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अनित्य के भीतर है नित्य इस 'मैं' का निरंतर प्रयोग करने के बावजूद अधिकांश लोग इसे नहीं जानते। जब हम कहते हैं, 'मैं तुमसे मिलकर बात करना चाहता हूँ, तब 'मैं' से हमारा क्या आशय है? क्या हम शरीर और इंद्रियों को 'मैं' कह रहे हैं? क्या हम कह रहे हैं, 'मेरी इंद्रियाँ तुमसे मिलना चाहती हैं?'
क्या वाकई में सिर्फ शरीर ही है? या क्या उससे परे कुछ और है? जब डॉक्टर किसी व्यक्ति को मृत घोषित करता है, तब शरीर तो यहीं है, इंद्रियाँ भी यहीं हैं। मगर जो चेतन, जीवंत शक्ति एहसास कर सकती थी, वह अब इस शरीर में नहीं है। जिसे भी आपने 'मैं समझा था, वह सब कुछ यहीं है। तब क्या चला गया? पल भर पहले उम्मीद थी, मगर अब डॉक्टर कहता है, 'कोई उम्मीद नहीं बची।' पल भर में क्या बदल गया है? क्या शरीर और इंद्रियों के 'मैं' से परे कोई और 'मैं' है जो शरीर से जा चुका है?
सीधे स्वयं के पास जाइए और पूछिए, 'वह क्या है जो चला गया? जब आप कहते हैं, 'मैं तुमसे प्यार करता हूँ, तो क्या आपका तात्पर्य शरीर से है?'
अगर ऐसा है, तो हम उसे कफन में क्यों डाल देते हैं? हम उसे क्यों नहीं रखते हैं? रसायनों के प्रयोग से हम शरीर को टिका सकते हैं, मगर हम उसे रखना नहीं चाहते। जिस शरीर में से असली 'मैं' लुप्त हो चुका है, हमारे मन में उसके लिए वही संचार और कोमल दृष्टिकोण क्यों नहीं है, वही प्रेम और आनंद का एहसास क्यों नहीं है?
___क्या लुप्त हुआ है और कहाँ चला गया? 'उसका' अस्तित्व लुप्त नहीं हुआ। अगर वह लुप्त हो गया, तो फिर यह जगत् अनित्य है, सतत परिवर्तनशील है, और कुछ भी नहीं।
मगर अपरिवर्तनशील है, सारतत्त्व है। सिर्फ किसी विशेष क्षण में, किसी विशेष व्यक्ति में ऐसा प्रतीत होता है कि उसका अस्तित्व नहीं है। ऐसा भान होता है मानों संध्या अपनी अलौकिक ललाई और आभा लिए गायब हो गई है। फिर भी, हम जानते हैं कि वह हमेशा के लिए नहीं गई है। संध्या यहीं कहीं है, किसी नवीन रूप में।
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