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दादासाहिब जं० यु० प्र० श्रीजिनदत्तसूरिचरितउत्तरार्द्धम् ।
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प्राचीन पुस्तकोद्धारक फंड ग्रंथांक ३१
॥ अर्हम् ॥
AA
श्रीजिनदत्तसूरिचरितम्।
उत्तरार्द्धम् ।
नाचार्यभट्टारक यं० यु० प्र० श्रीजिनकृपाचंद्रसूरीश्वर सदुपदेशात् उ० श्रीजयसागर गणिना संदृब्धम् सुरतनिवासी जवेरी श्रेष्टी श्री कल्याणचंद गेलाभाइआदिकृत द्रव्यसहायेन श्रीजिनदत्तसूरि ज्ञानभांडागारेण
प्रकाशितम्
मुम्बापुर्या निर्णयसागरमुद्रालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम् ।
वि० सं० १९८४, सन १९२८.
प्रथमावृतिः]
मूल्यं १ रूप्यकम्।
[प्रति ५००
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Achan
Pablished by Shet Chaganmalji Jaitaranwala,
Hyderabad Deocan,
Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya-Sagar Press,
26-28, Kolbhat Lane, Bombay.
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Achar
श्रीजिनदत्तसूरिचरित उत्तरार्ध
विषयानुक्रमणिका.
पृष्ठांक.
३८९ ३९० ३९२
३९४
३९६ ३९८
ग्रंथांक. विषयानुक्रम. १ षष्ठसर्ग मंगलाचरणं २ कोटिकगणपट्टावलि संक्षिप्त चरित् ३ तदंतरगत ६४ योगिनी नाम ५२ वीर ८ भैरव नाम । ४ योगनीयोने ७ वरदानदीया ७ बोल करणा ५ युगप्रधान पदपाया ६ श्रीजिनदत्त सूरिपद स्थापना ७ सातवर ८ युगप्रधान अधिकार गच्छमतादि अधिकार... ९ खरतर विरुद अधिकार ... १० श्रीजिनेश्वर सूरि आदि पट्टाधि० ११ राजगच्छाधिकार १२ गोत्राधिकार ... १३ साढी वारेज्ञातिनाम १४ ओसवालश्रीमाल गोत्र १५ युगप्रधानढालां युगप्रधानतप ... १६ युगप्रधान संख्या उदय प्रमाण १७ जिनवल्लभसूरि समाचारि प्राकृत
४०७ ४०७ ४०८ ४१० ४१४
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ग्रंथांक.
विषयानुक्रम.
१८ जिनदत्तसूरि समाचारि प्राकृत १९ जिनपतिसूरि समाचारि प्राकृत
२० व्यवस्थापत्रम् संस्कृत
२१ तरुणस्त्री मूलना० पूजा निषेध २२ स्त्रीआश्रित पूजावि० प्रश्नोत्तर २३ ऋतुवंतिसज्झाय
...
...
२९ खरतर शाखा ११ का नाम ३० जैन जाति प्रतिबोधका वि० ३१ जिनदत्तसूरि स्तवन ३२ गुणसमूह वर्णन ३३ षष्ठसर्ग समाप्तः
0000
...
...
...
...
...
२४ उत्तराध्ययनका २६ मा समाचारी अध्ययन २५ गच्छाचारपयन्नो मूल
२६ सुविहित गच्छ प० आ० प०... २७ पट्टावलिपद्यसंस्कृत...
२८ भाषामे अर्थ
...
***
...
३४ श्रीजिनदत्तसूरिस्वर्ग जिनचन्द्रसूरि चरित्र
३५ श्रीजिनपतिसूरि चरित्र ३६ श्रीजिनेश्वरसूरि च० मतान्तरोत्पत्ति ३७ श्रीजिनप्रबोधसूरि च० ३८ श्रीजिनचंद्रसूरि च०
...
G..
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...
::
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...
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...
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...
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86.
...
***
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...
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...
...
***
पृष्ठांक.
४२५
४२८
४३१
४३३
४४१
४४७
४५५
४५९
४६९
४७०
४७२
४७८
४७९
४८०
४८१
४८४
४८९
४९१
४९३
""
४९४
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Achar
पृष्ठांक. ४९५
५०२
५०४ ५०८ ५०९
५१०
ग्रंथांक. विषयानुक्रम. ३९ श्रीजिनकुशलसूरिणां चरित्रम् ४० अष्टप्रकारि पूजाज्ञानसारजीकृत ४१ लघु अष्टप्रकारि पूजा ४२ श्रीजिनपद्मसूरि च० ४३ जिनलब्धिसूरि जिनचंद्रसूरि च० ४४ श्रीजिनोदयसूरिच० ४५ श्रीजिनराजसूरि च० ४६ श्रीजिनभद्रसूरि च० ४७ श्रीजिनकीर्तिरत्नसूरि च० ... ४८ श्रीजिनचंद्रसूरि च० ४९ लौंकालेखकने लौंकामतनिकाला ५० श्रीजिनसमुद्रसूरि च० ५१ श्रीजिनहंससूरि च० ५२ कडुवालौंकावीजामत पार्श्वचंद्र मतउ० ५३ श्रीजिनमाणिक्यसूरि च० ... ५४ श्रीजिनचंद्रसूरि च० ... ५५ उ० धर्मसागर अधिकार तपोटमतउत्पत्ति ५६ श्रीजिनसिंहसूरिः श्रीजिनराजसूरिः ५७ श्रीजिनरत्नसूरि श्रीजिनचन्द्रसूरि च० ५८ ढुंढियामतकी उत्पत्ति ५९ श्रीजिनसुखसूरि च०
५१२ ५१६
५२१ ५२२ ५२३ ५२५ ५२७
५४४
५४६
५४७ ५४८
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पृष्ठांक. ... ५४९
... ...
ग्रंथांक. विषयानुक्रम, ६० श्रीजिनभक्तिसूरि च० ६१ श्रीजिनलाभसूरि च० ६२ श्रीजिनचन्द्रसूरि च० ६३ श्रीजिनहर्षसूरि च० ६४ श्रीजिनसौभाग्यसूरि च० ६५ श्रीजिनहंससूरि च० ६६ श्रीजिनचंद्रसूरि च० ६७ श्रीजिनकीर्तिसूरि च० ६८ श्रीजिनचारित्रसूरि च० ६९ मंगलाष्टक प्रथम ७० मंगलाष्टक द्वितीय ७१ अरिहाणादिस्तोत्र ७२ श्रीदादासाहिबकी पूजा ७३ श्रीदादासाहिबकी आरति ७४ धर्मस्वरूप कालचक्र ७५ कालस्वरूप कालचक्र ७६ छ आरास्वरूप ग्रंथसमाप्त
30 S 8 5 5 5 5 w 3333333333535
w w w w 9 v
५८८ ५८९
.
.
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पंक्ति
३९३|१४|
४०४।२।
पृ०
श्रीजिनदत्तसूरिचरित्र अशुद्धि शुद्धिपत्रम्.
४०५/१९|
४२४।१।
४४७/१५।
४४९।२२।
४७१।१२।
४९६।५।
४९६।६।
४९७१९१
४९९।१४।
५०८/२२१
५१०।१४।
५१५/५/
५१६।१।
५३०/२/
५४७/१२/
,, ।१७१
५४८|२|
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५५४|१८|
५६१।११।
अशुद्धि
श्री पूज्यनां
भाक
३३
विहिण
सामाय करे
रोगायं
तत्पदां
०
दु
आकरावाली
वर्णननका
नतिकरः
पाटण नगमें
श्री०
वार्थ
उहां पांचपर
तत्सप्रदायका
शास्त्रधार
मुस किसल सुरिजीनेने
बजि गोत्रीय
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शुद्धि
श्रीपूज्यानां
भावक
३६
विहिणा
सामायिक करे
रोगायंका
तत्पादां
वदनेको गये
दी
आकारवाला
वर्णनका
न्नतिकराः
पाटण नगर में
श्री
टवार्थ
उहां पांचपीर
तत्संप्रदायका
शास्त्राधार
मुसकिल सैं
सूरजीने छाजेडगोत्रीय
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प्रस्तावना.
. अहो देवानुप्रियो, अहो सर्वे सद्गृहस्थो, विचारणा चाहिये, कि वर्तमान कालमें इंग्रेजसरकारकी शोभनीक राज्यनीतीसें, और छापेके प्रचारसें, बहुतसें, मतवाले अनेक प्रकारसें, उलटे तथा सुलटे विकल्प करनेवाले विद्यापात्र होते जाते हैं, और अपनी अपनी युक्ति मुजब बुद्धि के फेलावसे, देशका तथा अपनें कुलधर्मका फेर विशेष बुद्धिके दिखलानेकों सर्व मतका इतिहासकिये, और करते हैं, सर्व इसकूलोंमें हिन्दी गुजराति मराटी इंग्रेजी सीखनेवाले, विद्यार्थियोंकों इतिहास अवश्य सिखाते हैं, परन्तु कितनेक ऐसे पंडित हुवे, सो अन्यमतका किंचिस्वरूप जाणके अपनी कुयुक्तियोंसें अन्यमतका खंडन वा अन्यमतका इतिहास प्रगट किये हैं और करते हैं, परन्तु कोई धर्मका असली तत्वसमझेविगर खंडनमंडन करना सो कैसा है कि निरपेक्षविद्वज्जनोंके सन्मुख अपनी मूर्खताका चिन्ह प्रगट करना है, कितनेक इतिहास पुस्तकोंमें जैनधर्मकी उत्पत्ति विषय अनेक अपना अपना झूठा विकल्प करके, जैनोकों स्थापित करतें हैं, (याने जैन धर्मका स्वरूप उत्पत्ति मन्तव्य भेद शाखादिक यथेच्छपणे निरंकुश होके निरूपण कीया है,
और करते हैं, १ कोई लिखता है कि बौद्धमत एक जैनधर्मकी शाखा है, २ कोई लिखता है जैनधर्म बौद्धमतकी एक शाखा है, ३ कोई कालमें यह दोनुं मत एक थे, ४ कोई लिखता है कि जैनमत मछंदरनाथके पुत्रोंका चलाया हुवा है, ५ कोई लिखता है कि क्या जानते नहिं हो, विष्णु भगवान् दैत्योंके धर्म भ्रष्ट करनेको अर्हतका अवतार
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बात अली, यह जनमत
इत्यादि
लियाथा जबसें जैनमत चला है, ६ कोई कहेता है कि हमारे गौतम ऋषिनें नाराज होकर यह जैनमत चलाया है, ७ कोई लिखता है कि और सब बात झूठी, यह जैनधर्म संवत् ६०० के लगभग चला है, इत्यादि अनेक विकल्प जैनधर्म विषई किये हुवे हैं, और करते जातें हैं, औरपिण जैनदेवविषयि जैनगुरुविषयि जैनआचारविषयि, अनेकविकल्प करतें है, केई कहते हैं कि जैनधर्मवाले ईश्वर नहिं मानते हैं, १ केई कहते हैं कि जैनधर्मवाले ईश्वर मानतें हैं पण भगवानकी नग्न मूर्ति रखतें हैं, इसलिये मंदिरमें जाना. दर्शन करना न चाहिये, २ केई कहतें हैं जैनलोक कुलाचारसें भ्रष्ट हैं, और कुलाचार करानेंवाले जैनीब्राह्मण कुलगुरुभी नहिं हैं, और जो आचार करते हैं, सो अन्यमतकी अपेक्षा करते हैं, और आचारशास्त्रभी जैनोंके नहिं हैं इसलिये नहिं करतें हैं, मलीन अपवित्र वस्त्रवाले दानदयाके उत्थापक गुरु होतें हैं, इत्यादि अनेक झूठे विकल्प किये हुवे पुस्तकोंमें देखके वा कोईके पास सुनके उन लोकोकों जो जैनतत्व जाननेवाले जैनतत्ववेत्ता विद्वज्जन लोक तो अवस्यहि झूठे समजते हैं, और हास्य करते हैं, क्योंकि मोहमदिराके नसेमें व्याप्त हुवे, जो वचन नहिं कहेने लायक हैं, सो कहे देते हैं, इससे देखा जाता है कि जितने पुराण हैं, उन सबमें एकेकसे विरुद्ध वाक्य हैं, जूदेजूदे ईश्वर मानणेंसें, तथा जूदेजूदे प्रकारसें जगत्सृष्टीकी रचना मानणेंसें एकेककी अपेक्षा एकेक झूठे होनेसें, जैनधर्मकी अपेक्षा सर्व झूठे होते हैं, क्योंकि जैनधर्म तो अनेकांतिक है, और अनादि है, और जीवस्वरूप जगत्कास्वरूप अनादि मानतें हैं, और संसारी सका जीव अनन्त है, कर्मरहित मुक्तभी अनन्त है, और भव्याश्रित संसारी सकर्माजीवोंके साथ कर्मका संबन्ध
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पर्यन्त १६ संस्कारलाक मानते हैं, क्युकि
