Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 135
________________ नवम भावना - निर्जरा आत्म-परिष्कार की कला गौर करें कि नदी किस तरह से समुद्र की ओर जाती है। वह समुद्र तक क्यों पहुँचती है? क्योंकि उसके दो किनारे हैं जो उसे बिखरने से रोकते हैं। ये किनारे उसे सुरक्षा देते हैं और उसका मार्गदर्शन करते हैं जिससे वह सहजता से आगे बहती हुई अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच जाती है। इस सुरक्षा के बिना समुद्र से उसका मिलन असंभव है। यदि आगे बहने के बजाए, वह अपने दोनों किनारों से लड़ती हुई उन्हें नष्ट कर देगी, तो वह किसी रेगिस्तान में पहुँचकर सूख जाएगी। एक तरह से, जीवन भी बहती नदी के समान ही है। हम खोज रहे हैं सत्य को, जीवन की वास्तविकता को। अपने समुद्र को, अपने खज़ाने को पाने के लिए हमें प्रयत्नशील और समर्पित रहना होगा। यदि हमारा मन बिखरा-बिखरा रहेगा. हमारी ऊर्जा भी बिखर जाएगी, और हम समद्र तक, अपने सत्य तक कभी नहीं पहुँचेंगे। पर यदि हम अपने दोनों ओर के किनारों को बनाए रखेंगे, तो हम स्वतंत्रता से आगे बढ़ सकते हैं, हमारी ऊर्जा बहती रहेगी, और अंततः हम अपनी आत्मा तक पहुँच जाएँगे। क्या हैं ये किनारे जिन्हें निर्मित करके हम अपनी वास्तविकता का दिशा-निर्देश पा सकते हैं? इन्हें अनुशासन कहा जाता है। यह अनुशासन वह बाह्य धर्मादेश नहीं है जो नियम स्थापित करते हैं, 'तुम यह करोगे', 'तुम वह नहीं करोगे।' जिसे हम अनुशासन कहते हैं, वह नियम या व्रत से अलग हैं। व्रत बाहरी दबाव से थोपे जाते हैं, जबकि अनुशासन भीतरी आत्म-जागृति की उपज है। ये इस अनुभूति से निकलते हैं कि इनका पालन न करने पर हम भटक जाएँगे। ये इस समझ से उत्पन्न होते हैं कि अपनी ऊर्जा बिखेरने से व्यक्ति बंजर भूमि में भटक जाएगा। बाहरी दबाव के बजाय भीतरी चेतना की आवाज़ सुनकर आप जान जाएंगे कि आपको सचमुच क्या चाहिए और क्या नहीं चाहिए। जब आप आत्म-जागृति के द्वारा अपने आपको तैयार करते हैं, तो आप अपने हर कृत्य का, हर शब्द का, हर विचार का दायित्व स्वयं पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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