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जीवन का उत्कर्ष
हावी हो जाता है। इस चिंतन से हम समझ सकते हैं कि किस तरह अन्य व्यक्ति और वस्तुएँ भी अपने आप में लाचार हैं। वे आपकी मदद कैसे कर सकते हैं जब वे खुद लाचार हैं?
वास्तविकता में जब तक आपके पास शुभ कर्म हैं, तब तक ही व्यक्ति या वस्तु आप के साथ रहेंगे। आप उनके साथ चिपके रहने के लिए सौ से अधिक उपाय जुटा सकते हैं, मगर जब कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब वे चले जाएँगे। अगर आप इस सत्य को देखने के लिए तैयार नहीं हैं, तो आप पूरी तरह धराशायी हो सकते हैं। आप जान जाएँगे कि वह तो एक टिकाव या सहारा था, मात्र एक बैसाखी। जब आप किसी सहारे या बैसाखी पर पूरी तरह टिकने लगते हैं, तब उसके टूटने पर क्या होता है? आप गिरने लगते हैं, बिखरने लगते हैं। बात अपने आंतरिक मांसल को सशक्त बनाने की है। सही तरह से किया हुआ ध्यान आपको गहन शक्ति देगा। आपका आंतरिक बल बढ़ने लगेगा।
इसका यह अर्थ नहीं कि आप कभी किसी की सहायता न लें। अर्थ सिर्फ यही है कि उस पर निर्भर न रहें। अगर कोई सहायता मिले, तो उसे लें, धन्यवाद दें और आभार प्रकट करें। फर्क यह है - अगर आप निर्भर नहीं करते रहते हैं और सहायता नहीं मिले, तो कोई बात नहीं। मगर जब आप निर्भर रहते हैं, तो आप सहायता की प्रतीक्षा करते हैं और अपनी उम्मीद बढ़ाते रहते हैं। फिर जब उम्मीद पूरी नहीं होती है, तब आप भय और घबराहट का एहसास करते हैं, 'अब क्या होगा? अब मेरा कौन है?'
अशरण भावना को उजागर करने के लिए जैन परंपरा में एक युवा संत की अर्थपूर्ण कहानी है। एक सुहावनी सुबह में वह एक वृक्ष के नीचे ध्यान में लीन थे। उस समय वहाँ के राजा थे बिंबसार, जो युवा थे और अति सुंदर थे। वे अभिमानी भी थे क्योंकि न तो धर्म को जानते थे, न अध्यात्म को, न ही आंतरिक जीवन को। बस, अपनी युवा शक्ति और समृद्धि पर उन्हें बहुत नाज़ था। वे मगध के सबसे शक्तिशाली राजा थे, जिसे अब बिहार के नाम से जाना जाता है। उस दिन सुबह जब बिंबसार अपने अश्व पर सैर कर रहे थे, वन में पक्षी चहचहा रहे थे, फूल कुसुमित हो रहे थे एवं प्रकृति अपने संपूर्ण सौंदर्य में थी।
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