अनादि सान्त है, और अभव्याश्रित संसारी सकर्माजीवोंके साथ कर्मका संबन्ध अनादि अनन्त है, और जीवकर्मका संबन्ध अनादि है स्वर्णमृत्तिकाका दृष्टान्त मानते हैं और रागद्वेषादिक अठारे दूषणोंकरके रहित, सर्व देवगणके पूजनीक, सर्व जीवोंके ऊपर दया भाव धारण करनेवाले, परमपुरुष परमात्म गुण पायके जो सिद्धिस्थानकमें निश्चल रहे हैं, कभी संसारमें जिसका आवागमन नहिं रहा है, ऐसा ईश्वरको जैनधर्मवाले ईश्वर मानते हैं, परंतु जगतका रचनेवाला, तथा संहार करनेवाला, रागद्वेषादिकसे अनेक कुकर्म करनेवाला होय, ऐसे ईश्वरकों जैनीलोक ईश्वर तुल्य न मानते हैं, और गृहस्थ धर्मका जन्मसें मरणपर्यन्त १६ संस्कार रूप गृहस्थधर्मका संपूर्ण आचार तथा साधुधर्मका संपूर्ण आचार जैनलोक मानते हैं, क्युकि जैनधर्ममें मोक्षप्राप्ति ज्ञानक्रिया दोनुंसें होती है, और कोई क्रियाको उत्थापके केवल ज्ञानकोंहि मानतें हैं, कोई ज्ञानकों उत्थापके केवल क्रियाकोहि मानते हैं, ऐसे जो एकान्तिक हैं, उन सबकों जैनीलोक मिथ्यात्वी कहेतें हैं, इत्यादिसंपूर्ण जैनधर्मका स्वरूप तथा ईश्वरका स्वरूप तथा जैनकुलाचारका स्वरूप तो बडेबडे जैन सिद्धान्तोंमें हेतु युक्ति प्रमाण दृष्टान्तोंके विस्तारसें लिखे हुवे हैं, जिसमें बहुत तो जैनाचार जैनजोतिष जैननीतिके ग्रन्थ, कितनेक वर्षांसें अन्यमति म्लेच्छादिक केई राजावोंके अनीतिके सबबसें विच्छेद तुल्य होगए हैं, तथापि आवश्यकसूत्र, आचारदिनकरादि अनेक आचारग्रन्थ प्रसिद्ध है, जिसमें जो विद्वज्जन पुरुष हैं, सो तो संपूर्ण जैन आचारकों जान सक्ते हैं, परन्तु व्याकरणादि बोधरहित सामान्य वर्गवाले सर्व बालजीवोंको उस ग्रन्थोंसें अपना संपूर्ण आचारका जाणपणा नहिं हो सक्ता है, और जैनऐतिहासिक आवश्यकपीठिका महापुरुषचरित्र त्रिषष्टिशलाका
केवल ज्ञानकोहि
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पुरुषचरित्र परिशिष्टपर्वादिक अनेक ग्रन्थ हैं परन्तु संस्कृतादिक शास्त्रीय भाषा में हैं, समूलवर्त्तमान गुरु अर्थात् आचार्यपर्यन्त एकत्रित लोक भाषा में नहिं है, इसलिये वर्त्तमान सद्गृहस्थादिकों की प्रेरणासें मैंने मेरी अल्पमतिप्रमाणें बहुत प्रयास करके सर्व जैनधर्मानुरागी भव्यप्राणियोंके, अवश्य जाणनें सीखनें करनें लायक जैन ऐतिहासिक युगप्रधान श्रीमज्जिनदत्तसूरिजी चरित्रका दूसरा भाग छपवाके प्रसिद्ध किया है, और सर्व जैनाचारभी यथार्थपणें लोकभाषामें ऐतिहासिक युगप्रधान श्रीमज्जिनदत्तसूरिचरित्रके तीसरे भाग में यदि पाठकगणकी अभिलाषा होगा तो प्रगट करेंगें, यद्यपि इस ऐतिहासिक चरित्रमें श्रीसंघकी तर - फसें हरेक तरह की प्रथम विशेष मदत वा सामग्री मिले विगरहि गुवाज्ञ प्रमाणकर सुरु किया है, इसलिये संभावना है कि कितनेक ठिकाणें सुधारावधाराकी आवश्यकता रह गई है, तथापि सर्व जैन शुद्ध धर्मानुरागियों के अवश्य उपयोगी पुस्तक है, और ऐसा ऐतिहासिक चरित्र नहिं हैं और न देखा गया है, और बहुत परिश्रम के साथ परउपकारार्थ अनेक ग्रन्थोंसें खंडशः खंडशः कृत्वा उद्धृत्य, उद्धार करके यह ऐतिहासिक चरित्र लिखा है, इसलिये मेरेंकों आशा है, कि गुणग्राही धर्मप्रभावक पुरुष एकदफे आद्योपान्त अवश्य इस चरित्र पुस्तककों लेकर अपने पास रखेंगें और ज्ञानवृद्धि खाते पांचपचवीस पुस्तक लेकर और सर्व ठिकाणें अपना धर्म इतिहासरूप चरित्रकों देकर प्रवर्त्तन करके मेरा परिश्रम सफल करेगें, इत्यलं विस्तरेण, नमोस्तु वर्धमानाय गुरुदीपक गुरुदेवता, गुरुविनघोर अंधार, जे गुरुवाणी वेगला, रडबडी या संसार, समाप्ता इयं प्रस्तावना श्रीगुरुप्रसादात् ॥
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__ श्रीजिनदत्तसूरिचरित सूची संख्या. विषयानुक्रम .१ मंगलाचरणम् ... २ भूमिका ... ३ तिर्यक्लोकप्रमाणम् ४ मनुष्यलोकस्वरूपम् ५ कालस्वरूपम् ... ६ बावनबोलगर्भितश्रीऋषभदेवस्वामीका अधिकार ७ सो पुत्रोंका नाम ८ राज्याभिषेकम् ९ विनीतानगरीस्वरूपम् १० पुरुषोंकी बहुत्तरकलानामानि ११ स्त्रीयोंकी चोसठकलानामानि
२०-२१ १२ अठारेलिपीनामानि ...
... २१ १३ सर्वकलाकास्वरूप १४ विद्याधरोंकीउत्पत्तिः प्रथमविद्याधरनमिविनमिस्वरूपम् २३-२५ १५ समवसरणरचनाकास्वरूपम् १६ सांख्यमतस्वरूपम् १७ जैनब्राह्मणोंकी उत्पत्तिः, मिथ्यात्वी भवनस्वरूपं च १८ चारवेदोंकी उत्पत्तिः आर्यअनार्यभवनस्वरूपं च ... १९ यज्ञोपरि याज्ञवल्क्य सुलसा पिप्पलादका दृष्टान्त ... २० कैलासअष्टापद महादेवकानिर्वाणादि अधिकार ...
२७
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पृष्ठांक.
संख्या. विषयानुक्रम. २१ श्रीअजितनाथस्वामीका पचावनबोलगर्भित अधिकार २२ सगरचक्रवर्तिका अधिकार २३ जान्हवी गंगोत्पत्तिस्वरूप २४ श्रीसंभवनाथस्वामीका पचावनबोलगर्भित अधिकार २५ श्रीअभिनन्दनअधिकार २६ श्रीसुमतिनाथअधिकार २७ श्रीपद्मप्रभुअधिकार २८ श्रीसुपार्श्वनाथअधिकार ... २९ श्रीचन्द्राप्रभुअधिकार ... ३० श्रीसुविधनाथस्वामीका पचावनबोलगर्भित अधिकार ३१ श्रीशीतलनाथअधिकार ३२ श्रीश्रेयांसनाथअधिकार ३३ श्रीवासुपूज्यअधिकार ३४ श्रीविमलनाथअधिकार ... ३५ श्रीअनन्तनाथअधिकार ३६ श्रीधर्मनाथस्वामीका अधिकार ३७ श्रीशान्तिनाथअधिकार ३८ श्रीकुंथुनाथअधिकार ३९ श्रीअरनाथअधिकार ४० श्रीमल्लिनाथअधिकार ४१ श्रीमुनिसुव्रतअधिकार
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संख्या. विषयानुक्रम. ४२ श्रीनमिनाथअधिकार ... ४३ श्रीनेमिनाथअधिकार
श्रीपार्श्वनाथजीका अधिकार ४४ श्रीवर्धमानस्वामीका अधिकार ४५ श्रीबारेचक्रवर्तिअधिकार ... ४६ श्रीभरतचक्रवर्तिअधिकार ... ४७ श्रीसगरचक्रवर्तिअधिकार ४८ श्रीमघवाचक्रवर्तिअधिकार ४९ श्रीसनत्कुमारचक्रवर्तिअधिकार ५० श्रीशान्तिनाथचक्रवर्तिअधिकार ५१ श्रीकुंथुनाथचक्रवर्तिअधिकार ५२ श्रीअरनाथचक्रवर्तिअधिकार ५३ श्रीसुभूमचक्रवर्तिअधिकार ... ५४ श्रीपद्मचक्रवर्तिअधिकार ... ५५ श्रीहरिषेणचक्रवर्तिअधिकार ५६ श्रीजयचक्रवर्तिअधिकार ... ५७ श्रीब्रह्मदत्तचक्रवर्तिसंक्षिप्तअधिकार ... ५८ बारेचक्रवर्तिकी समानऋद्धिअधिकार ... ५९ नववासुदेव नवबलदेव संक्षिप्तअधिकार ६. श्रीपृष्ठवासुदेव श्रीअचलबलदेव संक्षिप्तअधिकार ६१ श्रीद्विपृष्ठवासुदेवश्रीविजयबलदेव
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संख्या.
विषयानुक्रम.
.६२ श्रीस्वयंभुवासुदेव श्रीभद्रवलदेव संक्षिप्तअधिकार
६३ पुरुषोत्तमवासुदेव श्रीसुप्रभुबलदेव ६४ श्रीपुरुषसिंहवासुदेव श्री सुदर्शन बलदेव ६५ श्रीपुरुषपुंडरीवासुदेव श्रीआनंदवलदेव ६६ श्रीदत्तवासुदेव श्रीनंदनबलदेव
६७ श्रीलक्ष्मणवासुदेव श्रीरामचन्द्रबलदेव . ६८ श्रीकृष्णवासुदेव श्रीबलभद्रबलदेव
""
६९ इननववासुदेवबलदेव के सामिलनिव प्रतिवासुदेवोंका
७१ श्रीतारकप्रतिवासुदेव ७२ श्रीमेरुकप्रति वासुदेव
८० श्री भीम
८१ श्रीजितशत्रु ८२ श्रीबल
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नाम संक्षिप्तअधिकार
७० श्री अश्वग्रीवप्रतिवासुदेवसंक्षिप्ताधिकार ...
""
""
""
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""
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७३ श्रीमधु प्रतिवासुदेव ७४ श्री निशुंभ प्रतिवासुदेव ७५ श्रीबलिप्रतिवासुदेव ७६ श्रीप्रल्हादप्रतिवासुदेव ७७ श्रीरावणप्रति वासुदेव
७८ श्रीजरासिंधप्रतिवासुदेव
७९ श्रीरुद्रगणदेवनाममात्राधिकारगति विचारश्च
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:
पृष्ठांक.
९४
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१. प्रतिवासुदेवको मारेसोवासुदेवहोवे
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.
.
.
संख्या. विषयानुक्रम.
पृष्ठांक. ८३ श्रीविश्वानर नाममात्राधिकारगतिविचारश्च ८४ श्रीसुप्रतिष्ट ८५ श्रीअचल , ८६ श्रीपुंडरीक , ८७ श्रीअजितधर संक्षिप्तरुद्राधिकार ८८ श्रीअजितबल
... ... " ८९ श्रीपेढाल ९० श्रीसत्यकी रुद्रकी विस्तारपूर्वकउत्पत्ति प्रथमसर्गसमाप्तिः १०५ ९१ श्रीवीरएकादशगणधराधिकार ...
११३ ९२ श्रीपट्टधारी आचार्योंका नाम वा संक्षिप्तस्वरूप ९३ श्रीएकादशगणधरनामप्रतिबोधाधिकार ... ९४ श्रीगौतमस्वामी याने श्रीइन्द्रभूतिगणधराधिकार ... ९५ श्रीअग्निभूतिसंक्षिप्तगणधराधिकार ... ९६ श्रीवायुभूतिसंक्षिप्तगणधराधिकार ... ९७ श्रीव्यक्तस्वामीसंक्षिप्तगणधराधिकार ... ९८ श्रीसुधर्मास्वामीसंक्षिप्तगणधराधिकार ... ९९ श्रीमंडिकखामीसंक्षिप्तगणधराधिकार ... १०० श्रीमौर्यपुत्रसंक्षिप्तगणधराधिकार १०१ श्रीअकंपितसंक्षिप्तगणधराधिकार १०२ श्रीअचलनाता , , ... १०३ श्रीमेताये. " " ...
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१०
संख्या.
विषयानुक्रम.
१०४ श्रीप्रभाससंक्षिप्तगणधराधिकार १०५ श्रीसुधर्मास्वामीसें पट्टधरआचार्योंकी परम्परा चली
जिस्का स्वरूप
...
१०८ श्रीप्रभवस्वामी १०९ श्रीशय्यभवसूरिः ११० श्रीयशोभद्रसूरि : १११ श्रीसंभूति विजयसूरिः ११२ श्रीभद्रबाहुस्वामी ११३ श्रीथूलभद्रस्वामी ११४ श्री आर्यमहागिरिस्वामी ११५ श्री आर्यसुहस्तिसूरिः ११६ श्रीसिद्धसेन दिवाकरसूरिः ११७ श्री सुस्थितसूरिः ११८ श्रीइन्द्र दिनसूरिः
११९ श्री दिन्नसूरिः
१२० श्री सिंहगिरिसूरि :
१२१ श्रीवासूरिः १२२ श्रीवत्रसेनसूरिः १२३ श्रीचन्द्रसूरिः
१२४ श्री समन्तभद्रसूरिः
"3
...
१०६ श्रीपंचम गणधरसुधर्मास्वामी संक्षिप्ताधिकार
१०७ श्री चरम केवली जंबूखामी
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द्वितीयसर्गसमाप्तिः संक्षिप्ताधिकार
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...
...
...
...
...
...
...
पृष्ठांक.
११३
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135
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संख्या. विषयानुक्रम.
पृष्ठांक. १२५ श्रीबृहद्देवसूरिः
संक्षिप्ताधिकार १२६ श्रीप्रद्योतनसूरिः १२७ श्रीबृहन्मानदेवसूरिः १२८ श्रीमानतुंगसूरिः १२९ श्रीवीरसूरिः १३० श्रीजयदेवसूरिः १३१ श्रीदेवानन्दसूरिः १३२ श्रीविक्रमसूरिः १३३ श्रीनरसिंहसूरिः १३४ श्रीसमुद्रविजयसूरिः १३५ श्रीलघुमानदेवसूरिः १३६ श्रीविबुधप्रभसूरिः १३६ श्रीजयानन्दसूरिः १३७ श्रीरविप्रभसूरिः १३८ श्रीलघुयशोभद्रसूरिः अपरनामश्रीयशोदेवसूरिः ,, १३९ श्रीविमलचन्द्रसूरिः १४० श्रीलघुदेवसूरिः अपरनामश्रीदेवचन्द्रसूरिः ,, १४१ श्रीनेमिचन्द्रसूरिः संक्षिप्तचरित्राधिकार तृतीयसर्गसमाप्तिः १४२ श्रीउद्योतनसूरिः १४३ श्रीवर्द्धमानसूरिः
१६० १४४ श्रीजिनेश्वरसूरिः
१७२ १४५ श्रीबुद्धिसागरसूरिः पट्टक्रममें नही ,,
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संख्या. विषयानुक्रम.
