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प्रायें हठग्राही ऐसे होते हैं, कि जिसका पक्ष करतें हैं, जो वात पकडलेते हैं, सो मुसकिसलसें छोडतें हैं, एसा जैनतत्वादर्शमें, पीताम्बरी मुनी आत्मारामजी लिखते हैं, ये ढुंढकमतकी उत्पत्ति कही, इसीतरे संवत् १८१५, बादमें दुंढकोंमेसें रुगनाथजीका शिष्य भीषमजी प्रमुख टुंढियोने मिलके जोधपुरमें तेरेपंथी मत निकाला, सो इनको उत्थापके आपका फिरका जमाने लगे, इसमेसें फेर १४ पंथी निकला, इत्यादि मनोमती मंदिरका प्रतिमाका तथा शास्त्रक उत्थापक मत हवा, ॥६५॥ * ॥ तत्प? ६६ मा श्रीजिनसुक्ख सूरिजी भए, तिके फोगपत्तननिवासी साहलेचा वोहरा गोत्रीय, साहरूपसीपिता, सुरूपामाता संवत् १७३९, मिगसरसुदि १५ पूर्णमासीके दिन जन्म, संवत् १७५१ माघ सुदि ५ पंचमीके दिन पुण्यपालसर गाममें दीक्षा, सुखकीर्त्तिदीक्षा नाम, संवत् १७६३ आषाढ सुदि ११ एकादशीके दिन सूरतवंदरमें रहवासी चोपडा गोत्रीय, पारख सामीदासनें इग्यारे ११००० हजार रुपिया खरच करके आचार्यपदमहोच्छव करा, फेर एकदा गोगावन्दरके विषे, नवखंडापार्श्वनाथ स्वामीकी यात्राको करके, श्रीगुरुमहाराजसंघके साथ स्तंभनकतीर्थ जानेके वास्ते जिहाज ऊपर चढे, तब मार्ग में समुद्रके मध्यभागमें जिहाजके नीचेका पाटिया टूट गया, तिहां जलसें जिहाज भरा हवा देखके, गुरुमहाराजनें इष्टदेवका सरण किया, तब दादाजी श्रीजिनकुशलमूरिजी महाराजके सहाय करके, अकस्मात नवीन जिहाज प्रगट होनेसें समुद्रकापार पहुंचे, बाद जिहाज अदृश्य होगया, फेर स्तंभनापार्श्वनाथ
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