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आत्म-परिष्कार की कला
१११ अपनी खोज में द्रष्टाओं ने इन बारह भावनाओं को पाया है, जिन पर उन्होंने चिंतन किया, ध्यान किया एवं सम्यक् दृष्टि प्राप्त की। सातवीं, आठवीं और नवी भावना - आश्रव, संवर और निर्जरा - परस्पर में गहराई से जुड़े हुए हैं। आश्रव में अंतःप्रवाह पर ध्यान रखा जाता है, खुले द्वारों पर, आंतरिक कमजोरियों पर। संवर में क्रिया का आग्रह है - अवांछित वस्तुओं को भीतर आने से रोकने पर जोर है। यह चेतना रूपी झील के द्वार बंद करता है। निर्जरा में पहले से जमा नकारात्मक कंपनों को हटाया जाता है जो आपके अंत:करण पर हावी हो गए हैं।
आप एक निरीक्षण मीनार में हैं। जब आप इसकी ऊँचाई से अपने जीवन का अवलोकन करते हैं, तो क्या पाते हैं? आपको मिलते हैं आपके व्यसन। वे कुछ भी हो सकते हैं, जैसे धूम्रपान करना, शराब पीना, अधिक खाना, यौन-क्रियाओं में अत्यधिक लिप्ति, धन या प्रसिद्धि का लोभ। ये सभी आपको कमज़ोर करते हैं। ये सभी ढहते मकान का कमज़ोर सहारा हैं। इन पर निर्भर करके आप कभी मज़बूत नहीं बन सकते।
इसलिए जाग्रत व्यक्ति पूछता है, 'यह व्यसन कब शुरू हुआ? मैं कितना कमजोर हो गया हूँ? मैं शांत नहीं हूँ। मैं स्वयं के साथ नहीं हूँ। इस व्यसन के कारण मेरे जीवन में घाव लग गए हैं। मैं आनंद की खोज में निकलता हूँ और मुझे मिलती है पीड़ा।' साधक अपने आत्म-विश्लेषण की गहराई में जाता है। 'तथाकथित सुखों की खोज में मेरा मन अनेक दिशाओं में दौड़ रहा है। अंत में जब मैं बैठकर देखता हूँ तो क्या पाता हूँ? इतने वर्षों में क्या मुझे ऐसी कोई खुशी मिली है जो मुझे संतुष्ट करती है, जो मुझे उठाती है? क्या मैं अपने विगत जीवन को देखकर दुःख और अफसोस महसूस करता हूँ? क्या मेरी स्मृतियाँ मेरे ऊपर काले बादलों की तरह घुमड़ रही हैं?'
इस तरह अवलोकन करते हुए आप अपने विचारों, अपनी आवश्यकताओं के स्रोत पर पहुँचते हैं, अपनी इच्छाओं की गुणवत्ता को परख पाते हैं, अपने रिश्तों के अर्थ को जान जाते हैं। जब आप देखते हैं कि आपके मन में किस तरह के विचार आते हैं, तो आप यह भी देख पाते हैं कि ये विचार क्यों आते हैं। उनका आपके साथ क्या संबंध है? विचार तभी
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