पृष्ठांक. १४६ श्रीजिनचन्द्रसूरिः संक्षिप्तचरित्राधिकार १४.७ श्रीजिनाभयदेवसूरिः १४८ श्रीजिनवल्लभसूरिः , चतुर्थसर्गसमाप्तिः ३४५ १४९ श्रीजिनदत्तसूरिः
पञ्चमसर्गसमाप्तिः ३५८ १५० श्रीजिनचन्द्रसूरिः
४८९ १५१ श्रीजिनपतिसूरिः
४९१ १५२ श्रीजिनेश्वरसूरिः
४९३ १५३ श्रीजिनप्रबोधसूरिः १५४ श्रीजिनचद्रंसूरिः
४९४ १५५ श्रीजिनकुशलसूरिः १५६ श्रीजिनपद्मसूरिः
५०९ १५७ श्रीजिनलब्धिसूरिः १५८ श्रीजिनचन्द्रसूरिः १५९ श्रीजिनोदयसूरिः १६० श्रीजिनराजसूरिः
५१० १६१ श्रीजिनभद्रसूरिः १६२ श्रीजिनकीर्तिरत्नसूरिः पट्टकममें नही,,
५१२ १६३ श्रीजिनचन्द्रसूरिः १६४ श्रीजिनसमुद्रसूरिः
५२१ १६५ श्रीजिनहंससूरिः
५२२ १६६ श्रीजिनमाणिक्यसूरिः
सप्तमसर्गसमाप्तिः ५२५ १६७ श्रीजिनचन्द्रसूरिः
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विषयानुक्रम.
संख्या. १६८ श्रीजिन सिंह सूरिः १६९ श्रीजिनराजसूरिः १७० श्री जिनरत्नसूरि :
१७१ श्री जिनचन्द्रसूरिः
१७२ श्रीजिन सुक्खसूरिः
१७३ श्रीजिनभक्तिसूरिः १७४ श्रीजिनलाभ सूरिः १७५ श्रीजिनचन्द्रसूरिः १७६ श्रीजिनहर्षसूरिः १७७ श्री जिनसौभाग्यसूरिः
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संक्षिप्तचरित्राधिकार
संक्षिप्त चरित्रस्वरूप
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१७८ श्रीजिनहंस सूरि :
१७९ श्रीजिनचंद्रसूरिः
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१८० श्रीजिनकीर्त्तिसूरिः संक्षिप्तच ०
१८१ श्रीजिनचारित्र सूरिः ( तथा श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि : सो विचरे हैं इति समाप्ताविषयानुक्रमणिका । ) अष्टम सर्ग
१८२ जैनधर्म अनादि अधिकार १८३ जैनईश्वरस्वरूपनामवगेरे १८४ कालचक्रका स्वरूप आरोकाअधिकार १८५ सातकुलगराधिकार
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१४ जेसलमेर भांडागारे ताडपत्रीया खरतरपट्टावली जिण दिट्टई आनंदु घडइ अहरहसु चउग्गुणु, जिण दिट्टइ झडहडइ पाउ तणु निम्मलु हुइ पुणु, जिण दिहइ सुहु होइ कहु पुव्वुकिउ नासइ, जिण दिवइ हुइ रिद्धि दूरि दारिद्दु पनासइ । जिणदिइ हुइ सुह धम्ममइ अबुहहुकाई उइखहहु ॥पहु नवफणिमंडिउ पासजिणु अजयमेरि कि न पिक्खहहु ॥१॥ मयण मकरि धरिधणुहु वाण पुणि पंचम पयडहि । भूविण पिम्मपयावि वंभहरिहरु मन विनडहि ॥ भूउ पिम्मु ता वाणमयण तादरिसहि धणुहरु ॥ नवफणिमंडिउसीसि जाव नहु पेक्खहि जिणवरु, जइ पडिहसि पासजिणिद वसि नाणदंत निम्मलरयण । तसु धणुहरु वाण न भूवनहि नभुय पिंमु हुइ हइ मयण ॥ २ ।। नम फणिपासजिणिंदु गढिउ अन्नल्लि जु दिउ । अजयमेरि संभारि नरिंदु ता नियमणि तुहउ । कंचणमउ अह कलसु सिहरि साणउ रजविअउ । जणु सुतरणि तओ तवइ तिव्वु आयासिसउन्नउ । जा चुकमिसिण ढकारविण करउज्झिवि फरहरइ धर ॥
जिणदत्तसूरि धरधमलि जसि ता पसिद्धि सुरभवणिकय ॥३॥देवसूरि पहु नेमिचंदु बहुगुणिहिं पसिद्धउ, उज्जोयणु तह वद्धमाणु खरतरवरल
१ जिनदृष्ट आनन्दश्चटति ( भवति ) अहरहः सुचतुर्गुणः । जिनदृष्टे झटिति हटति ( नश्यति ) पापस्तनुर्निर्मलो भवति पुनः । जिनदृष्टे सुखं भवति कष्टं पूर्वकृतं नश्यति, जिनदृष्टे भवति ऋद्धिदूरं दारिद्रं नश्यति, जिनदृष्टे भवति शुभधर्ममति-रशुभघूकादिरेति क्षयम् ॥ १ ॥
२ जिनदत्तसूरि धरसि शिरसि ततः प्रसिद्धिः सुरभूयसी, देवसूरिः प्रभुः नेमिचन्द्रोबहु गुणिभिः प्रसिद्धः, उद्द्योतनस्तथा वर्धमानः खरतरवरलब्धकः, सुगुरुर्जिनेश्वरसूरिः, नियमीजिनचन्द्रः सुसंयमी, अभयदेवः सर्वगो ज्ञानी जिनवल्लभः आगमी, जिनदत्तसूरिः स्थितः पट्टे तस्य येन उयोतितं जिनवचनं, श्रावकैः परीक्ष्य परिचरितो मूल्यं महद् दत्त्वा यथा रत्नम् ॥ २॥
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द्धउ, सुगुरुजिणेसरसूरि नियमि जिणचंदु सुसंयमि, अभयदेवु सबंगु नाणि जिणवल्लहु आगमि, जिणदत्तसूरि हिउ पट्टि तहि जिण उज्जोइउ, जिणवयणु, सावइहिं परिक्खिवि परिवरिउ मुल्लि महग्घउजिमरयणु ॥ ४ ॥ धणुहर धयवडधरय सारि सिंगार सुसज्जिय, सोहग्गिण गुडगुडिय पंच वरपडिम निमज्जिय, तियड अ तेअ अग्गलिय पिम्मपडिकारनिरुत्तिय । रइरणरह सुचलिय गरुयमाणिण मइ अन्निय । करिकडसडमुणि महिवइहिं रहिय रूवय संपुन्नभय । जिणदत्तसूरिसीहह भयणमयण हकर घियड विहडि गय ॥ ५ ॥ तवतलप्फभीसणह धम्मधीरिमसूविसुविसालह । संजमसिरभासुरह । दुसहदवदाढकरालह । नाणनयणदारुणह नियमनि सनहर समिद्धह । कम्मकोवनिहुरह । विमलपहपुछ पसिद्धह । उपसमणउपरधरदुबिसह. गुणगुंजारवजीहह । जिणदत्तसूरि अनुसरह पयपावकरडिघडसीहह ॥ ६॥ जरजलवहलरउदु लोहलहरिहिं गजंतउ मोहमच्छ उच्छलिउ । कोवकल्लोल वहंतउ मयमयरिहिं परिवरिउ । वंचबहुवेलदुसंचरु, गंथगरुय गंभीरु, असुहआवत्तभयंकरु, संसारसमुहु जु एरिसउ जसु पुणु पिक्खिविदरियइ । जिणदत्तसूरि उवएसुसुणितपरतरंडइ सुतरियइ ॥७॥ सावयकिवि कोयलिय केवि खरतरिय पसिद्धिय, ठाइ ठाइ लक्खियहिं मूढनियवित्ति विरुद्धिय । दरहिं न किंपि परत्त वेवि सुपरप्परु जुन्झहि, सुगुरु कुगुरुमणि मुणिवि न किं वि पहतरु बुज्झहिं । जिणदत्तसूरि जिन नमहि पयपउम सञ्चुनियमणि वहाहि । संसारउयहि दुत्तरि पडिय जिनहु तरंडइ चडितरहि ॥८॥ तव संयमसय नियम धम्मकम्मिण वावरियउ विसमछंदलक्खणिण सत्थ अत्थत्थ विसालह, जिणवल्लभ गुरु भत्ति वंतु पयडउ कलिकालह् ।
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अन्निहिविगुणिहि संपुन्नतणु । दीणदुहिय उद्धरणु धर, जिणदत्तसूरि पर पल्ह भणु तत्तवंत सलहियइ धर ॥ ९ ॥ वक्खाणियइ न परमतत्तु जिणपाउपणासइ । आराहियइ न वीरनाहु कइपल्हुपयासइ धमु त दय संजत्तु जेण वरगइ पाविजइ । चाउ त अणखंडियउ जु वंदिणु सलहि ब्बइ । जइ ठाइ उत्तिममुणि वरह वि ॥ पवरवसहिं हो चउरनर । तिम सुगुरुसिरोमणि सूरिवर खरतर सिरिजिणदत्तवर ॥ १० ॥ इति श्री पट्टावली संवत् ११७१ वर्षे पत्तनमहानगरे श्रीजयसिंहदेवविजयिराज्ये श्रीखरतरगच्छे योगीन्द्रयुगप्रधानवसतिवासिश्रीजिनदत्तसूरीणां शिष्येण ब्रह्मचन्द्रगणिना लिखिता शुभं भवतु, श्रीमत्पार्श्वनाथाय नमः सिद्धिरस्तु ॥
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श्रीजिनदत्तसूरिचरिते
उत्तरार्द्धम् ।
अथ षष्ठसर्गः प्रारभ्यते ॥
तत्रादौ मंगलाचरणम् यथाकल्याणं वः प्रतन्यात्प्रथमजिनपतिर्विश्वविश्वेशपूज्यो यस्य श्रीपुण्डरीकः प्रथमगणधरःपंचकोटी समेतः ॥ श्रीमच्छर्बुजयाद्रौ सकलरिपुजयात्प्राप्तसत्कीर्तिपूरः, प्रेयः श्रेयःसुकन्यापरिणनमहोब्रह्मचारीव्यधत्त ॥ १॥ श्रीविक्रमपुरश्रीमहावीरदेवस्थापन भूतप्रेतनिरासन श्रीमदुज्जयिनीयोगिनीचक्रप्रतिबोधकःकुमार्गनिरोधकः अणहिल्लपाटकसप्तवर्षावस्थानःप्रतिवादिसिंहनादभंगविधानः श्रीत्रिभुवनगिरिदेशनियमितपंचसप्तयतिवासनिवारण श्रीपार्श्वनाथ नवफणधारण:वामावर्तीर्तिकास्थापनः निरंतरागछद्गछदनेकसुरासुरविरचितांघिसेवनःश्रीमदंविकादेवीखहस्तप्रदत्तनागदेवश्रावक हस्ताक्षरवाचनोत्पुंसनवप्रकटितयुगप्रधानभावः नानाप्रभावः श्रीविधिमार्गप्रभावनाद्यनेकावदातकर्पूरसुरभितः त्रिभुवनाभोग समाश्रितः ध्वस्ताशेषरोगयोग खप्रतिभापहसितदेवसरिः युगप्रधानश्रीमजिनदत्तमूरिः तेषां च भव्यनव्यनव्यतरश्रद्धालवलतावितानविवेकविमलजलसेचनप्रख्यं षसर्गे सावशेषं चरित्रलेशं चिकीर्षुः समस्तप्रत्यूहव्यूहव्यपोहाय
२६ दत्तसूरि
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भावमंगलमभिधेयादेव श्रोतजनप्रवृत्तये प्रतिपादयितुं प्रथममिमां गाथामाह, गुणमणिरोहणगिरिणो, रिसहजिणंदस्स पढममुणिवइणो, सिरिउसभसेण गणहारिणो णहे पणिवयामिपए ॥ ॥१॥ अथकोटिकगणपट्टावल्यां दर्शितचरित्रलेशं यथा-॥४४ मा ॥ श्रीजिनवल्लभसरिजीके पाटऊपर, श्रीजिनदत्तमरिः हूए । सो वडादादाजीके नामसे सर्व लोकमें प्रसिद्ध भए।इनोंका किंचिद अधिकारलिखताहुं ॥ धवलकनामनगरमें, हुंबडगोत्रियवाछिगनामें एकमंत्री हुवा, जिसके वाहडदेवी नामें स्त्री, उसकी कूखसें चंद्रस्वमकरके सूचित संवत ११३२ में जन्महुआ, तब मातापितानें दशदिनकाबहुतउत्सवकरके सर्वस्वजनोंकेसामने सोमचंद्र ऐसानामदिया, शुभलक्षणोंकरकेयुक्त और श्रेष्ठचिन्होंसे सूचित कराहै अपणापुन्यप्राग्भारजिसने, ऐसा पांचधायमायकरके पालीजता जब पांचवरसकाभया, तब मातापिताने शुभदिनमे पंडितकेपास पढानेकों बैठाया, बुद्धिकेबलसें थोडा दिनोंमें बहोतसी कलाविद्याशीखी, आठबरसका हुयेपीछे गुरुमहाराजके पास उपदेशसुनके वैराग्यकोंप्राप्तभया, तब अपनामातापिताकी आग्यालेके संवत् ११४१ के सालमें उपाध्यायश्रीधर्मदेवगणिजीके पास दीक्षाग्रहणकरी, अर्थात् जैनसाधुभया, पीछे गुरूके पास संपूर्णशास्त्रोंकाअभ्यासकरनेलगा, इस अवसरमें गुरुमहाराज सारंगपुरकेविषे श्रीकुंअरपालउपाध्यायकों अणशणदिराया, आराधनाकराई, सो श्रीकुंवरपालउपाध्याय आयुपूर्णकरदेवगतिकों प्राप्तभया, तब ग्यानकेउपयोगसे पूर्वभवकासंबंध जाणके गुरूके
