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निर्भरता से मुक्ति मगर हमारी मानसिकता हमेशा व्यसन और बंधन की तरफ झुकती है। हम वस्तुओं को स्वयं के साथ बाँधना चाहते हैं। एक बार जॉर्ज बरनार्ड शॉ अपने बगीचे पर झाँकती खिड़की के पास बैठे थे। उनका चचेरा भाई बाग में गया, कुछ फूलों को उखाड़ा और उन्हें एक फूलदान में डाल दिया। शॉ ने उससे पूछा, 'तुमने ऐसा क्यों किया?'
चचेरे भाई ने जवाब दिया, 'अपने स्वागत कक्ष को सजाने के लिए।'
शॉ ने पूछा, 'अगर कोई आकर तुम्हारा सिर काट दे, तुम्हें कैसा महसूस होगा? तुमने बगीचे में ठहरकर पल्लवित होते पौधों का आनंद क्यों नहीं लिया? मैं रोज़ यहाँ बैठकर उन्हें निहारता हूँ। अपने घर को सजाने के लिए तुम्हें उन्हें उनके स्थान से हटाना पड़ा। ऐसा करने के बजाय तुम खुद उनके पास क्यों नहीं चले जाते हो?'
यह मनोविज्ञान का एक उदाहरण है। जब आप आसक्ति से घिरे हुए हैं, तब आप जीवन को उसके स्थान में बढ़ते हुए नहीं देखना चाहते। आप उसे अपने पास रखना चाहते हैं, एक पाकेट में डालकर लेबल लगाकर उसे अपना कहना चाहते हैं, 'यह मेरा है।' अगर आप ऐसा करेंगे, तो क्या होगा? जीवन शीघ्र ही सूख जाएगा।
जब यह प्रतिबोध खुलकर पल्लवित हो जाता है, तब आप संसार के साथ प्रेमपूर्ण हो जाते हैं।
आप सभी के मित्र बन जाते हैं। आप कहते हैं, 'चलो हम सेतु बनकर रहें और एक दूसरे के साथ संपर्क करें।'
अब आप किसी दूसरे के बंधन का कारण नहीं बनना चाहते हैं। आप बँधना नहीं, अपितु मुक्त होना चाहते हैं। अगर आप किसी व्यक्ति के साथ बंधन की पहचान बनाते हैं, उसकी समस्या को अपने सिर पर लेते हैं, तब आप उसे अवकाश नहीं दे रहे हैं। जब वह व्यक्ति आपकी इच्छानुसार नहीं करता है, तब आप खीजने लगते हैं। आप शिकायत करते हैं, 'वह मेरी इच्छानुसार नहीं कर रहा है। मैं उसे बीसों बार समझा चुका हूँ, मगर फिर भी वह मेरी बात नहीं सुनता है।' आप दुःखी और गुस्सैल हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि आप उसके साथ पहचान बना रहे हैं।
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