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जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति
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पिटारी दीजिए। यह बहुत भारी है, इसलिए इसे उठाकर आप जल्दी नहीं भाग पाएँगे।'
बूढ़े आदमी ने उन अंतिम क्षणों में भी अपने बेटे पर विश्वास नहीं किया। बेटे को गुस्सा आया और उसने अपने पिता को एक लकड़ी से मारकर पिटारी खींची और भाग गया। उसी क्षण ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ और सारा गाँव वहीं दब गया, बाप और बेटे भी । उनका रिश्ता सतही था, सिर्फ आवश्यकता और लालच पर आधारित । वे एक दूसरे की रक्षा सिर्फ कुछ पाने की उम्मीद में कर रहे थे। ...
इसलिए द्रष्टा बनें। देखिए किस तरह अमीर गरीब बन जाते हैं, बच्चे बूढ़े हो जाते हैं और महान तुच्छ बन जाते हैं। इसे देखने में आनंद मिलता है। गहना बदल जाता है, मगर स्वर्ण वैसा ही रहता है।
अपने स्वरूप को देखिए । वह सुंदर है। देखिए कि आपके भीतर कौन है जो इन सब को साँस दे रहा है? कौन शरीर को एहसास दे रहा है जिससे वह अनुभव कर रहा है? कौन गले को आवाज़ दे रहा है और ज़बान को स्वाद ? कौन नासिका को गंध की अनुभूति दे रहा है? कौन आँखों को रोशनी और दृष्टि, एवं कानों को श्रवण शक्ति दे रहा है? कौन मन को अभिज्ञता दे रहा है? जब आपको अनुभूति होगी कि आप ही इन इंद्रियों को जान दे रहे हैं, तब आप झूठे विश्वास और बाहरी आश्रयों को स्वीकार नहीं करेंगे। आप अपने मन के दरबान को समझा देंगे कि द्वार खोलकर आपको अंदर आने दे ताकि आप स्वयं की वास्तविकता को देख सकें। जब आप स्वयं के इस अपरिवर्तनशील केन्द्र को देखेंगे, तब आप चौंक पड़ेंगे, 'वह सत्य यहाँ है ! वह सत्य मैं हूँ!'
इस तरह अब आप परिधि को मध्य से देखते हैं। आप जीवन को उस कोण से देखते हैं जो सारे कोणों का द्रष्टा है। आप माध्यस्थ भाव में आ जाते हैं। आप चक्र के प्रत्येक घुमाव से जकड़े हुए नहीं हैं। इस तरह आप मुक्त हैं, अतीत के उन कर्मों से नहीं जो संसार के चक्र में निरंतर घूमते रहते हैं, मगर उस अज्ञान से जिसके कारण आप अतीत में बदलते तत्त्वों से जकड़े हुए थे। अब आप अपने स्वभाव के बदलाव से मुक्त हैं। आप वास्तविक मुक्ति के दर्शन करते हैं।
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