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पासआया, गुरूकोंनमस्कारकरके श्रीसोमचंद्रमुनिकों कहने लगा की भोसोमचंद्र तुम आचार्यपदकोंप्राप्तहोवोगे. परंतु तीन मुहूर्त देखनेमें आवेगा, जिसमें पहले मुहूर्तमें मरणान्त कष्टहै, अरु दूसरेमुहूर्तमें गच्छभेद है, इससे तीसरामुहूर्त्तश्रेष्ठहै, तीसरामुहूर्तमें आचार्यपद ग्रहण करना, ऐसाकहकर देव अदृश्य होगया, पीछे कथंचित् भावी प्रबलसे दूसरा महूत्ते में संवत् ११६९ मिति वैशाख वद ६ शनिवारकेदिन संध्यासमयशुभलमे श्रीदेवभद्रसूरिजीने ( श्रीविजयदेवसरिजीयें ) युगप्रधानश्री. जिनवल्लभसूरिजीकेवचनसें, सूरीमंत्रदेके पं० श्रीसोमचंद्रगणिजीकों आचार्यपदमें स्थापनकिये, तब श्रीजिनदत्तसूरिजी ऐसा नाम प्रसिद्धकरा, पीछेविहारकरते दूसरीवक्त चित्रकूटनगरमें गए, उहां श्रीचिंतामणिपार्श्वनाथके मंदरके स्तंभमेरहिहुई विद्यानायकी पुस्तक विद्याबलसें प्रगटकरके ग्रहणकरी, फेर उजयणीनगरीमें गए, उहां महाकालके मंदरके स्तंभमेंसें विद्याधरगच्छे श्रीवृद्धवादीशिष्य श्रीसिद्धसेनदिवाकर श्रीविक्रमादित्यके गुरुकी विद्याम्नायपुस्तक विद्यावलसें आकर्षणकरके ग्रहणकरी, फेर साढातीनकोडमायावीजकाजापकिया, जापकरता चोसठयोगणी. योंने महाराजकों छलनेकाविचारकिया तब कोइवीरआयके महाराजकों खबर दीनी, के आज व्याख्यानमें ६४ योगणी आवेगी, उक्तंच बावनवीरकियेअपनेवस चोसठजोगणिपायलगाई, डाइणसाइणव्यंतरखेचर भूतस्प्रेतपिशाचपुलाई, बीजत. डक कडक भटक अटक रहे जु खटकनकाई, कहे धर्मसिंह
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लंघेकुणलीह दियेजिनदत्तकी एकदुहाई ॥ १ ॥ इसीतरह गुरुकी स्तुतिमेकहा है अब इहपर ५२ वीर ६४ जोगणीयां जों कि गुरुमहाराजके आज्ञाकारीहोकर सेवामेंउपस्थितभये, उनका नाम है || अथ चतुःषष्ठियोगिनी नामानि दर्शयति यथा वाराही १ वामनी २ गरुडी ३ इंद्राणी ४ आग्नेयी ५ याम्या ६ नैर्ऋती ७ वारुणी ८ वायव्या ९ सौम्या १० ईशानी ११ ब्राह्मी १२ वैष्णवी १३ माहेश्वरी १४ विनायकी १५ शिवा १६ शिवदूती १७ चामुंडा १८ जया १९ विजया २० अजिता २१ अपराजिता २२ हरसिद्धि २३ कालिका २४ चंडा २५ सुचंडा २६ कनकनंदा २७ सुनंदा २८ उमा २९ घंटा ३० सुघंटा ३१ मांसप्रिया ३२ आसापुरा ३३ लोहिता ३४ अंबा ३५ अस्थिभक्षी ३६ नारायणी ३७ नारसिंही ३८ कौमारी ३९ वानरता ४० अंगा ४१ वंगा ४२ दीर्घदंष्ट्रा ४३ महादंष्ट्रा ४४ प्रभा ४५ सुप्रभा ४६ लंबा ४७ लंबोष्ठी ४८ भद्रा ४९ सुभद्रा ५० काली ५१ रौद्री ५२ रौद्रमुखी ५३ कराली ५४ विकराली ५५ साक्षी ५६ विकटाक्षी ५७ तारा ५८ सुतारा ५९ रजनीकरा ६० रंजना ६१ श्वेता ६२ भद्रकाली ६३ क्षमाकरी ६४ चतुःषष्टिः समाख्याता, योगिन्यः कामरूपिकाः, पूजिताः प्रतिपूज्यंते, भवेयुर्वरदाः सदा, इति विधिप्रपायाम् ३८ द्वारम्
॥ अथ ( ५२ ) वीरकानामलिखते हैं क्षेत्रपालवीर १ कपिल २ टुक ३ नारसिंह ४ गोपाल ५ भैरव ६ गरुड ७ रक्तसुवर्ण ८ देवसेन ९ रुद्र १० वरुण ११ भद्र १२ वज्र १३ वज्रजंघ १४
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स्कंद १५ कुरु १६ प्रियंकर १७ प्रिय मित्र १८ वह्नि १९ कंदर्प २० हंस २१ एकजंघ २२ घंटापथ २३ दजक २४ काल २५ महाकाल २६ मेघनाद २७ भीम २८ महाभीम २९ तुंगभद्र ३० विद्याधर ३१ वसुमित्र ३२ विश्वसेन ३३ नाग ३४ नागहस्त ३५ प्रद्युम्न ३६ कंपिल ३७ नकुल ३८ आह्लाद ३९ त्रिमुख ४० पिशाच ४१ भूतभैरव ४२ महापिशाच ४३ कालमुख ४४ शुनक ४५ अस्थिमुख ४६ रेतोवेध ४७ स्मशानचार ४८ कलिकल ४९ ( केलिकल ४९ ) भृंग ५० कंटक ५१. विभीषण ५२ इति अथ अष्टौं भैरवनामानि भैरव ९ महाभैरव २ चंडभैरव ३ रुद्रभैरव ४ कपालभैरव ५ आनंदभैरव ६ कंकालभैरव ७ भैरवभैरव ८ इति कपिल ९ पिंगल २ पूर्णभद्र ३ माणिभद्र ४ यहनामांतरसंभवे देशकार्यस्थान भेदतः द्विपचाशत्संख्याकाः क्षेत्रपालाः भवन्ति अन्येचभवनपतिवानव्यं तर ज्योतिष्कवैमानिक चतुर्विधनिकायार्न्तगत केचित्देवाः देव्यश्च श्री पूज्यनां नामग्रहणेन पर्युपासनां कुर्वन्सन् तिष्ठन्ति जगतितले " बाद गुरुमहाराज श्रावकोंके पास ६४ पाटिया मंगाय के मंत्रके श्रावकण्योंकों सोंपदिये, और कहा आज व्याख्यानमें ६४ स्त्रीयों नवी आवेगी उनोंको पाटियां ऊपर बैठाणां, पीच्छे जब व्याख्यानमें श्रावकण्योंके रूपसे ६४ योगण्यों आई, नमस्कार करके श्रावकण्यों में पाटियां ऊपर बैठगई, व्याख्यानपूरणहुए पीच्छे जब उठनेलगी, तब उठशकी नहि बाद बोली हम सबहितो आपकों छलनें आईथी परंतु आपनें हम सर्वकों छललीनी अब हम सर्व आपकी आज्ञा करणें वाली हो के, रहेंगी हमकों
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छोडो, जब गुरुमहाराज कहा कि फेर कभी कोई खरतर आचार्यको छलनानहीं, तबयोगणियोंनें ऐसावचन अंगीकारकिया और सातवरदान दिया" १ प्रतिग्राममें खरतर श्रावकदीप्ति - वंतहोगा ॥ २ ॥ प्रायकरके खरतर श्रावक निर्धननहिंहोगा ॥ ३ ॥ संघमें मरीआदिकसें कुमरणनहिंहोगा ॥ ४ ॥ अखंड शीलपालनेवाली साधवीके ऋतु न आवेगा ।। ५ ।। आपका नाम लेतां वीजलीआदिको ईतरेका उपद्रवसंघमें नहिंहोगा || ६ || प्रायें अकालमृत्युनहिंहोगा ॥ ७ ॥ प्रायें खरतरश्रावक सिंधुदेशमें गया धनवंत होगा | यह सातवरदेके फेर योगणियों कहनेंलगीकि, १ खरतरआचार्य सिंधुदेशगयांथकां पंचनदीकों साधनकरे ॥ २ ॥ खरतर आचार्य दिनप्रति दो हजार (२०००) सूरिमंत्रको जापकरे || ३ || खरतरसाधु नित्य दो हजार (२०००) नवकार मंत्र का जाप - करे || ४ || खरतर श्रावक दिन प्रति सवेर सांझे दोनों कालमें सातस्मरणशुद्धअक्षरोंसें शुद्धचित्तगुणतेर हैं ॥ ५ ॥ खरतरश्रावक दिनप्रति तीन खीचडीकी माला गुणतेर हैं, एकमणिकाऊपर एक नवकार १ उवसग्गहर, स्तौत्रगुणें, उसको खीचडीकी माला कहतें हैं ॥ ६ ॥ खरतर श्रावक मासमें दो आंबिलअवश्यकरें, और आप श्रीकीध्यावनारखे ॥ ७ ॥ खरतरसाधुछतीसक्ति सदाएकासणी - करे || यह ७ वर पालनेंसें पूर्वोक्त ७ वर सफलहोवेंगें, ऐसा, कहके फेर योगणियों कहने लगी कि दिल्ली १ अजमेर २ भरुअछ ३ उज्जैण ४ मुलतान ५ उच्चनगर ६ लाहोर ॥ ७ ॥ इननगरों में पूर्णशक्तिरहितखरतरगछनायकरात्रिवासो नरहे ऐसा
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३९५ कहके अपणेठिकाणेंगई, तथा फेर अजमेरनगरमें पाक्षिक पडिक्कमण करते वक्त श्रीगुरुमहाराजने बेरवेरझवत्कारकरतीथकीवीजलीकों मंत्रबलकरके पात्रकेअधोभागमेंरक्खी, तब प्रतिक्रमण वाद पात्रकेनीचेसें निकाली, जब उसने कहा कि श्रीजिनदत्तनामग्रहण करणेसे में नहिं पडूंगी ऐसा वरदेके अपने ठिकानें गई, फेर एकदा गुरुमहाराजविहारकरते थके वृद्धनगर गए, उहां जिनमतकी उन्नतीकों नहिं सहता थका ब्राह्मण लोक जिनमंदिरमें मरी भई गऊकों डाल गए, उहां मरी गउकों देखके ब्राह्मणकहणे लगे, अहो जैनीयोंका देव गउ घातकहै, एसा वचन सुनकै खेदातुर भए, श्रावक लोक गुरुमहाराजसें वीनतीकरी तब गुरुमहाराज मंत्र बलें व्यंतर प्रयोग करके मरी भई गउकों अछी करी, तब गउ अपणी इच्छासें उठके शिवमंदिरमें शिवमूर्ति ऊपर आके पडगई, तब नगरमें ब्राह्मणको अत्यंत लज्जा उत्पन्न भई, तब लजित भये ब्राह्मण गुरुमहाराजके चरण कमलमें पडके ऐसा कहते भए, अहो स्वामिन् आप महं. तहो अब आप हमारा अपराध क्षमा करो आज पीछे इस नगरमें जो कोई आपकी परंपराके सूरि आवेंगें उनोंका प्रवेशउत्सव हम लोक करेगें आप कृपाकरके हम लोकोंको कोई नोकरीभोलावो, तब महाराजबोले मंदिरोंकीभक्ति करो, मंदिरोंमें पडिलेहणकरो, और चावल नैवद्य फल जो खाणेकी चीज चढे सो लिया करो तबसें वे ब्राह्मण मंदिरोंकी भक्तिकरने लगे, सो गंध्रपभोजक नामसें प्रसिद्धहुए उसवखतमें बहोतसी जैन धर्मकीप्रभावना भई तथा फेर एकदा गुरुमहाराज उच्चनगरमें गए, उहां प्रवेश
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उच्छवसमय मनुष्योंके बाहुल्यसें उस नगरका मालिक मुगलका पुत्र बाहनसें पडके मरगया तब श्रावक सर्व खेदातुरभया गुरूमहाराजको वीनती करी तव गुरूमहाराज यह वातसुनके, जिनमतकी प्रभावनाके वास्ते व्यंतरप्रयोगकरके ६ मास तक मरेभए मुगलपुत्रको जीवाया, तथा नागदेवनामश्रावक, अंबड इति दूसरा नाम, एकदा गिरनार पर्वतपर तीन उपवास करके अंबिकाकों आराधन करके कहाकि हे माताजी इस समयमें भरत क्षेत्रके विषे युगप्रधानपदधारककोणमूरिहै, जिनकों में अपने गुरूपणे स्थापनकरूं ऐसा पूछा तब अंबिकादेवी तिसके हाथमे सुवर्ण अक्षरोंसें एक श्लोकलिखा दासानुदासा इव सर्वदेवा, यदीयपादाब्जतले लुठन्ति ॥ मरुस्थली कल्पतरुास जीयात् , युगप्रधानोजिनदत्तमूरिः १
इसकाव्यकों जो वाचेंगे उनकोयुगप्रधानजाणना वाद नागदेवश्रावक ठिकाणे ठिकाणे बोहोतसूरिकोंहाथदिखावे, परंतु कोईभीअक्षरवाचणको समर्थनहिभए, पीछे एकदा वह श्रावक पाटणनगरमें तांबावाडापाडेकेउपाश्रयमें श्रीजिनदत्तसूरिजीके पास आके हाथदिखलाया, तब गुरुमहाराज उसके हाथमें लिखितस्वर्णाक्षर ऊपर वासचूर्णडालके शिष्यकों आज्ञा दीवी तब शिष्यनें उनहरफोंडु वाचे, जब नागदेवश्रावक परमभक्तिवंतभया, इसमुजब कलिकालमें युगप्रधानपदधारक श्रीगुरूमहाराजभए, एकदा व्याख्यानकरतेथके श्रीगुरू महाराजने विद्याबलसें अपना स्मरण करताहुवा श्रावकका जहाज डूबता जानके तत्काल जहाजकों देवबलसें समुद्रकेपारउतारा,
