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जीवन का उत्कर्ष अतः हमें हमारे मन के द्वार खोलकर देखना चाहिए कि दृश्य अदृश्य पर निर्भर करता है। अगर अदृश्य नहीं है, तो दृश्य का कोई अस्तित्व नहीं है। अगर अमूर्त नहीं है, तो मूर्त के पास भावना नहीं है। अमूर्त के बिना मूर्त का एहसास नहीं किया जा सकता है। हम मूर्त से इसीलिए प्रेम करते हैं क्योंकि उसके केन्द्र में अमूर्त है।
उदाहरण के लिए, उस नारी को देखिए जिसने एक सौंदर्य प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता है। सभी राष्ट्र उसे विश्व सुंदरी मानते हैं। उसके सौंदर्य से मोहित होकर कई लोग उससे शादी करना चाहेंगे। वे उस सुंदर शरीर में स्थित आत्मा के बारे में नहीं सोचते हैं। मगर एक दिन उसकी आत्मा शरीर को छोड़ देगी। उसका शरीर मृत पड़ा रहेगा, मगर तब उसके चाहने वाले जो आत्मा में विश्वास नहीं करते, वे भी उससे शादी करने के लिए राज़ी नहीं होंगे। सभी कुछ अभी भी विद्यमान है - आँखें, कान, हाथ-पाँव और आकार।
क्या कारण है कि अब इस मृत, दृश्यमान शरीर में कोई आकर्षण नहीं रहा? बेशक इसमें से कुछ चला गया है! साँस चली गई है। मगर साँस का संचालक कौन था? कौन साँस की प्रक्रिया कर रहा था? कौन अंतश्वसन और उच्छश्वसन कर रहा था? कौन उस साँस के केन्द्र में था? क्या आप जानते हैं? मैं अब कहता हूँ कि यही सत्य जानने के लिए आप यहाँ आए हैं। जब आप इस पर ध्यान करेंगे, तब आप उस अमूर्त को जानने लगेंगे जो इस मूर्त शरीर को जान देता है और इसे सुखद, जीवित और सामाजिक बनाता है।
जब आप स्वयं में अपने भौतिक पहलू से परे कुछ देखने लगेंगे, तब आपका जीवन सार्थक हो जाएगा। आप अपने मनुष्यत्व को सराहने लगेंगे। दूसरों के प्रति अपने बर्ताव में बदलाव लाएँगे। आप सिर्फ भौतिक शरीर को महत्व नहीं देंगे।
अब आप लोगों को वस्तु मात्र नहीं समझेंगे। रिश्ते बदलने लगेंगे क्योंकि आप उनके साथ कर्ता होने का नाता निभाएँगे। अभी तक आप दूसरों को वस्तु मात्र समझते आए हैं, आपने उनके साथ एकत्व का एहसास
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