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श्रावकोके उसउपद्रवकों दूरकरा तब दुःखित भएथके महेश्वरी लोक बोले कि हे स्वामिन् हमारे ऊपर कृपाकरके हमारे कुटंबका उपद्रव दूर करो तब गुरुमहाराजनें उनोंका वचन ग्रहण करके उन लोकोका उपद्रव दूर करा, तब महेसरी गोत्रका श्रावक भया, तथा कितनेक शिवमतवाले श्रावक नहिं भए तब तिनमेंसें जिसके चार पुत्रथा उसका एक पुत्र ग्रहणकरा, जिसके तीनपुत्रीथी तिससे एक पुत्रीग्रहण करी, ऐसें पांचसे (५००) शिष्यहुए, सातसें (७००) साधवीहुइ, इसीतरे श्रीजिनदत्तमूरिजीमहाराज बहोत नगरोंके विषे विहारकरते रजपूत ब्राह्मणादिकको प्रतिबोधके नाहट्टा, राखेचा, भणसाली, नवलक्खा, डागा, बाफणा, इत्यादि गोत्र १४४४ अलंकृत एकलाखतीस हजार घरकुटंबप्रतिबोधके श्रावक करा, तथा एक जीर्णप्रायप्रतिमें, एवं लिखितं यथा-तेहनेपाटे ( अर्थात् श्रीजिनवल्लभमरिजीनेपाटे ) श्रीजिनदत्तसूरिजी हुंबड ज्ञाति चीतोड श्रीसंघे थाप्या, सारंगपुरनें विषे कुंवरपाल उपाध्यायकों तिहां श्रीसंघने आग्रहे निर्जराव्यो, दिन तीन अणसण पाली देव थयो, प्रत्यक्ष हूवो अने कहे थाने सांनिधकरीस, ओर तीनमहूर्त जोयाछे, १ मुहूर्त सूरिमंत्र लिधां छठे मासमृत्यु, २ गछफाट, ३ श्रेष्ठछे, महारोस्वरूप किणहिरे आगे कहेना नहिं, श्रीसंघआव्यो पहिलोमुहूर्त्तकाउसग्गवेलाव्यतीतकीधो २ मुहू काउसग्ग करिवालागा, साधुश्रावके निषेध्या, २ मूहूर्त थाप्या संवत् ११६९ चीतोडश्रीसंघे, श्रीजिनदत्तमुरिएहवो नामदीधो, श्रीजिनदत्तसरिजीये, एक साधु श्रीजिनवल्लभसूरिजीये, गच्छवाहिर
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