________________
अनित्य के भीतर है नित्य
११
उपगुप्त नामक एक युवा साधु का सुंदर दृष्टांत हैं। वर्षा ऋतु की रात में, जब वन का पथ अँधेरे की चादर से ढका हुआ था, उपगुप्त एक वृक्ष को ढूँढ़ता हुआ पहुँचा और ध्यान करने बैठ गया ।
अब ऐसा हुआ कि एक सुप्रसिद्ध नर्तकी उसी समय वन से गुज़र रही थी, अपने प्रियतम से मिलने के लिए। अँधेरा इतना गहरा था कि पथ नज़र नहीं आ रहा था। अपना रास्ता ढूँढ़ने के लिए वह ज़मीन पर देखते हुए चल रही थी कि वह उपगुप्त से टकरा गई।
'ओह,' वह चौंकी। 'यहाँ कौन है?'
तभी आसमान में बिजली कौंधी और उसकी रोशनी में नर्तकी की नज़र उस व्यक्ति पर पड़ी जिससे वह टकराई थी।
'इतना ख़ूबसूरत व्यक्ति यहाँ बैठा है, उसके मन में विचार उठा । 'कितना शांत और निश्चल है! इसका सुंदर चेहरा और शरीर देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानों संगमरमर से तराशा गया हो। ओह, अगर मुझे यह व्यक्ति मिल जाए, तो धरती पर स्वर्ग मिल जाएगा !'
उसे अपने सौंदर्य पर नाज़ था। वह उस ज़माने की सबसे मशहूर नर्तकी थी और चाहने वाले उसके चरणों में खिंचे चले आते थे। उसने कहा, 'तुम इतने शांत हो, तुम्हारे चेहरे पर इतना तेज़ है। कृपया मेरे साथ चलो।'
जब उसे जवाब नहीं मिला, तब उसने उपगुप्त को हिलाकर कहा, 'तुम किस पर ध्यान कर रहे हो? देखो, मैं कौन हूँ !' उपगुप्त ने नर्तकी को पहचान लिया, 'मैं जानता हूँ कि तुम कौन हो। मैं यह भी जानता हूँ कि तुम मुझे चाहती हो, मगर यह सही समय नहीं है। तुम अपने रास्ते जाओ। मैं तुमसे किसी और दिन मिलूँगा।'
नर्तकी ने सोचा, 'कहता है- मैं जानता हूँ कि तुम मुझे चाहती हो, फिर देर किस बात की?' उसने फिर से उपगुप्त से कहा, 'टालने का कारण क्या है ? देर हो जाएगी। यही सही समय है।'
उपगुप्त ने जवाब दिया, 'मैं जानता हूँ, मगर सही समय सही ढंग से नहीं आया है। वादा करता हूँ कि एक दिन मैं तुमसे मिलूँगा। याद रखना,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org