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जीवन का उत्कर्ष
है। विरह अस्थायी है। फिर से मिलते हैं। यहाँ इस परिवर्तनशील का तात्पर्य उससे है जो मर नहीं सकता, क्योंकि उसका कभी जन्म नहीं हुआ, यही जीवन का यथार्थ है।
इस तरह ध्यान करते हुए हम विवेकशीलता और विशाल दृष्टि का विकास करते हैं। वे छोटी चीजें जो हमारे व्यसनों को बढ़ावा देती थीं, अब हमें तंग नहीं करतीं। अब अस्थायी चीज़ों को पाने के लिए हम इतनी ऊर्जा को व्यय नहीं करेंगे। हम दूसरों की गलतियों के प्रति उदार बन जाएँगे। हम सभी जीवों के साथ एकत्व की अनुभूति करेंगे और अनित्यता के उफान पर अश्रु नहीं बहाएँगे। अपनी आंतरिक दृष्टि से हम उसे देखेंगे जो सभी में जीवंत है, सभी को प्राण दे रहा है। अब हम आनंद की अनुभूति करेंगे।
चिंतन के बिंदु यदि हम सभी आकारों के परिवर्तनशील स्वभाव को नकारने के बजाय स्वीकार कर लेंगे, तो हम गहराई में जाकर अनुभूति कर. सकते हैं कि सतत परिवर्तनशील के पीछे अपरिवर्तनशील जीवन है।
बदलाव विकास के लिए है, और विकास बदलाव के लिए। इन दोनों की मदद से हम अपनी आंतरिक दिव्यता से अभिज्ञ हो सकते हैं और उच्चतर जीवन की तरफ बढ़ने की प्रेरणा पा सकते हैं।
मुझे अपने चारों तरफ बुने हुए उस अस्थायी जाल को टिकाने का प्रयत्न छोड़ देना चाहिए ताकि मैं संपूर्ण जीवन के साथ संबंध बना सकूँ।
हमारे अंदर कुछ तो है जो रहेगा। वह प्रेम है, वह आत्मा से आत्मा का संबंध है।
प्रकट होना और ओझल होना, दोनों ही जीवन के खेल हैं। दोनों एक ही सागर की दो तरंगें हैं, दोनों सत्य को नूतन ढंग और ताज़गी से प्रकट करने के लिए हैं।
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