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वोधपायके, श्रीनेमिनाथस्वामी राजीमतिके समान सर्वऋद्धि आदिकका त्यागकरके, आबालशुद्ध ब्रह्मचर्यपणेमेंहि संवत् १४६३ में श्रीजिनवर्द्धनसरिजीके हाथसें, आषाढवदि (११) इग्यारसको दीक्षा ग्रहण करी उत्कृष्ट ज्ञान गर्भित त्याग वैराग्य करके, उत्कृष्ट भावसें संजमतपादिकसे कर्मोकी निरजरा करते ऐसे एकादश (११) अंगादिकके ज्ञाता भए, तिसवखते श्रीजिनराजसूरिजीके पट्ट उपर दोय आचार्य कारणपर भये, यह वृत्तान्त श्रीजिनभद्रसूरिजीके संबंधसें जाणना, संवत् १४७० गणिपूर्वक वाचकपदप्राप्त भए, संवत् १४८० में उपाध्याय पद प्राप्त भए, उससमय आप श्रीनगर महेवामे विराजमानाथे, तव श्रीजिनवर्द्धनसूरिजी, तथा श्रीजिनभद्रसूरिजी इण दोनुं पूज्योंका पत्र आया कि उसमे श्रीजिनवर्द्धनसरिजीने लिखा तुम हमारे पास मालवे चित्रकूट, पिप्पलीये आवो ओर श्रीजिनभद्रसूरिजीने लिखा मारवाड जेशलमेर आवो, इसतरे दोनुं पत्रोंका मतलब जाणके, आपश्रीके मनमें विचार उत्पन्न भया, जिससे अपने कुलगोत्रके संसारीयोंको बुलायके पूछा ओर श्रीसंघसेविपूछा, कि इससमय श्रीखरतरगच्छमें दोय आचार्य हवेहैं, दोनुं पूज्यों में अपणे पास बुलाणेके लिये पत्र भेजाहै, वहपत्र हमकों एकहि वखतमें मिलें हैं, इसलिये हमकों पहिले किसतरफजाना ठीक है, तब आपश्रीको श्रीसंघने तथा महाराजके संसारिक पक्षवालोंने कहा, आप बहुश्रुत गीतार्थहैं, इसलिये आपहि विचारके, देखों कि उदय किसतरफ है, आपश्रीने उपयोग देके, विचारके कहा, उदयतो नवीन आचार्य श्रीजिनभद्रसरिजीका है, इनकी सेवामें रहेगा सो
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