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ये वात जब संघकों मालुमभई तब बहुतमहिमाकरनैलगे, तथा एकदा श्रीगुरूमहाराज प्रवलप्रवेशउच्छव करके मुलतान नगरमेंगए, तब पत्तनमेंवसनेवाला, परपक्षीय अंबड नामें श्रावक खरतरगच्छकीउन्नतिकों नहिं सहताथका बोलाकि इस नगरमें इस आडंबरसें आप आएहो, परंतु अणहिल्लपत्तनमें इसतरेसें आवोगे जबमें जानोंगा, यह वातसुनके गुरुमहाराजबोले कि हमतो इसीप्रकारकरके आवेगें. परन्तु तें तैललवणादिचीज खांधेरखके सन्मुखमिलेगा, पीछे जब गुरुमहाराज कितनें दिन वाद अणहिल्लपुरपत्तनगए, तबअंबडश्रावकदैववसमें निर्धन भया मुलताननगरसे भागके पत्तनजाके तेललवणादिव्यापार करके आजीवकाकरनेलगा, उहां गुरूकेप्रवेशउत्सवसमय सन्मुख मिला गुरुमहाराजनें ओलख के बतलाया, तव गुरू ऊपर अप्रीतिधारनकरताथका कपटकरकेखरतरश्रावक होगया, एकदा श्रीगुरुमहाराजकों विषमिश्रितशाकरकाजल वहराया तब श्रीगुरूमहाराजने विषप्रयोग जानके राय भणसालीगोत्रीय आभूनामें मुख्यश्रावकातें यह स्वरूपकहा तब आभूनामें श्रावक घडीभरमें जोजनजावे ऐसा ऊंठ ऊपर नोंकरकों चढाके पाल्हणपूरसें विषअपहारिणीजडी या मुद्रिका मंगवाके निर्विषकीए, तब बोअंबड लोकमें निंदीजताथका मरके व्यंतरभया, व्यन्तरहोके फेर श्रावकोंमें उपद्रव करने लगा, तब गुरुमहाराज विद्याबलसें सर्व उपद्रव दूर किया, और व्यन्तरभी भागके अपने स्थानक गया, तथा फेर एकदा विक्रमपुरमें मरीका उपद्रवप्रगट भया तब गुरुमहाराजने
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श्रावकोके उसउपद्रवकों दूरकरा तब दुःखित भएथके महेश्वरी लोक बोले कि हे स्वामिन् हमारे ऊपर कृपाकरके हमारे कुटंबका उपद्रव दूर करो तब गुरुमहाराजनें उनोंका वचन ग्रहण करके उन लोकोका उपद्रव दूर करा, तब महेसरी गोत्रका श्रावक भया, तथा कितनेक शिवमतवाले श्रावक नहिं भए तब तिनमेंसें जिसके चार पुत्रथा उसका एक पुत्र ग्रहणकरा, जिसके तीनपुत्रीथी तिससे एक पुत्रीग्रहण करी, ऐसें पांचसे (५००) शिष्यहुए, सातसें (७००) साधवीहुइ, इसीतरे श्रीजिनदत्तमूरिजीमहाराज बहोत नगरोंके विषे विहारकरते रजपूत ब्राह्मणादिकको प्रतिबोधके नाहट्टा, राखेचा, भणसाली, नवलक्खा, डागा, बाफणा, इत्यादि गोत्र १४४४ अलंकृत एकलाखतीस हजार घरकुटंबप्रतिबोधके श्रावक करा, तथा एक जीर्णप्रायप्रतिमें, एवं लिखितं यथा-तेहनेपाटे ( अर्थात् श्रीजिनवल्लभमरिजीनेपाटे ) श्रीजिनदत्तसूरिजी हुंबड ज्ञाति चीतोड श्रीसंघे थाप्या, सारंगपुरनें विषे कुंवरपाल उपाध्यायकों तिहां श्रीसंघने आग्रहे निर्जराव्यो, दिन तीन अणसण पाली देव थयो, प्रत्यक्ष हूवो अने कहे थाने सांनिधकरीस, ओर तीनमहूर्त जोयाछे, १ मुहूर्त सूरिमंत्र लिधां छठे मासमृत्यु, २ गछफाट, ३ श्रेष्ठछे, महारोस्वरूप किणहिरे आगे कहेना नहिं, श्रीसंघआव्यो पहिलोमुहूर्त्तकाउसग्गवेलाव्यतीतकीधो २ मुहू काउसग्ग करिवालागा, साधुश्रावके निषेध्या, २ मूहूर्त थाप्या संवत् ११६९ चीतोडश्रीसंघे, श्रीजिनदत्तमुरिएहवो नामदीधो, श्रीजिनदत्तसरिजीये, एक साधु श्रीजिनवल्लभसूरिजीये, गच्छवाहिर
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३९९ काढीयो हुँतो, तिणने श्रीजिनदत्तमूरिजीये मांहें लीधो, भातपाणी करतांचोलपटोफाटो गच्छफाटहोसी, १३ आचार्यमिल्या आहारवेला, मांडलवेसतां कहे ईयेनें अलगोवैसाणो, गुरुकहे मेंमांहेंलीयोछे, तीएरीसकीधी विणपूछीयां गछमाहेलीधो, ३ ठाणे श्रीजिनदत्तसूरिजी विक्रमपुर गया, मरकी उपद्रव निवारतां चिहुंदीकरे एकदीकरो, ३ पुत्रींयें एकपुत्री आप्या, श्रावक लूणीया डागा, प्रमुख कीधा, तठाथी नारनोलपुरेगया, तत्र श्रीमालपुत्रमूवो, तेहनी स्त्रीने काष्टभक्षण करायवा भणीआरंभ मांडयो, नासिने गुरांरे पूठेलुकी रोइवालागी म्हाने विहरो, विहरी दीक्षादीधी उणरेजुलीखघणीपडी साधवीकहै, बडी अहंडछे, श्रीजिनदत्तसूरिजीये कह्यौ, सातसे (७००) चेलीरो परिवार थास्ये, महत्तरापद दीधो, विक्रमपुर पांचसे ( ५००) शिष्यदिख्या ७०० सातसयचेलीदीखी, वली गछमांहैं आव्या, अर्थात् आकर समुदायके साथ भये, सर्व आवी पगे लागा, रुद्रपल्लीबीजोगछ भेदहूवो, अन्यदा श्रीजिनदत्तसरिजीसिंधुदेसे मुलतान चउमास रह्या, कमलेश्रावके पतिसाहने घणो दानदीधो, खरतर विध्वंसकरो, एसहिनाणी, तिलकअणकीयेआवे ते मारिवा, तिलकसहित ते छोडवा, हाथी गुरांने वांदणआवतो गुरुऊंचेस्वरधर्मलाभदेता, सिंधूश्रावकरीसकरता निरसने आदर सो गुरुकहता हाथी राजद्वारे सोहे, हाथीरेबीवी धर्मबहिन छ, तीयेवातफेरिनाखी, हाथीनासाहमीथया तेसर्वछूटा खरतरांनो सुबोल हूवो, तिवारे हाथी लूणीयांनै अजितशान्ति
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स्तवनदीधो, एकदा श्रावककहे महारेथांसरीखा गुरु अम्हे तुह्मारा श्रावक हुआ, तिमकरो जिम महारे घणो धनहुवे तिवारे श्रीजिनदत्तसरिजी कहै, मकराणा गाम जावो, ३२ अंगुल प्रतिमा करावो, अमुक वेला मुहूर्त्तकरावी, रूनीवरकीमांहें घाली मार्गनें विषे किणहीरे घरे जीमज्योमत, अठे आणो तीये प्रतिमारेनेत्रेसिलाकाफेरस्यां घणी लक्ष्मी थास्ये, श्रावक मकराणे जई प्रतिमाभराई, अनुक्रमेनागोररे परिसरे आया, तिहां श्रीशान्तिसूरिजीये सूतांथकारात्रिने विषे द्रव्यकोडि लक्ष्मी जातीदीठी, अधिष्टायकेकह्यो श्रीजिनदत्तसूरिजीये आकर्षीछे, तीहां श्रावकांनेकह्यो, विछायतांने नोतरोजिम लक्ष्मीनागोरराखं, तीए घणो आग्रहकरी नोतस्या, जीमणगयां पूठांथी प्रतिमाकाढीनें गुरेकाजलथीप्रतिष्ठी, द्रव्य सर्व तिहारह्यो, अनुक्रमे ते आव्या, श्रीजिनदत्तमरिजीयेकह्यो, रे छोहरीया जिसागया तिसाआया, प्रतिमारेनेत्रेकाजलदीठो, तिवारे श्रावक वली कहे द्रव्यनो उपाय करो, गुरुकहे, भट्टनगरे श्रीमहावीरस्वामीरे देहरे श्रीमाणिभद्रयक्षरी प्रतिमाछे, ते आणो तिवारे च्यार श्रावक व्यापारमिसे तिहांगया, नित्य भगवंतरी पूजाकरे अवसरे यक्षरी प्रतिमा लेई नाठा, पूठे वाहरथई अनुक्रमे सिंधुदेश पंचनदी वहे, पांचवर्णपाणी तिहां आव्या, वाहरपिणपूठे आवी, प्रतिमापाणी मांहिनांखी, जाणीयोपछे लेस्यां, वाहर सोधीपाछीगई, तिवारे श्रीजिनदत्तसूरिजी तिहां आवे, नदीतट मांणिभद्र यक्ष प्रत्यक्षहूवो, यक्षकहेहूं अठेईजरहीस बाहिरमतकाढो, अठाथकी सांनिधकरीस, ते यक्ष गुरांकन्हे नित्यरहे, माहोमाहि परम प्रीतिहूई,
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४०१ श्रीजिनदत्तमरिजीकन्हेमाणिभद्रयः ७ वरमांग्या-यथा-भट्टारक पंचनदीसाधे तिको सिंधु मांहैं आवे, १ सूरिसदा २ सहस्रसूरिमंत्र जापकरे, २ सामान्यसाधु २००० नवकारजापकरे, ३ खरतर श्रावक बेईटंकसातस्मरण गुणे, ४ श्रावक प्रतिदिन २०० खीचडी नवकार उवसग्ग गुणे, ५ श्रावकघरघर महीनेमें, २ आंबिलकरे ६ दीवो एकटंककरे, ७ श्रीजिनदत्तमूरिजीने ७ वरदीधा, माणि भद्रे, गाम गाम एक श्रावक दीपतो होस्ये, १ श्रावक सर्वथानिधन नहूवे, २ वली कुमरणनमरे, ३ महासतीने ऋतुनावे, ४ थारेनामलीयां बीजली न पडसी, ५ निर्धनश्रावकसिंधुमेंजास्ये ते सुखी थास्ये, ६ वली थारेनामलीधां शाकीनीनछलस्ये, ७ सिंधुदेशे सेले पर्वतवासी खोडीयो क्षेत्रपाल माणिभद्र पंचपीर पांचनदी साधे ते संतोषकरे, भट्टारक खरतर पंचनदीसाधे, एकदा श्रीजिनदत्तमरिजी दिल्लीगया तिहां ६४ योगनी पीठ छे, ते कोपीछलवा आवी, श्रीपूजांने एक व्यन्तरे पहिला कह्यो, तिवारे श्रीपूजरात्रे महणसी नाम श्रावकतेड्यो, अनेकहे ६४ नवापाटियालाव मोटोकार्यछे, तीये आण्या पाटियाराने मंत्रिया प्रभाते वखाणवेला एक श्रावकनें कह्यो ६४ श्राविकारोटोलो आवे, जीवणे हाथमे धवला वस्त्र तीयेनें एपाटीया बेसवाने देज्यो, तीये तिमहीज कीधो बेठ्यां मुंहडे गुरु वखाणकरे, गोडेऊपरि मंत्रगुणि हाथफेरे सर्वथंभ्यां ऊठिसकीनहीं, साम्हे उछली लाजी, श्रीपूजे कयो, वरद्यो जिमछोडूं, तिवारे ७ वरदीधा, यथा-खरतरजती मूर्ख नहोस्ये, १ महासतीनेतु नावस्ये, २ खरतरसाधु साध्वी सर्पहूंती न मरसी, ३ खरतर
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वचनसिद्धि,४ वली श्रीजिनदत्तमरिजीरोनाम लीधां बीजली न पडसी, ५शाकिनी नछले, ६ जिमसिंधुदेश खरतर सगला तिमदिल्ली श्रावक आचारविचार चतुर थास्ये इति ७ वरदीधा, जोगणीकहे एक कह्यो माहरोकरो ताहरेपाटिजेगणनायकहूवे, ते योगिनीपीठनावे दिल्ली १ अजमेर २ उज्जयण ३ उच्चनगर ४ लाहोर ५ मुलतान वगेरे योगिनीपीठे नरहे, कदाचित् भोजनकरेतो रात्रिनरहे, बोललेई पोताने स्थानक पुहती, अन्यदा गुजराती नागदेव श्रावके चित्तेचितन्यो, श्रीभगवंतेकह्योछे, सर्वदा एकयुगप्रधानहोवे, तीयेकारणि गिरनारपर्वत ऊपर अंबिकाढूंके अंबामाताआगेतीनउपवासकीधा प्रत्यक्षथई तीयेकह्यो युगप्रधानवतावो, तिवारे अंबिकातीयेरे हाथे अक्षरलिख्या जेवाचेते युगप्रधानजाणो, अनुक्रमे पाटणआव्यो, सगलाआचार्यों नेहाथदेखाडे कोइअक्षरनदेखे, ८४ गछफिखो तिवारे किसीने करो, इहां श्रीजिनदत्तसूरिजीछे, तठेआव्यो नागदेव श्रीपूजानें हाथदेखावे वासक्षेपकीधो अक्षर प्रगटकीधा दासानुदासाइव सर्वदेवा, यदीयपादाञ्जतले लुठंति, मरुस्थली कल्पतरुः स जीयात् युगप्रधानोजिनदत्तमूरिः॥९॥ इमयुगप्रधानप्रगटथया, एकदा अजमेरनगरमें पडिक्कमणकरतां, पाक्षिने दिन उजोहीकरे तेपिणगुरुयमंत्री बीजलीथंभी तूठीवरदीओ, और पिणपरचाघणादेखाड्या, वरस ७९ सर्वआयुपाली, संवत् १२११ वर्षे अजमेरमांहे स्वर्गपुहता' तठे धुंभछे, इतिप्रत्यंतरेलेखोस्ति, श्रीगुरुमहाराजमुलताननगरकेविषे लूंणीयागोत्रीय हाथीसाहके ऊपरकृपाकरके पडिक्कमणमें तिसको अजियंजियसबभयं ?
