Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

Previous | Next

Page 127
________________ विराम चिह्न की कला १०१ क्या हम ऐसा राज्य उपलब्ध नहीं कर सकते जहाँ स्थायी चेतना व्याप्त हो?' इस तरह त्याग करने में प्राप्ति है। सच्चा त्याग उस भीतरी साम्राज्य, उस अंतर्भूमि की पूर्ण अनुभूति है। वह अंतर्भूमि रिश्तों को गहरा अर्थ एवं एक निकटता प्रदान करती है। जब पति-पत्नी एक दूसरे को प्रेरित करते हैं, तो वे एक दूसरे के बेहतरीन साथी बन जाते हैं। उनका संप्रेषण अनंत मिलन में परिवर्तित हो जाता है। विवाह का असली प्रयोजन कर्मों को काटना है, एक-दूसरे का पूरक बनना है। जब हम उस अंतर्भूमि पर जीने लगते हैं, तब हम आपस में संचार करके यह जानना चाहते हैं कि हमारे जीवन का ध्येय क्या है। जब एक निराश होने लगता है, दूसरा उसे संभाल लेता है। 'यह अंधकार गुजर जाएगा, वह अपनी जीवनसंगिनी को समझाता है, 'हमें धैर्य रखना होगा, जल्द सूर्योदय हो जाएगा।' जब एक चिड़चिड़ा हो जाता है, तो दूसरे को बात बिगड़ने से रोक लेना चाहिए। ऐसी कोई पीड़ा नहीं है जो स्थायी हो, एवं न ही ऐसा कोई सुख है जो स्थायी हो। स्थायी क्या है? भीतरी आनंद, शांति -- बाकी सभी आता-जाता रहता है। बाहरी विश्व को देखने के लिए और भीतरी सौंदर्य का अनुभव करने के लिए किसी मठ में जाने की आवश्यकता नहीं है। आप अपने घर को एक मठ में बदल सकते हैं! और क्यों नहीं, आजकल कितने मठ तो सत्ता की तृष्णा बुझाने के राजनीतिक अखाड़े बन गए हैं! मैं चाहता हूँ कि प्रत्येक परिवार, आपमें से प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने छोटे से घर को एक सुंदर से मठ में बदल दे और वहाँ एक सार्थक जीवन जीए, अपनी समझ को परिपक्व करे। हमें इस पृथ्वी पर सत्तर या अस्सी वर्षों का जो समय मिला है, वह बहुत ही छोटी अवधि है। आप उसका उपयोग या तो अकेले रहकर कर सकते हैं या ऐसे लोगों के साथ जो आपकी सी सोच, आपकी सी समझ रखते हैं। आप उसे अपने मित्रों और पडोसियों के साथ बिता सकते हैं या ऐसे लोगों के साथ जिनसे आप प्रेम करते हैं, जिनके प्रति आपके मन में करुणा है। दुनियां किसी की बपौती नहीं है। ओछेपन या संकीर्णता की ज़रूरत नहीं है। जाति, धर्म, आयु, रंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184