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जीवन का उत्कर्ष
आकांक्षा करने वाला, न सिर्फ कम में संतोष करने वाला। हम चाहते हैं कि पथ का हर कदम हमें और आगे ले जाए ।
दस वर्ष पूर्व आपने जो सपना देखा था, शायद अब वह पूर्ण हो गया है। अब आप चाहते हैं कि आपको कुछ अधिक मिले। आप अधिक आगे बढ़ना चाहते हैं। यह 'अधिक' उस ऊर्ध्व - गत्यात्मक तत्त्व का स्वभाव है। आप जहाँ भी जाएँगे और जो कुछ भी पाएँगे, यह 'अधिक' आपके साथ रहेगा। वह अंत तक रहेगा जब तक आप अपने चरम उत्कर्ष को प्राप्त न कर लें। आप उस ऊँचाई पर अब तक नहीं पहुँचे हैं, इसीलिए उसकी चाह आपके साथ है।
अतः शुचि पर ध्यान कीजिए और स्वयं से पूछिए, 'मेरे अंदर क्या है जो ऊपर बढ़ रहा है? जीवन का शुद्ध, अद्वितीय सत्व क्या है? मुझे इसे उन तत्त्वों में से एक नहीं समझना चाहिए जो बनते और नष्ट होते रहते हैं । '
खोज कीजिए, 'मेरे विचारों एवं भावनाओं की गुणवत्ता क्या है? मेरे कंपनों की आवृति क्या है? क्या वे मुझे उठा रहे हैं या नीचे गिरा रहे हैं ? क्या वे मेरे अंदर के भार को बढ़ा रहे हैं या मेरे प्रकाश को प्रकट करने में कार्यरत हैं?'
यह अत्यावश्यक है कि हम विवेक के द्वारा इन दोनों के बीच अंतर कर सकें। अगर यह विवेक दृष्टि नहीं है, तो खतरा बना रहता है कि हम अपने शुद्ध सत्व की अलग पहचान न करते हुए उसे गिराने वाले भौतिक आवरण की परत ही समझ लेंगे। यदि आत्मचेतना का प्रकाश नहीं है, तो मन हमें भ्रमित करता रहता है। सम्मोहन की मूर्च्छा का ऐसा प्रभाव होता है। हम अपने आत्मस्वरूप की अनुभूति किए बिना ही जीवन जीते हैं। इसे आत्मप्रवंचना कहते हैं। स्वयं की गलत सोच आपको जितना भ्रमित कर सकती है, उतना कोई और दूसरा नहीं कर सकता। शायद आप सोचें, 'मेरे पास सब कुछ है। मैं जो भी चाहूँ, खरीद सकता हूँ। मैं खुश हूँ।' किंतु अचानक दुःख रेंगता हुआ आ जाता है और आपका मन निराश हो जाता है।
अतः हम अपनी उदासीनता को समझने के लिए कुछ समय निकालते हैं, उस भार को समझने के लिए जो हमें चलने नहीं देता। हम
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