Book Title: Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 113
________________ कंपनों के अंत:प्रवाह पर चिंतन ८७ पास कोई न कोई तरकीब होती ही है - उन्हें छोटा करने या उन्हें छिपाने के लिए। मगर आज इस व्यक्ति के लिए, चीजें बड़ी होती जा रही थीं। 'नहीं, उसने सोचा, 'मेरा मन फट जाएगा।' पाँचवें दिन वह अपने मित्र के पास गया और उससे कहा, 'मैं बाहर आना चाहता हूँ। मुझे यह सब नहीं करना है।' 'मगर हमारी शर्त का क्या होगा?' साधक ने पूछा। 'भाड़ में जाए शर्त!' 'तुम इतने व्यग्र क्यों हो रहे हो?' 'क्योंकि मैं नरक जैसी यातना से गुज़र रहा हूँ, उसने कहा। 'मेरे विचार विकराल रूप धारण करते जा रहे हैं।' 'क्या तुम्हें नहीं लगता कि किसी न किसी दिन तुम्हें अपने विचारों का सामना करना ही पड़ेगा?' साधक ने अपने मित्र को स्नेह से झिड़कते हुए समझाया, 'क्यों न अभी से ही उनका सामना किया जाए? कब तक तुम उनसे भागते रहोगे? कभी न कभी तो उनका सामना करना ही होगा, तब क्यों न आज ही उनका मुकाबला किया जाए? उनको क्यों टाल रहे हो?' 'क्या मुझे उनका सामना करना ही होगा?' मित्र ने पूछा। 'यह समय सभी के लिए आता है; आज नहीं तो बाद में कभी। एक न एक दिन, तुम्हें अकेले रहना पड़ेगा, तुम्हारे चारों ओर कोई और नहीं होगा। क्यों न स्वयं का सामना आज ही कर लो? तुम जानते हो कि बहुत मिर्च-मसालेवाला भोजन खाने पर कैसा लगता है। शरीर में जलन होने लगती है। तुम्हारे अंदर विचार भी इसी तरह घुमड़कर फैल रहे हैं और तुम्हें परेशान कर रहे हैं। तुम न तो उन्हें नियंत्रित कर सकते हो, न ही उनसे छुटकारा पा सकते हो। तब उनका कोई उपाय तो करना ही होगा, क्यों न उन्हें बदल दिया जाए?' ___ 'क्या करूँ?' नवसाधक ने पूछा। 'मैं अपने विचारों को उनके वर्तमान रूप से कैसे बदल सकता हूँ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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