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ग्रहण होवे ऐसी प्ररूपणा १७ दुविहार एकाशणो होवे नहिं १८ दुविहारका पचक्खाण करके कच्चे जल सिवाय अनेकखादिमद्रव्योंका रात्रिमें विनाकारण ग्रहणकरणा १९ केवलीके शरीरसें जीवहिंसा होवे नहिं २० आंबिलका पञ्चक्खाणकरके छासादिकका ग्रहण करणा २१ निवीका पच्चक्खाण करके उत्कृष्ट निवीआयतों का ग्रहणकरणा २२ दुर्लभराजसभासमक्ष १०८० आसरेमें अणहिपाटणमें श्रीजिनेश्वरसूरिजीको खरतर बिरुद नहिं मिला २३, १२०४ मे खरतर हूवे २४ इत्यादि आगमाचरणाश्रित अनेक प्रकारका विसंवाद उत्सूत्रप्ररूपणा भया है कहांतक लिखें, इस वि पयका उत्थान उत्सूत्र बोलादिककी सूचना संख्या प्रथमहि करी है असली तपगच्छकी संप्रदायतो प्राये नष्टप्रायहि देखी जावे है, यानें अल्पसंभवें और खरतरविरुदधारक संप्रदायका तथा तपाविरुदधारक संप्रदायका आपसमें शास्त्रोंकी एकसम्मति परम हा हिं देखाजावे है इसीतरे शेष रहे मूल संप्रदायतो इसीतरे संभवे है जे सैकि एक सामायिक विषय दृष्टान्त है श्राद्ध दिनकृत्य वृत्ति १८००० में श्रीमदेवेन्द्रसूरिजी योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति १२००० में श्रीमद्हेमचन्द्रसूरिजी नवपद प्रकरण वृत्ति में श्रीमद्देवगुप्तमूरिजी नवांगवृत्तिकर्त्ता श्री अभयदेवसूरिजी पंचाशक वृत्तिमे, धर्मविधिप्रकरण वृत्ति में श्रीमद्यशोदेवसूरिजी वगेरा भिन्न भिन्न गच्छोद्भवाचार्य महाराजसामायिक उच्चयांके बादमे इरियावही करणाक है है, इसीतरे मूलसिद्धान्त भी है, इसलिये सबही की एकसम्मत्ति देखीजावे है एक गुरु एकसमाचारी एकशट्टस सिद्धान्तमन्तव्यता एक संवत्सरी
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