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जीवन का उत्कर्ष
झील की तरह । जब संतुलन नहीं है, तो आप उस तूफानी समुद्र के समान हैं जिसका बहाव कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ है। आप या तो उत्तेजित हैं या एकदम हताश, बस निरंतर उतार-चढ़ाव की स्थिति में रहते हैं। इस अस्थिरता से आपकी चेतना में काफी मैल जमा हो जाता है, निर्मल झरने में घुसने वाले प्रदूषक तत्त्वों के समान। यह मैल या कर्म बहकर अंदर आता है और आपकी शुद्ध चेतना को मलिन करता है। वह इसलिए अंदर घुस आया है क्योंकि आप जागरूक नहीं थे। आपने चेतना के सभी द्वारों को खुला छोड़ दिया और आपकी निर्मल चेतना दूषित हो गई।
इस भावना का मूलभूत विचार है - द्रष्टा उस अंत:प्रवाह से भिन्न है जिसे वह देख रहा है। आप पीछे हटकर उस प्रक्रिया को देखते हैं। आप विवेक का उपयोग करते हैं, जो विभेदक बुद्धि है। यदि मोटरगाड़ी ठीक तरह से काम न करे, तो चालक मोटरगाड़ी से स्वयं की तुलना नहीं करता । यदि आपका मकान पुराना है, तो आप उससे अपनी पहचान नहीं बनाते, अपने आपको पुराना और टूटा-फूटा नहीं मानते। यदि आपके कपड़े गंदे हैं, तो आप अपने आपको गंदा नहीं समझते। इसी तरह, जब आपको मंदता, भारीपन या नकारात्मकता का एहसास हो, तो आप उनके साथ अपनी पहचान नहीं बनाते हैं। ये दूषक तत्त्व आप नहीं हैं। वे बाहर से आए हैं, और जो वस्तु बाहर से अंदर आई है, उसे फिर से बाहर निकाला जा सकता है। इस तरह का मैल आपकी शुद्ध चेतना का हिस्सा नहीं है। आपको इसी विचार पर चिंतन करना है।
ध्यान में हमेशा स्वयं को मासूम, स्वच्छ और सुंदर रूप में देखिए । बिना किसी शर्त के अपने आप से प्रेम करें। बिना अपराध बोध के अपने आप को देखें। जब आप अपने आप से प्रेम करने लगेंगे, तो आत्मानुभव कर सकेंगे । और अगर आप चेतना को बाहरी अंतः प्रवाह से एकीकृत करके देखेंगे, तो शायद स्वयं को ही दोषी ठहराएँगे। शायद आप स्वयं को हतोत्साहित कर देंगे। हो सकता है कि आप अपनी आत्मा पर जमी धूल पर ध्यान केंद्रित करने लगेंगे, न कि उसके दर्पण जैसे गुण पर। और यदि आप स्वयं को पापी मान लेंगे, तो आप उस मिथ्या अवस्था में जीने लगेंगे। जहाँ भी आप जाएँगे, यह अपराध बोध आपके साथ चलेगा। यदि आप अपने बंधन से अपनी पहचान बनाएँगे, तो आप उससे कैसे छूट सकेंगे?
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