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जीवन का उत्कर्ष उसे लगता था कि उसकी पत्नी उसके कामों में रुचि ले रही है। वही व्यक्ति अब सोचता है, 'मेरी पत्नी मेरे निजी मामलों में दखल दे रही है, वह मेरी उन्नति के लिए पर्याप्त अवसर नहीं दे रही है।'
जब कोई व्यक्ति आकर्षण के इस बीज को बढ़ने देता है, तो यह जल्द ही एक अपतृण में बदल जाता है। वह बढ़-चढ़कर उसके पूरे जीवन पर हावी हो जाता है। वह समझ नहीं पाता कि आकर्षण का यह बीज निर्भरता के अलावा कुछ भी नहीं है, सिर्फ शरीर का मोह है।
जब आप समझ जाते हैं कि सम्मोहनात्मक भाव-समाधि किस तरह अनजान मन पर हावी होकर उसमें शरीर की संज्ञानता भर देती है, उसे आकर्षण अथवा विकर्षण की ओर बढ़ा देती है, तब आप जान जाते हैं कि शरीर को दीपक की लौ के समान क्यों देखना चाहिए? शरीर के साथ अत्यधिक मोह को तोड़ने के लिए संत जन जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर, मल्लीनाथ द्वारा सिखाए गए पाठ पर चिंतन करते हैं। ये पहले मल्ली नामक एक नारी थी।
मल्ली एक सुंदर राजकुमारी थी जो विदेह नामक देश में रहती थी। बचपन से ही सभी उसकी खूबसूरती, उसके उजले रंग-रूप, उसके शांत स्वभाव की प्रशंसा करते थे। जब वह अठारह साल की हुई, तो कविगण उसकी खूबसूरती पर कविताएँ लिखने लगे और चित्रकार उसके चित्र बनाने लगे। सभी राजकुमारी मल्ली की ही बातें करना पसंद करते थे।
अपनी यात्राओं के दौरान व्यापारी और मंत्री, सुनार और शिल्पकार जहाँ कहीं जाते, राजकुमारी मल्ली की अनुपम सुंदरता की खबर उस प्रदेश में फैलाते और इस तरह दूर-दूर के राजाओं और राजकुमारों तक मल्ली की ख्याति फैल गई। एक ने उसे 'इस सृष्टि की सबसे आश्चर्यजनक रचना' घोषित किया, दूसरे ने उसे 'टहनी पर झुकते हुए ताज़े अंगूर' कहा। किसी
और ने 'सफेद गुलाब की पंखुड़ियों की वर्षा' से उसकी तुलना की और एक यायावर साध्वी ने कहा कि मल्ली 'संध्याकालीन तारे' के समान है। जैसे ही छह पड़ोसी राज्यों के राजाओं ने मल्ली की सुंदरता के बारे में सुना, उनमें से हर कोई उससे विवाह करने के लिए उत्सुक हो गया। प्रत्येक ने
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