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जीवन का उत्कर्ष
नकारात्मक कंपनों को दूर भगा देती है। इसके लिए साधक को उन सभी द्वारों, छेदों और रास्तों को बंद करने का निर्णय लेना होगा जिनसे प्रदूषक तत्त्व अंदर आ सकते हैं। दूसरे चरण में वह अपनी चेतना के तल में झाँकेगा ताकि उस मिट्टी या चिपचिपे अवशिष्ट को खोदकर बाहर निकालना होगा। अंत में जब क्षेत्र बिलकुल स्वच्छ हो जाता है, वह द्वारों को खोलता है ताकि ताज़ा जल फिर से बहकर आ सके।
इस प्रक्रिया पर अग्रसर होने के लिए, कभी-कभी लोग कुछ समय के लिए दूसरों से संबंध तोड़ लेते हैं। उनके लिए ज़रूरी है कि स्वयं को कुछ अवकाश दे सकें। यह स्वयं से या संसार से पलायन करना नहीं है। 'अनासक्ति' शब्द की यह विवेचना उपयुक्त नहीं है। अनासक्ति दूसरों से दूर जाना नहीं है, बल्कि स्वयं के निकट आना है। आसक्त होने का अर्थ है बँधना। अनासक्त यानी मुक्त होना। जो भी चीज़ आपको बाँधती है, आपको खींचती-धकेलती है, वह आपका बंधन है। इस बंधन के कारण आप अपने दायरे में नहीं हैं। आप इधर-उधर खींचे जा रहे हैं, अस्थिर महसूस कर रहे हैं।
समय निकालकर स्वयं का निरीक्षण करें। अपने आपको जटिल स्थितियों से अलग कर दें। उन सभी बंधनों से स्वयं को मुक्त करें जो आपको प्रभावित करते हैं क्योंकि आप स्वच्छ, निर्मल दृष्टि से देखना चाहते हैं। ऐसा आप संसार से भागने के लिए नहीं, अपितु स्वयं को तैयार करने के लिए करते हैं ताकि जीवन के संग चलें, अपने निजी दायरे में भी, साथ ही साथ एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य में भी। और यदि आप स्वयं के साथ ही नहीं हैं, तो आप किसी दूसरे के साथ कैसे रह सकते हैं? यदि स्वयं को जानने से पहले ही आप किसी से कहें, 'मैं तुम्हारे साथ रहूँगा, तो आप झूठा वादा कर रहे हैं। इसके बजाय स्वयं से कहें, 'मैं स्थिर होना चाहता हूँ, चपल नहीं। मैं हलनचलन की इस निरंतर प्रक्रिया को रोकना चाहता हूँ। मुझे स्वयं के साथ रहना चाहिए ताकि मैं दूसरों के साथ सहज रहना सीख लूँ।'
इस तरह आप जीवन को एक आंतरिक प्रयोगशाला के रूप में देखते हैं। आप स्वयं पर परीक्षण करते हुए स्वयं से तीक्ष्ण प्रश्न करते हैं, 'क्या मैं अपने आपसे निश्चिंत हूँ? मैं दूसरों के पास क्यों जाता हूँ, उन्हें सुखी
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