Book Title: Jinduttasuri Charitram Uttararddha
Author(s): Jinduttsuri Gyanbhandar
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५८५
री । भट्ट हरायो चरचा करके, भट्टारकपद धारी ॥ सु० ॥१॥ अम्मावसकी पूनम कीनी, चंद उगायो भारी । चढके गगन करी है चरचा, सूरजसे तपधारी ॥ सु० ॥२॥ चौदासे उगणीस शालमें, लखनेउ नगरमझारी । गोरा फिरंगी टोपीवाला, दिलमें यह बात विचारी ॥ सु० ॥३॥ जैनसितांबरदेव जो सचा, पूरे मनसा हमारी । वाणी निकसी राज्य तुह्मारा, होकेगा अधिकारी ॥ सु० ॥४॥ अंधेकी खोली आंख सूरतमें, पूजे सब नरनारी । कहां लगे गुण बरगूं मै तेरा, तूं ईश्वर जयकारी ॥ स० ॥५॥ उगणीसे संवत्सर तेपन, मगसर मासमझारी । शुकल दूज जिनचंदसूरीश्वर, खरतरगच्छ आचारी ॥सु०॥६॥ कुशलसूरिके निजसंतानी, क्षेमकीर्ति मनुहारी । प्रतिबोध्या जिन क्षत्री पांचसें, जानसहित अणगारी ॥ सु० ॥ ७॥ क्षेमधाडशाखा जब प्रगटी, जगमें आनंदकारी । धर्मशील साधूगुणपूरे, कुशलनिधान उदारी ॥ सु० ॥ ८॥ या पूजन करतां सुख आनंद, अन धन लखमी सारी । कहत रामऋद्धिसार गुरूकी, जय २ शब्द उचारी ॥ सु० ॥९॥ इति श्रीसमस्तदादागुरुपूजा संपूर्णा ॥
॥अथ आरती लिख्यते ॥ जय जय गुरू देवा, आरति मंगल मेवा, आनंद सुख लेवा ॥ ज० ॥ आंकणी । इक ब्रत दुय व्रत तीन चार व्रत, पंच व्रतमें सोहे ॥ गु० ॥ जगतजीव निसतारण कारण, सुर नर मन मोहे ॥ ज०॥१॥ दुःख द्रोह सब हरकर सद्गुरू, राजन प्रतिबोधे । सुत
For Private And Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240