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अनित्य के भीतर है नित्य नहीं पहचाना। वे सब तुम्हारे पास थे क्योंकि वैसी ज़रूरत थी। उन्होंने उसकी पूर्ति की और अब वह ज़रूरत खत्म हो चुकी है। मेरी आवश्यकता वह नहीं है। मेरी आत्मा की आवश्यकता ही मेरी आवश्यकता है।'
नर्तकी के गालों पर अश्रु बहने लगे। वह बिलखने लगी। उसका सारा अज्ञान उन अश्रुओं में धुल गया। उपगुप्त ने उसका खूब ख्याल रखा।
अब उपगुप्त ने कहा, 'चलो, अब हम उस तुच्छ 'मैं' से परे जाकर असली 'मैं' की अभिज्ञता पाने में दूसरों की मदद करें।'
नर्तकी जल्दी ही भली चंगी हो गई। जब वह फिर से सशक्त बन गई, उसने अपने पहले वाले जीवन का त्याग कर दिया। वह उपगुप्त की शिष्या बन गई। उसने अपने जीवन के बचे हए दिन शांति से ध्यान करने में और दूसरों के साथ अपनी प्रज्ञा बाँटने में व्यतीत किए।. . .
जब हम अपने अंदर के उस असली 'मैं' को नहीं पहचानते हैं, तब हम निरंतर नकली 'मैं' को बनाए रखने की चेष्टा में लगे रहते हैं। नकली 'मैं' वह है जो समाज द्वारा, भावनाओं द्वारा और आवश्यकताओं द्वारा निर्मित किया गया है। यह वही है जिसे हम शरीर का 'मैं' कहते हैं, नाम का 'मैं' कहते हैं, आकार का 'मैं' कहते हैं। जब भी हमें इस सतही 'मैं' के प्रति कोई आपत्ति नज़र आती है, तब हम बेचैन, नाराज़ और हताश हो जाते हैं। हमारे अंदर भय का संचार हो जाता है। हम इस 'मैं' की रक्षा के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। मगर उसकी रक्षा नहीं हो सकती।
इस सतही 'मैं' का वास्तविक स्वभाव है परिवर्तनशील होना। इसीलिए वहाँ भय है। हमारे अंदर कोई जानता है कि इस 'मैं' में स्थायित्व का गुण नहीं है। यदि हम सतत परिवर्तनशील 'मैं' के साथ अपनी संपूर्ण पहचान बनाएँगे, तब हमारे पास वह निर्भयता नहीं आएगी जो हमारे अंदर के अपरिवर्तनशील के ज्ञान से उत्पन्न होती है।
इसके लिए हमें उस निर्भयता की आवश्यकता है। वह हमारे अंदर तभी आ सकती है जब हम वास्तविक 'मैं' और उसकी नित्यता को जान लेंगे, जब हम नित्य और अनित्य के बीच का अंतर जान लेंगे। उस वास्तविक 'मैं' को जानने से हम यह भी जान लेंगे कि वह कहीं नहीं जाने
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