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अनित्य के भीतर है नित्य
आप तुरंत देख सकेंगे कि वे कितने खोखले और अनावश्यक हैं। उनको हटाइए और अपने स्व को पहचानिए ।
इस तरह दीक्षार्थियों को समझाया जाता है कि वे बाहरी वस्तुओं से भ्रमित हैं। उन्हें कुछ विशिष्ट प्रतीकों पर ध्यान करने को कहा जाता है । जैसे, सूर्यास्त के समय गुरु और शिष्य बाहर जाकर आसन पर ध्यान में लीन हो जाते हैं। वर्षा के मौसम में कितने रंगों के बादल छा जाते हैं। कभी-कभी इंद्रधनुष नज़र आता है। शायद गुरु शिष्य से कहेंगे, 'इस नैसर्गिक सौंदर्य को देखो। इन रंगों की अनुभूति करो। हर बादल में एक आकार को ढूँढ़ो । प्रकृति के साथ आत्मसात रहो । बाक़ी सब कुछ भूल जाओ। अब अपनी पलकें बंद करो।'
शिष्य सूर्यास्त के बादल के रंगों और आकारों से परिचित हो जाता है। वह अपनी आँखें मूँदकर उस चित्र को अपने मन की आँखों में समा लेता है। बार-बार अपनी आँखें खोलकर प्रकृति के बदलते हुए दृश्यों को देखता है और फिर से आँखें बंद करके ध्यानमग्न हो जाता है।
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दो घंटों में अँधेरा छा जाता है। गुरु प्रश्न करते हैं, 'वत्स, क्या नज़र आ रहा है?'
शिष्य कहता है, 'मुझे कुछ नज़र नहीं आ रहा है। सब कुछ चला गया।' अब गुरु पूछते हैं, 'कहाँ चले गए वे आकार, रंग, बादल, वह सौंदर्य - कहाँ लुप्त हो गए?"
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शिष्य चुप्पी में खो जाता है, वह विचारमग्न हो जाता है। उत्तर का आभास भी है। वह इंद्रधनुष, वह सौंदर्य लुप्त हो गया है, और फिर भी, गया नहीं है। यही ध्यान का बिंदु है - सभी कुछ इस जगत् में ही विद्यमान है।
गुरु शिष्य से कहते हैं, 'कुछ भी लुप्त नहीं हुआ है। सब कुछ यहीं है। मगर पृथ्वी की परिक्रमा के कारण तुम बदलाव को देखते हो। तुम्हारी भौतिक दृष्टि को ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ चला गया है। '
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'अब अपनी अंतर्दृष्टि का प्रयोग करो। देखो, संपूर्ण ब्रह्मांड एक अटूट लय में घूम रहा है। वही सूर्य जिसे हम यहाँ से लुप्त मानते हैं, पृथ्वी
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