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यहस्तोत्रदीया, तथा अणहिलपत्तनके विषे, बोथरागोत्रीय श्रावकोंको जयतिहुअणवरकप्परुक्ख जयजिणधन्नंतरि यह स्तोत्रदीया फेरगुरूमहाराजमेडतानगर के विषे, गणधर चोपडागोत्रीय श्रावकांकों उवसग्गहरं पासं यहस्तवनदीया, फेरजलउपरकंबली तिराणा वगेरे प्रकारकरके पंचनदी पंचपीरसाधक' संदेह दोलावली आदि अनेक ग्रंथकारक, नानाविद्यासहित, परम उपकारी परमयशसौभाग्यधारक महाप्रभावीक श्रीजिनदत्तसूरिः संवत् १२११ आषाढसुदिएकादशी के दिन अजमेरनगरमें अणशणकरके पहला सौधर्मनामादेवलोक में टक्कलनामा विमान में ४ पल्योपमके आऊखे महर्द्धिक देवतापणें उत्पन्नभए, ॥ यदुक्तं भणियं तित्थयरेहिं, महाविदेहे भवंमितइयंमि, तुह्माणं तेगुरुणो, मुक्खेसि
मिस्संति ॥ १॥ टक्कलयंमिविमाणे, संपइ सोहम्मकप्प मझंमि, चउपलिओवमआउ, देवो जाओ महडीओ ॥ २ ॥ श्रीजिनवल्लभसूरिजी पट्ट प्रभाकर श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजके शिष्यादि सर्वसंघकेसामनें देवतानेंआय के ऐसावचनकहा, इसीतरेवडे प्रभाविक श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजकों बडादादाजी के नामसें सर्व संघपूजनें ध्यावणेलगे, ॥ ४४ ॥ इतिकोटिकगच्छपट्टावल्याम् अथयुगप्रघानसूरीणां क्रमोऽस्माभिजीर्णप्रतौ यथादृष्टं तद्यथा श्रीवीरे मोक्षंगते संवत् ३७५ वर्षेवल्लभीनगरी भंगोजातः श्रीवीरे मोक्षंगते ४७० विक्रमादित्य संवत्सरोजातः, ५०० वर्षे वयरखामि जन्म ५४४ जटाधरमतं निर्गतं आलंभिकायां, अथ विक्रमकालात् सं० १०८ श्रीशत्रुंजये जावडेन श्री ऋषभदेव प्रतिष्ठां उद्धारितंच ६०९
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क्षपणकमतं दिगंबरमतम् रहवीरपुरे निर्गतं, ९८० तत्पश्चात्प्रवचनप्रभाकः पुस्तकानांलेखयिता श्रीलोहित्याचार्यशिष्येण वल्लभीवाचना कृता, अर्थात् वल्लभीनगर्योपुस्तकवाचनासंजाता, ९९३ श्रीकालिकाचार्यैश्चतुर्था श्रीपर्युषणापर्वकृतम् , तत्पश्चात् अपश्चिम पूर्वश्रुतवित्सत्यमित्रसूरयो जाताः विक्रमात् ५८५ श्रीहरिभद्रसूरिसंजाता, जैनप्रकरण १४४४ कर्ता चित्रकूटनगरे बौद्धाणां आकर्षणं, तथा हंस परमहंसौ संग्रामे हते सति विद्याप्रभावात् तेषांपुस्तकं श्रीगुरूणा मंतिके समागतम् , तस्मिन् पु० बौद्धशासनसत्कं साम्नायं बृहच्छन्ति वसुधारा घंटाकर्णादि समागतम् , इतिगीतार्थाः ब्रूवन्ति, छठासइकामें पंचशतप्रकरणकर्ता श्रीउमाखातिः संजातः तत् पश्चात् भाष्यकारोजातः तच्छिष्यो शीलांकाचार्योजातः १३०० श्रीवप्पभट्टसरि
संजातः, तत क्रियोद्धारकृत् श्रीदेवसरिः जातः ततः चतुरशीतिगछस्थापकाः श्रीउद्योतनसूरयोजाताः, ततः युगप्रधानपदविभूषितखरतगछः श्रीजिनेश्वरसूरिः जातः, १०८० श्रीअणहिल्लपुरपत्तने श्रीदुर्लभराजसमक्षश्रीजिनेश्वरसूरिभिः संप्राप्तं खरतरविरुदं, ततः खरतरगछे नवांगवृत्तिकृत् श्रीअभयदेवमरिः जातः, ११५९ पूर्णिमिकागछोजातः, १२१४ आंचलिकानांगच्छनिर्गतः, १२३३ आगमिकोगणः संजातः, १२३६ सार्धपूर्णिमिकागणोजातः, संवत् १२८५ आघाटपुरेतपगछो जातः गच्छमतशब्दयोर्विशेषार्थस्तुएवंआख्यायते येषां समकाले श्रीउद्योतनसरिभिःविहतावासक्षेपानामरिणांयासंततिः सागछशब्देनोपलक्ष्यते गछोत्पत्तेः पश्चात् प्राचीनं स्वगुरुजनाम्नायं परिहत्य स्वकल्पनानुसारेण ये निर्गताःते मतशब्दे
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नोपलक्ष्यते तद्यथा १ संवत् ११६५ मे मतान्तरसे १२१३ या १४ में आंचलीया, २ संवत् १२५० मे पूर्णिमा पक्षीया, पूनमीया सार्धपूनमीया, ३संवत् १२८५ मे चित्रवालगछसें तपगछभया, ४ संवत् १५२४ अथवा २८ में लौंकामत भया, संवत् १५२४ में ५ कडवा मत, ६ संवत् १५३१ में गुजराती लुंका भया, ७ संवत् १५७० में बीजामती भया, ८ संवत् १५८५ नागोरी लौंकामत भया, इसी अरसेमें ९ पाटणीया मती, १० सागरमती, ११ कोथलमती १२ आत्ममती १३ पायचंदमती, १४ चिंतामती, १५ आगमियामती, १६ काजामती, १७ शाकरियामती, १८ संवत् १६१७ में धर्मसागरसें तपामती हुवा, १९ ढूंढीयामती भया १७०० में, २० संवत् १८१५ में तेरापंथी मत भया, २१ त्रिस्तुतिमतं १९२४ में भया, इत्यादि अनेक मतमतान्तर हैं, गच्छेषु प्रायशः चतुर्थी सांवत्सरिक प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति, प्रायशः मतेषु पंचम्यां सांवत्सरिकं कुर्वन्ति, अधुना एतेषां मतानामपिगच्छशब्देन उपलक्षणं कार्यते, इति दृश्यते श्रीवीरायुः ७२ वर्षे श्रीगौतमायु ९२ तत्पदे १ श्रीसुधर्मास्वामितत्पदे २जंबूस्वामितत्पदे ३श्रीप्रभवसरिः तत्पदे ४श्रीशय्यंभवसूरिः तत्पदे ५ श्रीयशो भद्रसरिस तत्पदे ६आर्यसंभूतिविजयसूरि तत्पदे ७ श्रीभद्रबाहुखामितत्पदे ८ श्रीस्थूलभद्रस्वामितत्पदे ९ श्रीआर्यमहागिरितत्पदे १० आर्यसुहस्तिसरिः श्रीसंप्रतिराजा प्रतिबोधक सवाकोटिबिंब सवालक्ष प्रासाद३३ सहस्र जीर्णोद्धार ९५ सहस्र पित्तलमय प्रतिमा ७०० दानशालामंडावी' पहवा संप्रतिराजाप्रतिबोधक' श्रीआर्यसुहस्थिसूरिः ११ श्रीकालिकपरिः श्रीसंडिलमूरिः १२ श्रीरेवतीमित्रसरिः १३ श्रीधर्मसरिः १४
२७ दत्तसूरि
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श्रीगुससरिः १५ श्रीआर्यसमुद्रसूरिः १६ आर्यमंगुसरि १७ श्रीआयसुधर्मसूरिः १८ श्रीमद्रगुतमरिः १९ श्रीवयरखामि २० श्रीआर्यरवितरिः २१ श्रीदुर्बलिकापुष्पसरिः २२ श्रीआर्यनन्दिररिः २३ भीआर्यनागहस्तिसूरिः २४ श्रीआर्यरेवंतमित्रसरिः २५ श्रीब्रह्मद्वीपपरिः २६ श्रीस्कंदिलसूरिः २७ श्रीहिमवंतसूरिः २८ श्रीनागार्जुनवाचकरिः २९ श्रीगोविंदवाचकमरिः ३० श्रीसंभूतिदिन्नवाचकसरिः ३१ श्रीलोहित्यसूरिः ३२ श्रीदूषगणि ३३ श्रीदेवगिणि ३४ श्रीउमाखातिवाचकसरिः ३५ श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रवणमरिः ३६ श्रीहरिभद्रमरिः श्रीवीरात्सहस्रवर्षेहवा' १४ शत ४४ प्रकरणकर्ता, श्रीदेवमूरिः ३७ श्रीनेमिचंद्रसरिः ३८ श्रीउद्योतनपरित ३९ सुविहितचक्रचूडामणि मालवदेश ढुंती श्रीशनंजययात्रा जाता अर्धरात्रे आकाशे रोहिणी सकटाकार नक्षत्र मध्ये बृहस्पतियें प्रवेशकखोदीठो, सूरिमंत्रधारी थापीजे, तो गछवृद्धिथाय, बद्धो मांडलियो लघुशिष्य जागतो हूंतो वासचूर्णपिणकन्हें नहि, गोच्छगणकचूर्ण लूंकडीयावडवृक्ष नीचे थाप्या, श्रीवर्धमानहरिः४० प्रभाते गुरु कझो भाग्यवंत होस्ये सर्व पगे लागा, एकदा विमलमंत्री श्री. वर्धमानसरिजीने कहो हूं थाहरो श्रावक हो, जो अर्बुदतीर्थ प्रकट करो, सवाकोडि परिमंत्र जाप आंबिल छम्मासी सीम, धरणेंद्र प्रत्यक्ष दर्शन दीधो, कुमारी कन्या हाथे फूलमाला जठे पडे, धरती क्षिणता आदिनाथ प्रतिमा प्रगट थास्ये, ब्राह्मणना मुख विछाव थया, द्रव्यसटे धरती देखा तिवारे मैणपाथरीफदीयामुक्या
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चिहुंदिसा विचाले ठालीरहे, पांचमोवली मूक्यो पांचेफदीएटको कहांणो, विमलमंत्री श्रावक हुवो, विमलवसहीकरावी, एकदा सरसे पाटण विहार करतां चोमासरहा, जिनदास बुद्धिदास ब्राह्मण सासणदेवता गुरुनें कह्यो रात्रे आवी प्रभाते वादथास्ये, मस्तकमा माछलीनीकलस्ये तुझे वादे जीतस्यो जीत्यां शिष्यथया, जोग्य जाणी संवत् १०८० मे श्रीजिनेश्वरमरि थाप्या, ४३ अणहिल्लवाडे चैत्यवासीयां थी बादकरी खरतर विरुद पाम्यो, कमला काहाणा "चोरासी आचार्य दससे असीए वरसे नयरपाटणि अणहिलपुरे, हूवे वादसुविहित चेहवासी सुबहुपरे, दुर्लभनरवैइसला समुख जिण हेलैजित्तो, चैत्यवास उत्थापि देशगुजरहविदित्तो, सुविहित गछ खरतर विरुद दुर्लभनरवइ तिहादीयो, वर्धमानपदेतिलो, मरिजिनेसर गहगह्यो" इति खरतर विरुदं प्रासं गछ स्थापना जिनेसरपदे श्रीजिनचंद्रसूरयः दिली आया मोजदीन पीजारेने बेटेनें कह्या दिलीपति होस्से तदपीछेमोजदीनपतिसाहदिली. नोधणी हवो वाद धनपालश्रीमालपतिसाहरी वेगमर्ने गुदराया दिखाये) पति साह पेसारोकीयो नगरमांहि पधाखा ते श्रीमहतीयाण गोत्रीया दोयकुं नमस्कारकरे, जिनवर के जिनचंद, पद्मावती प्रत्यक्ष थइ चोथे पाटताहरो नाम देज्यो, तीये कारणि चोथे पाट श्रीजिनचंद्र सूरिजीनाम कीजेछे, तत्पदे श्रीजिनअभयदेवमूरिः४५ श्रीथंभणपार्श्वनाथजी प्रगटकीधा, श्रीनवांगीतिसूत्रधार जयतिहुअणबत्तीसीकारक, गाथा २ दोय भंडारी इत्यादिसंबंध जाणिवो यतः
