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जीवन का उत्कर्ष तीसरा पहलू जिसपर हमें चिंतन करना है, वह है संसार, जिसका अर्थ है निरंतर ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर आते-जाते रहना, एक परिष्कृत
और लयपूर्ण गति में किसी वृहत् चक्र की तरह। यह एक निरंतर प्रक्रिया है। जब कोई व्यक्ति सुख और स्वामित्व के लोभ से वशीभूत हो जाता है, तब वह एक अविरल गति में फँसकर वहीं पहुँचता है जहाँ से वह निकला था, घाणी के चारों ओर घूमते हुए बैल की तरह। मगर जिसे जीवन की उद्देश्यपूर्ण दिशा का ज्ञान है, वह पहिये के हर घुमाव के साथ प्रगति की तरफ अग्रसर हो सकता है, स्वयं को ऐसी वस्तुओं के पीछे भागने से रोक सकता है जो क्षणभंगुर हैं। इसलिए जो एक के बंधन का कारण है, वह दूसरे की मुक्ति का कारण बन सकता है। यह तो हर व्यक्ति की समझ और दृष्टिकोण पर निर्भर है। अत: यह भावना साधक को सिखाती है कि वह जीवन के वृहत् चक्र को देखता रहे, मगर उसके साथ अपनी पहचान नहीं बनाए।
हम सभी ने उन सफल और मशहूर परिवारों के बारे में सुना है जिनके बच्चों ने सब कुछ खो दिया और जो भुलाए जा चुके हैं। हमने यह भी देखा है कि जो इस सांसारिक मापदंड के अनुसार 'कुछ' नहीं थे, वे 'कुछ' बन गए। चक्र हमेशा घूमता रहता है। यह एक अंतहीन प्रक्रिया है। कुछ दिन ऐसे होते हैं जब हमारा जीवन स्वर्ग के समान होता है, और कुछ दिन ऐसे होते हैं जब सब कुछ नरक के समान लगने लगता है। जिस व्यक्ति से आप सवेरे मिलते हैं, वह शाम तक वैसा ही नहीं रहता। मनोवेगों के कारण हमारे स्वभाव में कितने बदलाव आते रहते हैं!
इसलिए नवदीक्षित चक्र को देखते रहते हैं। वे देखते हैं कि जो नीचे है, वह नीचे नहीं रहेगा। वह ऊपर जाएगा, वह निरंतर जाता रहेगा। इस तरह अवलोकन करते हुए दीक्षित सीखता है कि ऊँच-नीच को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। 'यह चक्र घूम रहा है, मैं नहीं, वह देखता है। 'मैं उसी आसन पर बैठा हूँ। जो ऊपर और नीचे जा रहा है, वह तो चक्र है। मैं यहीं हूँ - स्थिर।'
जब आपको यह अनुभूति होने लगेगी, तब आप जीवन के खेल को देखने लगेंगे। वह गंभीरता, वह उपेक्षा - जो बादल आपकी आंतरिक शांति
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