Book Title: Jivan ka Utkarsh Author(s): Chitrabhanu Publisher: Parshwanath VidyapithPage 79
________________ पंचम - अन्यत्व भावना अतुल्य की खोज में मानव जीवन एक ऐसा स्थान है जहाँ हम शांति एवं समझ से बढ़ सकते हैं, बशर्ते कि हमें कुछ ज्ञान प्राप्त हो। ज्ञान रूपी प्रकाश के बिना यहाँ अव्यवस्था बढ़ जाती है एवं हम अपना मार्ग खो सकते हैं। उसी तरह, जैसे रात्रि में हाथों में टार्च के बगैर चलने से ठोकर खाकर नीचे गिर सकते हैं। मानव जीवन सौंदर्य एवं रहस्य में सिमटा हुआ है। वह हमें अभिभूत करता है, हम पर छा जाता है एवं रोमांचित कर देता है। मन उसका अन्वेषण करने की, अंदर तक झाँकने की, उसके मूल तक पहुँचने की कोशिश करता है, लेकिन वह सफल नहीं हो पाता। यह तो उस बालक के समान है जो अपने हाथ फैलाकर सागर की विशालता के बारे में आश्चर्य से कहता है, 'मैंने इतना सारा जल देखा! वह इतना विशाल था! उसका यह वर्णन सागर की विशालता के माप को छू भी नहीं सकता। इसी तरह, जब मन इस ब्रह्मांड के रहस्य का वर्णन करता है, तब वह उस बालक के समान ही है। मन न ही इसे प्रकट कर सकता है, न ही इसे समझ सकता है। क्यों? क्योंकि इस जीवंत ब्रह्मांड का रहस्य असीमित है और हमारा मन सीमित है। इसलिए हमें प्रकाश की, कुछ शक्ति की आवश्यकता है जो मन से परे हो, जो अपरिमित हो। जब हमारे पास वैसा प्रकाश होगा, तभी हम ब्रह्मांड के रहस्य को समझ सकते हैं। तभी हम अपने मन को शिक्षित कर सकते हैं एवं संकल्पनाओं, आकारों एवं परिभाषाओं में जकड़े हुए मन को उनसे मुक्त कर सकते हैं। अगर हम अपने मन को प्रबुद्ध नहीं करेंगे, तो वह एक शिक्षक की भूमिका अदा करने लगता है। भले ही ऐसा अप्रबुद्ध मन उस प्राथमिक शाला के बालक के समान ही है, लेकिन वह ब्रह्मांड के रहस्य को समझाने का दावा करता रहता है। अगर हम स्वयं को इस सीमित मन के मार्गदर्शन में चलने देंगे, तो दो बातें होंगी। बाहरी तौर पर हम रिश्ते-नाते रख नहीं पाएँगे एवं आंतरिक तौर पर शांति से जी नहीं पाएंगे। बाहर से हमारे संबंध विचलित या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184