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'भणियंतित्थय रेहिं' महाविदेहे भवम्मितइयंमि, तुह्माणचेवगुरुणो, मुकं सिघं गमिस्संति || १ || श्री अभयदेवसूरिपदे संवत् १९६७ वर्षे आषाढ वदी ६ श्री चित्रकूटे पट्टाभिषेकः श्रीजिनवल्लभसूरि : ४६ श्रीपिंडविशुद्धि प्रकरणादिकर्त्ता चित्रकूटे चामुंडादेवी प्रतिबोधी २५ काव्यकरी सम्यक्तधारणीकीधी, अन्यदावागडदेसे १८ सहस्र श्रावककीधा, तीयेरे, महुकराखरतरशाखानीकलीते सोरठदेसे प्रसिछे, संघपट्टी प्रकरणकीधो, पंचतीर्थंकर स्तवन, भावारिवारणवीरस्तवकर्त्ता जांणिवा, तत्पदे श्रीजिनदत्तसूरिः तत्पदे श्रीमणिमंडितभालस्थलजिनचंद्रसूरिः तत्पदे पत्रिंशदवादी जेता श्रीजिनपतिमूरिः इत्यादिक्रमसे, प्रत्यक्षसिद्धपद्मावती श्रीजिनप्रभसूरिः श्रीजिनमाणिक्यसूरिः पदविभूषितश्रीजिनचंद्रसूरिः, इति श्रीयुगप्रधान सूरिणां स्थविरावली " इयं भिन्नभिन्नगच्छोत्पन्नयुगप्रधानस्थविराणां स्थविरावली नतु एकगच्छोत्पन्नानां स्थविराणामिति, विशेषस्तु संप्रदायतो ज्ञेयमिति, अथराजगच्छाधिकारोवर्ण्यते, तिहांप्रथमयुगप्रधान श्रीजिनदत्तस्वरिजीने दशदशहजारकुंटुंबसहित ४ राजाओंको प्रतिबोधे इस - तुझें श्रीजिनदत्तसूरिजीका राजगछभया, तत्संबंधो यथा - चालोसंघ सबपूजनकूं गुरु समस्या सनमुख आवतहेरे ' ॥ चा ० ॥ आनंदपुर पट्टन कोराजा गुरुशोभासुण पावत हेरे ॥ चा० १॥ भेज्यानिजपरधानवुलाणें नृपअरदास सुणावत हेरे ' ॥ चा० ॥ लाभजांणगुरुनगरपधारे भूपतिआय वधावतहेरे ॥ चा० २॥ राजकुमरकोकुष्ट मिटायो अचरजतुरत दिखावतहेरे ॥ चा० ॥
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दशहजारकुंटुंबसंगनृपकू, श्रावगधर्म धरावतहेरे ॥ चा० ३॥ दयामूल आज्ञाजिनवरकी बारहव्रत उचरावतहेरे ॥ चा० ॥ एसे च्यारराजसमकितधर, खरतरसंघवणावतहेरे ॥चा० ४॥ कुष्टजलंधर क्षयभगंदर, केइयक लोकजीवावतहेरे' ॥चा० ५॥ ब्राह्मणक्षत्रिय अरुमाहेश्वर, ओसवंस पसरावतहेरे । चा०॥ तीसहजारएकलख श्रावक, महिमा अधिकरचावतहेरे ॥ चा० ६॥ इत्यादि अधिकारजाणना" औरचंदेरीकेराजाखरहत्थसिंहराठोड इसकुं चंद्रपुरपट्टनवि कहेतेहैं, श्रीलोद्रवपुरपट्टनके चंद्रवंशी राजपूत सागररावलकेसंतानसिंधदेशमें एकहजार ग्रामोंके भाटीराजपूत राजाअभयसिंहको तथा धारानगरीकाराजापृथ्वीधरपँवारराजपूतके संतानीय जोबन और सचूनामक कुमारोंकों, सोलगराचौहान राजपूत राजारतनसिंहके संतानीयधनपालकों, पालीनगरमें राजपूतजातिककाकू और पाताकनामक विशेषमहर्द्धिकदोभाईयोंको, पूगलकाराजा भाटीराजपूत सोनपाल तथा उसका पुत्रकैलणदेनामकाथा उसको, मुलताननगरमें मुंधडामहेश्वरी हाथीशाह राजाकादेशदीवानथा उसको प्रतिबोधके श्रावककिया आनंदपुरपट्टन विगेरे ४ महाराजाओंको दशदशहजारके परिवारसहित श्रावकधर्मधराणेसें, इत्यादि अनेक बडेबडे राजपूतमहर्द्धिक, राजा महाराजा दीवान वगेरेको प्रतिबोधणेसें खरतरविरुदधारक युगप्रधान श्रीजिनदत्तमरिजीका राजगछभया, और महाराजाविगेरेका विशेषस्वरूपगोत्राधिकारमें आगे दियाजावेगा, इसके सिवाय क्षत्रियवैश्य ब्रामण शूद्र ४ वर्णवालोंको प्रतिबोधके घरकुंटुंबकी संख्या
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श्रावक किये और खरतरविरुदधारक युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजीके पूर्वजोंने तथा इनोंके संतानीय आचार्योंने श्रीमाल ओसवाल पोरवाल हुँबडजैनश्वेताम्बरवंशजातिकी विशेष वृद्धि कीहै और युगप्रधान श्रीजिनदत्तमरिजीस्थापित संक्षिप्तगोत्रखरूप यह है ॥
अथ अंबाप्रदत्तयुगप्रधानपद श्रीजिनदत्तसूरिजीए तीस हजार एक लाख घर कुटुंब गोत्रबद्ध श्रावक प्रतिबोध्या तिणरो सरूप लिखे है ।
॥श्रीसुधर्माखामिजीकी परंपरामें श्रीकोटिकाख्यगच्छमें अपर नाम श्रीखरतरगच्छ श्रावकोंका गोत्र संक्षेपपणें लिखेहै ॥
१ श्रीरायभंडसालीमंडणश्रीआभूसाषिबद्धगोत्रखरतर सोलंकी रजपूत २ श्रीथेरुमणसालीबद्धगोत्रखरतर देवडारजपूत ३ कांकरीया गोत्रबद्ध खरतर भाटी रजपूत ४ बोथरा गोत्र बद्ध खरतर देवडा रजपूत, मल्हाडा अडक फोफलिया ५ करमदीया गोत्र बद्ध खरतर ६ मणहेडा बद्ध गोत्र खरतर ७ नवलखा १० नी दिहाडीवाला खरतर साहणे साहाथी ८ बेगड छाजेड १० नी दिहाडीवाला खरतर सं. १२४५ खेडेचा राठोड ९ धांधली धरण साहथी खरतरहूया १० ब्राझेचा १० री दिहाडीवाला खरतर पमार रजपूत ११ सांवणसुखा बद्ध गोत्र खरतर सिंधू ओष० सांउसुषे मिलेसो बद्ध गोत्र खरतर १२ डांगी गोत्र तथा डॉगि गोत्रमध्ये काजलोत सर्व खरतर गहलोत सापी १३ रांका सेठीया तथा काला सर्व खरतर १४ पृथडा इशल बद्ध गोत्र खरतर १५ कुकड चोपड़ा बद्ध गोत्र खर
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तर १६ पडिहार मंडोवरा कोठारी राव चांडाथी कहाणा बद्ध गोत्र खरतर १७ गणधर चोपडा बद्ध गोत्र खरतर कायथ हिंसारी १८ पीतलीया गोत्र १० नी दिहाडीवाला खरतर १९ कान्हउडा पद गोत्र खरतर २० गुंदवछा मुहता १० री दिहाडीवाला खस्वर २१ बैतालीयां बद्ध गोत्र खरतर २२ नाहटा तथा वाँफणा घुल्लत ते सवे १० री दिहाडीवाला खरतर १३ शापि २३ सोनगरा १० नी दिहाडीवाला खरतर २४ वुच्चा बद्ध गोत्र खरतर २५ वेदवोहड वर्तमान शाखा बद्ध गोत्र खरतर सेवडीया २६ शंखवालेचा कोचर संघवीना केडारा खरतर चहुआंण रजपूत २७ माल्हू बद्ध गोत्र खरतर कनोजीयाराठोड २८ लोढा १० दिहाडीवाला खरतर, राया १ कष्ट २ चहुआंण रजपूत देवडा नांडलाईवाला खरतर २९ वरडीया मध्ये दरडा बद्ध गोत्र खरतर ३० चण्डालीया १० नी दिहाडीवाला गोत्र बद्ध खरतर ३१ आयरीया बद्ध गोत्र खरतर ३२ ढीकबद्धगोत्र खरतर ३३ सीसोदीया नाडलाईवाला खरतर ३४ मांडूगरेचा बद्ध गोत्र खरतर ३५ फलसा बद्ध गोत्र खरतर फूसला खरतर ३६ भाटीया बद्ध गोत्र खरतर ३७ सोनी अडक गोत्र खरतर ३८ पंचकुंदाल बहुरा बद्ध गोत्र खरतर ३९ नवकुदाल बहुरा बद्ध गोत्र खरतर ४० मेलडा बद्ध मोत्र खरतर ४१ महतीयांण लघुशाखा औसवाल खरतर ४२ खाटहड १० दिहाडावाला खस्तर ४३ माधवांणी मोत्र खरतर मदारीया मध्ये छे ४४ राखडीया बहुरा गोत्र कटारीका गोत्र खरतर देवलवाडा मध्ये ४५ लूणीया बद्ध गोत्र खरतर मुंबडा महे.
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सरी विकमपुरे प्रतिबोध्या ४६ डागा गोत्र बद्ध खरतर मुंधडा महेसरी तथा राठी महेसरी ४७ भाभूपारिख झोहरीया गदहीया सेहत भूरा रहड बद्ध गोत्र खरतर राठी महेसरी ४८ पूथडा मालवीया जांगडा डागलीया चम्म गोलवछा वलाही ४९ वाँफणा १० नी दिहाडीवाला खरतर ५० जांगडीया मगदीया धाडीवाहा वेद दोसी दरडा गोत्र खरतर महेसरी कोटीभोडा ५१ जांगडा बवूकीया गोत्र खरतर ५२ पोरवाड पंचाइणेचा बद्ध गोत्र खरतर ५३ मलढीया गोत्र खरतर लघुशाखी ५४ गांधी गणधर चोपडलघुशाखी साचोरा खरतर ५५ वरढीया गोत्र बद्ध खरतर ५६ नाहटा बद्ध गोत्र खरतर पमार रजपूत ५७ दोसी खरतर ५८ पारिख अबीद्ध पमार रजपूत ५९ तेलहरा खरतर कोठीफोडा खरतर ६० धाडीवाल गोत्र खरतर ६१ घीया गोत्र खरतर सीसोदीया रजपूत ६२ बूबकीया गोत्र खरतर पडिहार रजपूत ६३ मिनी गोत्र खरतर ६४ भाटीया गोत्र खरतर ६५ सेवडीया गोत्रखरतर ६६ कटारीया अडक खरतर ६७ आकोल्या अडक खरतर ६८ श्रीपन्ना अडक खरतर ६९ सोझतीया अडक खरतर ७० मेनाला अडक खरतर ७१ सालेचा बुहरा अडक खरतर ७२ सांवखा ९८ गोत्र खरतर ७३ वछावत बद्धगोत्र खरतर ७४ महेसरी फोडा बद्धगोत्र खरतर ७५ दुगड ते बद्धगोत्र खरतर देवलबाला मध्ये ७६ फोफलिया, अडक खरतर बापणारी साखि १४ गोत्र बाँफणा १ घुल २ पोरठाड ३. हुंडीया ४ जांगडा ५ सोमलीया
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४१३ ६ वाहंतीया ७ वसाहा ८ मीठडीया ९ वाघमार १० भाभू ११ धत्तुरीया १२ नाहटा १३ मगदीया १४ एचवद शाखा एकगोत्रे मिले सो सब बद्धगोत्र खरतर मुंधडा माहेसरी माहेसुं नीकल्या सांवसुखा गोत्रमाहे इतरागोत्रमिले सांवणसुखा १ गोलछा २ पारिख ३ चोरवेडीया ४ बूचा ५एपांचसगाभाई चम्म ६ कक्कड ७ सेल्होत ८ गादहीया ९ भटाकीया १० नाबरीया ११ बबूकीया १२ पूथडा १३ नालेरीया १४ सिंदूरीया १५ कुंभटीया १६ सापाला १७ सभ्राप १८ चाहिल १९ मूंघडा २० नींबाणीया २१ सींपड २२ कुरकचीया २३ ए तेवीसगोत्र एकशाखेमिले बद्धखरतर जडीयागोत्रउत्पत्तिः यथासवालखदेशेकुभारीनगरे यादवकुलघररे राँणी ३२पिण संतान नहीं पछेश्रीपद्मप्रभसूरिना चरणधोवणनोपाणी नित्यपीयां पुत्रहूवा' तठासु प्रतिबोध २१ मीलीयां देवरीयात्राहूवे तिणसुं माथे जटाघणीरहै तिणसुंजडीयागोत्रहूवो १ लोढागोत्रोत्पत्तिर्यथा-संवत ७०१ भट्टारक श्रीरविप्रभसूरिये लखोटीयो माहेश्वरी लाखणसी प्रतिबोध्यो वधूकंठे वर्णमयलोढकस्साभरणं कारापितं तेन लोढा इति गोत्रं जातं ऊधरणसाहरा केडाइत १२४५हूवा बारसयपणयाले विकम संवछराओ वओलीणे, उद्धरण साह पमुहाछाजहडा खरयरा जाया इति छाजेडगोत्रोत्पत्तिः १ आदित्यनामगोत्रे गादहीयानीलुटत्त शाखायां सचीया गोत्रजा पूर्व भीनमाले संवत ११०८ पूर्व भीनमाले सा० भंसातेन देवगुप्तसूरयः स्थापिताः सप्तलक्षद्रव्यं व्ययीकृतं ततो डिंडभपुरे भैसा भार्यातयायात्राकृतासचिका वरदानात छगणकस्थापितानिगुरूपदेशात्
