________________
४६
जीवन का उत्कर्ष अगर आप अपने मित्र के साथ सेतु बाँध रहे हैं, तो आप अपनी भावना व्यक्त कर सकते हैं। अगर आपका मित्र सहमत नहीं है, तो आप कम से कम कह तो सकते हैं, 'हम अपनी असहमति में सहमत हैं।' इसमें भी आपकी सहमति है। यहाँ नाराज़ होने का कोई कारण नहीं है। यह एक बहुत गहरी अनुभूति है - स्वयं को सारे बंधनों से मुक्त कर देना।
हम इस संसार में लड़ने-झगड़ने के लिए नहीं आए हैं, न ही उदास या दु:खी होने के लिए। कई लोग हैं जो व्यवहार के ऐसे दुष्कर भँवर में फँसे हुए हैं। उन्हें रहने दीजिए। जिनका मन सांसारिक वस्तुओं में आसक्त हैं - जैसे अधिकार, पद, दौलत - वे और कुछ नहीं कर सकते! आप देख सकते हैं कि जब उनको शक्ति खत्म हो जाती है और उनके सांसारिक बंधन चले जाते हैं, तब उनके साथ क्या बीतती है? उनका जीवन निराशा में डूब जाता है। आप उनकी कटुता, उनके दुःख का अंदाज़ा नहीं लगा सकते। यह वस्तुओं का स्वभाव है कि वे चली जाएँगी। लोग दु:खी बन जाते हैं क्योंकि वे अपने मन और अपनी ऊर्जा को उन वस्तुओं में आसक्त होने देते हैं जिन्हें अंतत: चले जाना है।
मगर आप दूसरों की बढ़ौती और उन्नति में मदद करना चाहते हैं क्योंकि आप जानते हैं कि यह जीवन संपर्क बढाने के लिए है। आप स्वयं से कहते हैं, 'जितना मुझसे संभव है, उतने ही अधिक लोगों के साथ समागम करना चाहिए।' आपके रिश्ते खरे हैं क्योंकि आप द्वैतभाव उत्पन्न नहीं कर रहे हैं।
__कोई व्यक्ति लंबा या नाटा हो, पतला या मोटा, गरीब या अमीर, एक जाति या दूसरी जाति का, शिक्षित हो या नहीं - आप तो उस कर्ता के साथ संबंध जोड़ते हैं जो व्यक्ति के मध्य में है। आप किसी को ऊँचा या नीचा नहीं मानते हैं। आप स्वयं को वैसी विषमता से सीमित नहीं करते। तब ऐसी कोई भी विषमता जिससे परेशानी होती है, चली जाती है। उसी क्षण से आप संसार के साथ एक अनूठा संबंध स्थापित कर लेते हैं। अब सभी के साथ जीना और व्यवहार करना आसान हो जाता है क्योंकि आप सभी के साथ सहभाजन के स्तर पर हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org