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षाढ शुदि १० को दीक्षित होते भये, और श्रीगुरुमहाराजके पारतंत्र्यमे रहकर विनय विवेक परिश्रमादिक योग्यतासें क्रमसें सर्व सिद्धान्त पारंगामी भये, तब गुर्वादिकके परोक्ष होनेपर सर्वकी आज्ञा लेकर त्याग वृत्ति धारण करते भये, क्रिया उद्धार किया और निर्मल चारित्र पालते भये, क्रमसें विचरते हुवे ममाई गए, चोमासा किया, तब चतुर्विधसंघके आग्रहसे श्रीजिनचारित्रमरिजी आचार्य सूरिमंत्रदेके मूरिपदमें स्थापे, तब श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिः, ऐसा नाम भया, अपरनाम श्रीजिनकीर्तिमूरिः ऐसाभि है, और इनोंका चरित्रलेश श्रीजिनदत्तसरिजीके चरित्रकी प्रस्तावनामें दीया है सो वहांसें जाणलेना, इसतरे सानाय शुद्ध प्ररूपक निर्मल संयमी शासनप्रभावक जं । यु । प्र। भ । श्रीमजिनकृपाचन्द्रसरिजी सोम्यगुणधारी वर्तमान कालमें विद्यमानपणे सुहस्तिपणे संयमतपसें आत्मा भावन करते हुवे विचरतें हैं सो चतुर्विध श्रीसंघ इन आचार्य महाराजकी आज्ञामें प्रवर्ति करता हूवा सदा जयवन्ता वत्तों, सदा कल्याण पावो, श्रीजिनचंदररिजीके पट्टपर ७४ मा श्रीजिनकीर्तिसरि भये एतेषां वर्णनवृत्तो यथा रसशरनिधिचन्द्रे विक्रमाब्दे सुमासे। असितशशिसुघने कार्तिके पंचमीशे ॥ सुगुणमुनिपवर्यः शर्मकृन्नित्यचर्यः। जयतु जिनसनाथः कीर्तिसूरीश्वरः सः॥१५॥
वै जोधपुरनिवासी भणसालिमुहता पन्नालाल पिता नाजुदे माता सं. १९३१ जन्म केसरिचंद मूलनाम दीक्षा सं. १९५६
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