिकता को पहचानने लगेंगे। 'सच ही यह व्यक्ति सैर पर नहीं निकला है,' वे कह उठेंगे, 'यह स्वयं में मग्न हो गया है। ' असल बात यह है कि हम यहाँ मात्र जीने के लिए हैं, जैसे हैं, वैसे बने रहने के लिए हैं, न कि तगमे, पुरस्कार, डिग्री और प्रमाणमत्र का अंबार लगाने के लिए। हमारा सारा प्रयास वही बने रहने के लिए होना चाहिए, जो हम हैं। हम यहाँ किसी क्षणिक उपलब्धि के लिए नहीं हैं, न ही स्वयं के झूठे अहम् के लिए। हमारा लक्ष्य है उस सहज स्थिति में लौट जाना जो इतनी संतुलित है कि हम न तो ऊपर हैं न नीचे। उस स्थिति को प्राप्त करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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