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जीवन का उत्कर्ष
अगर आप दो हज़ार मील प्रति घंटे की रफ़्तार वाले हवाईजहाज़ में यात्रा करेंगे, तो सूर्य की आभा को देख सकेंगे। आप उसके साथ-साथ रह सकते हैं और देखेंगे कि वह आभा कहीं नहीं जाती है। उसके साथ रहतेरहते आप संध्या से आगे, सूर्य से भी आगे जा सकेंगे।
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हम कहते हैं कि सूर्य उदय होता है और अस्त भी, मगर जानते हैं कि ऐसा नहीं होता है। पृथ्वी की परिक्रमा ही उदय और अस्त की मरीचिका का कारण है। हमारे शब्दों का प्रयोग उपयुक्त नहीं है । उसी तरह, वास्तविकता में हम नहीं कह सकते कि 'मैं' लुप्त हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि वह लुप्त हो गया है, मगर उसने दूसरा कोई आकार, दूसरा रंग, दूसरी आभा ग्रहण कर ली है। इधर तो कोई किसी के विरह में आँसू बहा रहा है, उधर वह किसी और का मन बहला रहा है। किसी गृह में खुशी खिलखिला रही है और कोई इस एहसास से झूम रही है, 'अहा ! मैं गर्भवती हूँ।'
क्या बीत चुका है? किसका आगमन हुआ है? सिर्फ़ आवरण, बाहरी रूप, मकान। यह 'मैं' नहीं। यह 'मैं' अनादि काल से सतत चलायमान है, अपने पर्यायों के विकास में स्वयं के सत्य की गहरी अनुभूति करता हुआ । संपूर्ण जगत् मुक्ति तक पहुँचने का माध्यम है।.
जब कोई आपकी दृष्टि से चला जाता है, तब उस रिश्ते को, उस बीते हुए संप्रेषण को याद कीजिए। अपनी सूझबूझ से स्वीकार करना एक बात है, उदासी और मायूसी से जीना अलग बात है। किसी बात को शांति और गहरी सोच के साथ स्वीकार करना और आँसू बहाकर, शोक मनाकर जीवन में रुचि खो देना एक ही बात नहीं हैं। आश्रित होने की वजह से लोग आँसू बहा-बहाकर तल में डूब जाते हैं। पहले एक लकड़ी का सहारा था, अब वह सहारा जा चुका हैं। लोग उस लकड़ी का शोक मना रहे हैं, व्यक्ति का नहीं। अब वे किसके सहारे जिएँगे?
अपनी सोच को बदलना इतना आसान नहीं हैं। हम कल्पनाओं, विश्वासों और प्रतिबंधों की दुनियां में जीते हैं। ये वे दीवारें और आवरण हैं जो हमें स्वयं के और दूसरों के असली 'मैं' को जानने और अनुभव करने से रोकती हैं।
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