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जीवन का उत्कर्ष असंतुष्ट होंगे और अंतर में निरंतर संघर्ष चलता रहेगा। इनसे कुंठा एवं तनाव बढ़ते जाएँगे।
___ अब हम प्रकाश की आवश्यकता को पहचानने लगे हैं। यह प्रकाश कहाँ से आता है? गहन आंतरिक अनुभूति से, उन अनुभवों पर ध्यान करने से जो गुरुजनों ने अपने शिष्यों को दिए हैं। इस प्रकाश से हमें आंतरिक तनाव को व्यक्तिपरक दृष्टि से देखने में एवं बाहरी असमंजस को वस्तुपरक दृष्टि से देखने में सहायता मिल सकती है।
लेकिन गुरुजनों के अनुभवों को समझने के लिए एवं अनुभूति करने के लिए हमें कुछ तैयारी की, आधार-कार्य की आवश्यकता है। अपने अंदर आने वाले सत्व के प्रवाह को ग्रहण करने के लिए पात्र को तत्पर रहना चाहिए, अन्यथा प्रवाह से पात्र टूट जाएगा, नष्ट हो जाएगा, पिघल जाएगा
और सत्व मिट्टी में मिल जाएगा। ठीक इसी तरह यदि हमारा मन सत्य के लिए तैयार नहीं है, तो वह भयभीत हो सकता है। वह सत्य का सामना नहीं कर सकेगा।
इसलिए नवदीक्षित शिष्यगण सत्य ग्रहण करने के लिए स्वयं को तैयार करते हैं। वे अपने पात्र को सत्व के अनुरूप सशक्त बनाते हैं। इसी उद्देश्य से वे गुरुजनों की शिक्षा को अपने जीवन में सम्मिलित करके आत्मसात कर लेते हैं। ऐसा करने से उन्हें जीवन में शांति मिलती है। इस संसार में वे ऐसी अभिज्ञता से जी सकते हैं जिससे न ही वे अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हैं और न ही तनाव महसूस करते हैं। वे स्वयं को या दूसरों को किसी भी प्रकार की पीड़ा, दुःख एवं यंत्रणा नहीं देते हैं।
जिन लोगों को आप इस संसार में बुद्धिमान एवं निपुण समझते हैं, अक्सर वे अंदर से वैसे नहीं होते। यदि आप अपने विचारों को संतुलित रखते हुए निरपेक्ष दृष्टि से उन्हें देखेंगे, तो आपको बोध होगा कि वे अपने जीवन में पीड़ा को अंतनिर्विष्ट करने के सिवाय और कुछ नहीं करते हैं। ऐसा करते-करते वे एक ऐसे मोड़ पर पहुँच जाते हैं जहाँ इतना दुःख एवं अथाह पीड़ा है कि वे झेल नहीं पाते हैं। उससे बचने के लिए, उससे छुटकारा पाने के लिए वे कई उपाय आज़माते हैं। दुःख को शामक करने वाली दवाइयों का सेवन करते हैं। इनका सेवन इस बात का संकेत है कि
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