Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 142
________________ ११६ जीवन का उत्कर्ष किसी भी जीवधारी को बढ़ने के लिए उसकी जड़ों को फैलने का स्थान मिलना चाहिए। किसी वस्तु को किसी विशेष हालात में रखने से क्या होता है, इस पर गौर करें। वह परिस्थिति उसके विकास को सीमित करती है। हमने लंबे समय से जिसे किया है या जिसे करते आ रहे हैं, वह हमारा स्वभाव बन जाता है। वह हमारे सोचने की प्रक्रिया से जुड़ जाता है। वह हमारी चेतना में ऐसा घर बना लेता है कि हम उससे नाता तोड़ने के लिए तैयार नहीं होते। हम जानते हैं कि यह स्थिति अस्थायी है, फिर भी हम अपने मन को छलने देते हैं और सूक्ष्म रूपों में उससे चिपके रहते हैं। हम उस पीड़ा को भूल जाते हैं जो इसके कारण हो सकती है। इस तरह अपने ही जाल में फँसकर हम उन बौने वृक्षों के समान हो जाते हैं जो अपनी स्थिति के कारण बढ़ नहीं पाते। यदि हम इस जाल को नहीं तोड़ेगे, तो हम बढ़ नहीं पाएँगे, फैल नहीं पाएंगे। और यदि हम बढ़ेंगे नहीं, फैलेंगे नहीं, तो अपना सच्चा आकार प्राप्त नहीं कर पाएंगे। इस दूसरे चरण का उद्देश्य है - परिस्थितियों के बंधन तोड़कर अपने आपको मुक्त करना। आप मुक्त होना चाहते हैं क्योंकि आप बढ़ना चाहते हैं। आप बौनी मानसिकता में जीना नहीं चाहते। यदि आप बौने बने रहे, तो अनंत आकाश से स्वयं को वंचित कर देंगे। इसलिए आप निर्णय लेते हैं कि आप कौन सी परिस्थितियों से बंधे हुए हैं ताकि उन्हें तोड़ सकें। फिर आप उँचाइयों तक पहुँच जाएँगे तथा अपनी आत्मा के आनंद को प्राप्त कर लेंगे। तीसरा चरण सहज है। यह त्यागने की प्रक्रिया है। आप अपने जीवन के सूखे पत्तों को झटक रहे हैं क्योंकि आप ताज़गी के लिए स्वयं को तैयार करना चाहते हैं। जब आप ऐसा करते हैं, तो क्या होता है? आप 'मैं' और 'हम' का अंतर पहचान लेते हैं। यह 'हम' भीड़ मनोवृत्ति का परिचायक है। जब आप 'हम' के साथ रहते हैं, तब आप दूसरों के जैसे बनने की कोशिश करते हैं। स्वयं को अपूर्ण मानते हैं और सोचते हैं, 'यदि मैं कुछ कहूँ, तो लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? यदि वे मुझ पर हँस पड़े तो?' यदि आप दूसरों की धारणाओं के अनुरूप अपने आपको ढाल न सकें, तो आपको अटपटा लगता है और आप अपने आपको 'बेमेल' समझने लगते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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