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अतुल्य की खोज में अंततः हर वस्तु को कभी न कभी जाना ही है। यह बात कहने में आसान लगती है, लेकिन जीवन में इसे अपनाना कठिन है। जब परीक्षा की घड़ी आती है, कभी-कभी हम वैसा नहीं कर पाते हैं। हम अलग व्यवहार कर बैठते हैं। एक कुत्ता हड्डी के टुकड़े के पीछे इतना पागल क्यों है? उसमें न तो रस है, न ही मांस। उसमें कुछ भी नहीं है, एकदम सूखा है। लेकिन कुत्ता उसे चबाता ही जाता है, और कभी-कभी इस चबाने की प्रक्रिया में वह अपनी जीभ को काट देता है। रक्त बहने लगता है और हड्डी में लग जाता है। कुत्ता उसे चाटते हुए सोचता है, 'अरे वाह! कितनी मिठास है!' उसे इस खुशी में इतनी मिठास लगती है कि वह पीड़ा की संपूर्ण प्रक्रिया को भूल जाता है। वस्तुओं से बँधे रहना मन की आदत है। नवदीक्षित साधक सांसारिक वस्तुओं को उनके असली रूप में देखते हैं, उन्हें रंगे बिना, विकृत किए बिना। जब आप स्वच्छ दृष्टि से देखते हैं, तब आप वस्तुपरक विरोध या व्यक्तिपरक असमंजस से पीड़ित नहीं होते। आप इन दोनों से मुक्त हैं।
जब आप स्वत्व पर ध्यान करेंगे, तब धीरे-धीरे महसूस करने लगेंगे कि आप जो कुछ हैं, उसकी किसी सांसारिक वस्तु से तुलना नहीं हो सकती। स्वयं से कहिए, 'मैं सक्रिय ऊर्जा के साथ जी रहा हूँ।' जब भी और जहाँ भी आप उस सक्रिय ऊर्जा को देखेंगे, आप उन जीवंत प्राणियों के साथ प्रेम की धारा का अनुभव करेंगे।
जब आप दूसरे मनुष्यों को देखते हैं, तो उनके अंदर की आत्मा को देखिए। जैसे आपने स्वयं के अंदर के 'मैं हूँ' को देखा है, उसी तरह आप उनके अंदर के 'मैं हूँ को देख पाएँगे। इस तरह आप मोह के सोपान पर नहीं जिएँगे। आप लोगों पर अधिकार करने की, उन्हें अपने ‘बटुए' में रखने की कोशिश नहीं करेंगे। वे जैसे हैं, वैसे ही रहने दीजिए। प्रेम के सोपान पर जिएँ, न कि अधिकार के सोपान पर।
__अगर आप खरे हैं, तो दूसरे लोग भी खरे होंगे। अगर आप देखते हैं कि कोई रिश्ता खरे तौर पर नहीं बढ़ रहा है, तो उस व्यक्ति को अपने रास्ते पर जाने दीजिए। स्वयं से कहिए, 'मैं यहाँ पर किसी और की पीड़ा को झेलने नहीं आया हूँ।' ऐसा करने से देखिए कि आपके रिश्ते कितने सरल,
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