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आत्म-परिष्कार की कला
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अवरुद्ध है। आपकी आत्मा अपने गंतव्यस्थान की ओर बढ़ने के लिए स्वतंत्र नहीं है। पुद्गलों का कुछ अवशेष आपकी आत्मा के ऊपर बादल के समान छाया हुआ है और आपकी चेतना को प्रभावित कर रहा है। इस प्रभाव के कारण आप बिना किसी अभिज्ञता से बोलते हैं, सोचते हैं, कार्य करते हैं - विकृति के साथ, कषायों के साथ। इस तरह ये अवशिष्ट पुद्गल गुरुत्व बल की तरह काम कर रहे हैं और अपने ही जैसे स्वभाव के अन्य अवशिष्टों को आपकी ओर खींच रहे हैं। यदि इस अवशिष्ट को आप नहीं छोड़ेंगे, तो आगे नहीं बढ़ पाएँगे, और यह बोझ आपको नीचे खींचकर गिरा देगा।
यह नवाँ चरण इसी बंध का इलाज है। इसे निर्जरा कहते हैं। निर्जरा का अर्थ है गिराना, तोड़ना, हटाना - उन बातों को जो आपको बाँधे हुए हैं, आपके व्यसनों और लगावों को।
__ सबसे पहले इस चिपकनेवाले अवशिष्ट को हटाने की प्रणाली पर विचार करें। हम सोचते हैं कि वस्तुएँ हमें जकड़ी हुई हैं, पर वास्तव में हम इन वस्तुएँ को जकड़े हुए हैं। एक बंदर था जिसने एक घड़े में हाथ डालकर मुट्ठी भर चना उठा लिया। घड़े का मुँह इतना संकरा था कि चने से भरी उसकी मुट्ठी बाहर नहीं निकल सकी। उसने जोर लगाकर खींचा, मगर हाथ फिर भी बाहर नहीं आया। वह चिल्लाने लगा, 'इस घड़े ने मुझे पकड़ लिया है!' तब मदारी ने आकर बंदर को दो झापड़ लगाए और कहा, 'मूर्ख बंदर! तेरा हाथ घड़े में इसलिए फंस गया है क्योंकि तूने इतने सारे चने मुट्ठी में भर लिए हैं!' बंदर ने चने के दाने छोड़ दिए और उसका हाथ मुक्त हो गया।
यही बात हमारे जीवन में भी होती है। हम लोभी हैं और वस्तुओं को पकड़े हुए हैं। इन व्यसनों को छोड़ दीजिए, और आप मुक्त हो जाएंगे! कोई भी इस संसार से बंधा नहीं है। आपको बाँध रखा है आपके अपने व्यसनों ने।
दुर्भाग्य से एक व्यसन तो अप्रसन्नता ही है। उदाहरण के लिए, जब कोई भी आपके व्यसनों को समर्थन देने के लिए तैयार न हो, तब आपको कैसे लगता है? आप समझते हैं कि वे मित्रता नहीं निभा रहे हैं: या काम से घर लौटने पर क्या होता है, यह देखिए। दिन भर लोगों के साथ व्यवहार
गया।
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