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तज्वालने रूप्यं जातं, तेन प्रासादः कारितो गर्दभमुद्राथ कारिता: तदनंतरे सा० असाख्यस माता श्रीशझुंजय यात्रायै गता पत्तने व्यवहारिणां पुरउद्धारकतया द्रव्यं याचितं तैरुक्तं त्वं कासि तयोक्तं भंसाख्यस्थमाताहं तैः प्रोक्तं भंसाऽसद्गृहे जलं वहन्ति तथा पत्रेणोपहासो ज्ञापितः, मदहिया नाणकेन रूपारेलेतिवरदानं दत्तं तदा गदीया शाखायां पीपाडपुरे चैत्यं कारितं तसात् पीपाडेतिशाखा निर्गता पीपा डामांहिसुंगोगडशाखा नीसरीगोगड बेटेरेनामे पीपाडागोत्रोत्पत्तियथा पीपाडनगरे गोहिलौतवंशे करमसिंह प्रतिबोधितः श्रीजयशेखरसूरिभिः सिकारजायआयोथो रातेचूरमो खातांकीडीयां मुंहडे मूछांलागी' पछेदीवेसुंजांणी पछे प्रतिबोधहूवो, तिणसुं पीपाडागोत्रे अच्छुप्ता माता पूज्यते इतिपीपाडागोत्रोत्पत्तिर्जाताश्संवत् ११०१ पूर्व उपकेशवंशीयाः सहल श्रावकत्वं जातः तस्य पुत्र ४अंबदेव१ बलदेव २ असेत्याहः शुभः, अंबरा चोरबेडीया तिणमें प्रतिशाखा १८ नींवरा भटनेर चोधरी भैसरा गोलव ॥ जांबड गोत्रोत्पत्ति यथा जांबड गोत्रे पूर्व राजपुत्र यादव पूर्व मंडलीक गोत्रे ततो मत्तोष्ट्र देख जर्बट विदारणात् जांबड इति ।
छजलाणी गोत्रोत्पत्ति यथा यदा चैतेषां राजपुत्रेभ्यः श्रावका: कृताः तथापि कुलदेवी पशुमेव षष्ठेमासि नवरात्रिषु नवछागान् बलिं याचते तदा गुरुभिर्विद्याबलेन सा कृष्टा वाचां गृहीत्वा मुक्तास्तद्वचनेन जायलनगरस कूपमध्ये निक्षिप्ता एतेषां वंशीयः कोपि तं कृषकं न पश्यति तद्दिनात् गोत्रजा देवी न पूज्यते ।
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तत्रवंशे प्रथमतो जायलनगराधीश राजपुत्र राउत वीरसिंह : प्रतिबोधितः सचातीवा खेटकाशक्तः तस्मिन् समये श्रीजयशेखरसूरिः नागपुरात् विहारं कुर्वन् तत्र वने स्थितः तदा तेन आखेटकात् आगच्छता दृष्टास्तेनोक्तं ग्राममध्ये समागच्छन्तु तदा गुरुमिः प्रोक्तं आखेटकशपथं करोषि तदा ग्राममध्ये समागमिष्यामः तदा तेन गुरुवचसा कथंचित् शपथं कृतं गुरवः ग्राममध्ये समागताः ततः प्रतिदिनं गुरुपार्श्वे समायाति ततः रात्रिभोजनं त्यक्तं ततः क्रमेण श्रावको जातः कटोतियागोत्रे अजमेरा ब्राह्मणः ॥ संवत् १२ - १३ भद्रेसर गाममां है नरसिंहगुरुना उपदेसथी साह श्रीसोल्हा पुत्रजगडू अन्नदाता रायासाधार विरुदो विख्यातः ॥ श्रीमालवंशे बीजोजगडू ललवाँणी माथासरो मंडोवरे साह श्री हेमराज साल्हावतगोत्र पोकरणा वास चौकडी सिहारे तिणरो कवित्त गयौ माहनि ६ संवत् १२३६ श्री धवलनगरे वीरधवलराज्ये श्रीवस्तुपालतेजपालः संजातः मूलसंबधः अणहिल्लपुरपाटण साह आसराजपिता मातासुरानुवास्तव्य साह आभूसुता कुँअरि तत्र साह आसराजमेलापकसंबंधः, श्रीहरिभद्रसूरिणा कृतः पोरवाडगोत्रे पाटणनगरे राजारामुंहता था संवत १२९९ वर्षे वस्तुपाल स्वर्गगतः तदनु तेजपाल १० वर्षे स्वर्गे गतः ।
॥ अथ साढीवारे ज्ञातिः श्रीमाले १ उवएसवालनगरे २ पल्लीपुरे ३ मेडते, ४ वग्धेरे ५ वरडिंडुयाणनगरे ६ षष्ठेलके ७ मायले, ८ राजन् हर्षपुरे ९ नराण नगरे १० टिंटोलके ११ पुष्करे १२
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पंड पंडेल स्थिता दशमिताः सार्द्धद्वया पंक्तयः ॥ १ ॥ इति यथादृष्टं लिखितं मया नास्त्यत्र दोषोमे ।
।। संवत् ९९४ वर्षे श्रीउद्योतनसूरिणा सिद्धवटतरोरध ८४ आचार्यान् स्थापितवान् तेच श्रीवर्धमान, सर्वदेवादयः ज्ञेया तेर्षा ८४ शाखा विस्तीर्णा जाता अवि, द्वितीयपक्षे, बृहत् वटतरोर्मूले अष्टौ आचार्यान् स्थापिताः तेषां क्रमेण ८४ शाखा विस्तीर्णाः श्रीवडगछस्थापक: जंवड, दुगड, गोखरू, पोकरणा, वरडीया, रूणवाड, हींगड, श्रीमाल, डूंगरीया राँक्याँण, तवभोया, मालविया, मालपुरा, प्रतिबोधकः ।
॥ अथ श्रीसूरिभिर्निजगछीया ये श्राद्धाः प्रतिबोधितास्तेषां नामानि लि० तत्र ओसवालगोत्राणि यथा - जंबड घिन्ना १ लोढा २ छजलाणि ३ वेगवाणि ४ डांगर ५ नाहर ६ दूगड ७ गोखरू, चौधरी ८ पीपाडा, गोगड ९ जोगड, संघवी १० रूणवाल, ११ जडिया', १२ तेलखाण १३ हींगड, लिंगा १४ नवलखा भूतेडिया १५ बहुराछत्री, बहूरामट्टा, रायबहूरा, सुरहीयाबहूरा, १५ सोनी सोनीगरा बूंजडिया गंगोदरा सुरहीयासोनी सेठीयासोनी १६ छोहरीयालाडा १७ चंडालिया १८ सांखुला १९ कठोतिया २० सूख्या २१ पोकरणा २२ बंभ २३ वरहडिया २४ इत्यादि ओसवालगोत्राणि अथ श्रीमालगोत्राणि लिख्यंते इंगरिया १ रांक्यांग २ नवलखा ३ माधलपूरा ४ मालविया एते ५ चहुअण श्रीजयशेखरसूरि प्रतिबो० माधल पुरा रह्या सो माधलपुरा श्रीमाल ४ गर्दणा, गाथा, गोयम सोहमजंबु, पभवापमुहआयरिया, तुमदिहं ते
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४१७ दिहा वंदियाते सव्वे आयरिया ॥ १॥ श्लोक, येषां हि वस्त्रे न पतन्ति यूका, न देशभंगः खलु येषु सत्सु, पादोदकेनापि गदोपशान्तियुगप्रधानं मुनयोवदन्ति ॥४१॥ दूहा, पंचमआरे जे थया, दोपहजारनेचार, जुगप्रधानमुनीसरु, तेठेजगआधार ॥ १ ॥ जुगप्रधान मुनीसरु, वरतमानश्रुतधार, दुप्पस्सहसरिलगे, दशवैका लिकधार ॥२॥ षव्रतधारी षट्पदे, लेता शुद्धाहार, जुगप्रधानश्री जंबुये, पूच्छया अर्थविचार ॥ ३ ॥षव्रतधारी महामुनि, जंबुजुगप्रधान, सामी सुधरमानें नमी, पूछे अर्थनिधान ॥ ४ ॥ कहे सोहम जंबुसुणों, ज्ञातासुअखंघदोय, उगणीसअध्ययनअछे, पदसंख्याता जोय ॥५॥ ढालपहिली, भवितुमे पूजो जुगप्रधान सुधरमा जगधणीरेलोल, भवितुमे प्रथमउदये सूरिवीसके, जंबुजगमणीरेलोल, ६, भवितुमे प्रभवादिक गुरुराजके, पाटे सोभतारेलोल, भवि तुमे सेवो थइ सावधानके, मिथ्यामतिखोभतारे लोल, ७, भवितुमे बीजेउदये तेवीसके, आचारजखरारे लोल, भवितुमे वयरसेन नागहस्तिके, रेवतीमित्रभलारेलोल, ८, भवितुमे तीजे उदये अठाणुंके, जगमा दीपतारेलोल, भवितुमेपाडिवयादिक जेहके, जगमणीजीपतारेलोल ९, भवितुमे हरिस्सह धरणसूरीसके, नागमित्र कह्यारे लोल, भवितुमे चोथे उदये मनलावोके, अठोत्तरलह्यारेलोल, भवितुमे पांचमे उदये सुजाणके. पंचोत्तर कह्यारेलोल, भवितुमे नंदमित्र जेष्टपुत्रके, नैषदसूरिथयारेकलोल, १० "भवितुमे छठाउदयनीवातके, सुणीनन्यासीमनराचसोरेलोल" भवितुमे सूरसेन सरिदत्तके, कुलध्वजमाचसोरे लोल, ११,
गमणी जगधीरेलोला । ढालपहिलालाय, उगणीस
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४१८
भवितुमे सात उदये सुभावोके, सो गणपतिभलारेलोल, भवितुमें रविमित्र इंद्रलाभके, उग्रदत्तसूरीसरारे लोल, १२, भवितुमे आठमे उदये अवधारोके, सत्त्यासीकारे लोक, भवि तुमे श्रीप्रभ श्रीकुणालके, गंमीरदत्तथयारेलाल, ॥ १३ ॥ भवितुमे मणिरथ श्रीविश्वभूतिके, वसुपाल लोहपतिरे लोल, भवितुमे नवमे उदये एम जाणोके, पंचाणुं मुनिपतिरेलोल ॥ १४ ॥ भवितुमेदसमें उदये एम पावोके, सन्यासी गणधरुरेलोल, भवितुमे सोममित्र नागिलके, फल्गुमित्र मुनीसरुरेलोल ॥ १५ ॥ भवितुमे इम्यारमे उदयनवाणीके, चित्तधरजो सदारेलोल, भवितुमे धनसंग भरतसूरींदके, सुरदत्तछोतेर भलारेलोल, ॥ १६ ॥ भवितुमेबारमे उदये हितकारीके, अय्योतेर गणपति रेलोल, भवितुमे श्रीसत मित्रसूरीसके, भवान गणधर थयारेलाल || १७ || भवितुमे प्रमोदगणी पसायके, उद्योतकखोरे लोल, भवितुमे दानदेह दयापालिके, सोभाग्यपणं लह्योरेलोल ॥ १८ ॥ इतिश्रीप्रथमढाले युगप्रधान ९०६ ॥ अथ ढाल बीजी || श्रीधम्मिल्लसूरिथया श्रीकारजो, तेरमे उदये चोरां परिवारजो, सोमदेवसूरी कृष्णरथका भलाजो, ॥ १९ ॥ चवदमो उदय सुणिजो, हवें भविलोकजो, एकसो आठ थया सूरिना थोकजो, विजयानंद जुगप्रधान सूरीश्वराजो ॥ २० ॥ पनरमाउदयनी वातछे मोहोटीजो, सुमंगल उदये सूरीरयणायरुजो, एकसो तीन गणधरुजो ||२१|| सोलमो उदय धारोतमे भविप्राणीजो, एकसो सात युगप्रधाननी खाणी जो, धर्मदेव श्रीदेवसूरीजो ॥ २२ ॥ सतरमो उदय छे ते जयकारजो, एकसो चार थयाछेते सूरिराय जो, जयदेवसूरि, देवधन
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कर्म सूरीकया जो, ॥२३॥ अढारमा उदयमा छे मरीराज जो, एकसो पनरनोछे ते परिवार जो, सूरदिन शिवदिन सुभकांतथया भलाजो, ॥२४॥ उगणीसमा उदयनोछे अधिकारजो, एकसो तेतीस युगप्रधान जगसारजो, विशोधनसूरी बलसूरी सोभताजो ॥२५॥ वीसमा उदयमा आचारजमनोहारजो, सो थया तेगणजो तमे निर धार जो, कोडीसरि इन्द्रदिनसरि जुहारता जो ॥२६॥ इकवीसमा उदयनी छे हवेवाणीजो, पंचा' गुणधर तारणभविप्राणीजो मथुरसरि धर्ममित्रमरि थया जो ॥ २७ ॥ बावीसमा उदयनो हवे विस्तारजो, नवा' युगपरधानथया दिल धारजो, विनयपुत्र धनपुत्र तारकदीपता जो, ॥२८॥तेवीसमो उदय भाख्यो जिनराज जो, चालीस युगपरधान ते दिलमा राखजो, श्रीदत्तश्रीनिर्वाणी सूरीसर जो॥२९॥ प्रमोगमणी उद्योत गुरुमहाराजजो, दानदयानो छ मोटो आधारजो, तपतपतां सौभाग्यपणो पामो सदाजो ॥३०॥ इति श्रीद्वितीयढाले युगप्रधान १०९८॥ सर्वयुगप्रधान २००४, ॥ अथ युगप्रधानतपविधिलिख्यते पहिलि ओलीवीस दाडानी, बीजीओली तेवीस दाडानी, एहवी रीते,
ओलीओ तेवीस, जेजे ओलीना जेटला दिवस होय ते परमाणे तेटला दिवसनी ओली करवी, तेमां छेटुने पहिलं तप आंबिल तथा उपवास करवो, बाकीना एकासणा करवा, में तेनुं काउस्सग्ग तथा खमासमण तथा प्रदक्षिणा विगेरे जेजे ओलीना दिवस होय, तेटला लोगस्सनो काउसग्ग तथा खमासमण तथा स्वस्तिक, तेटली प्रदक्षिणा विगेरे सर्व तेटला तेटला करवा, जेजे दिवसे जेजे जुग
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प्रधाननुं नाम होय, ते नामनी वीस नोकरवाली गणवीनें, छेले तथा पहिले दिवसे, जुगपरधाननी, पूजारूपानाणेथी करवीनें, साथीया उपर, नीवेद फल तथा श्रीफल, तथा बदामो विगेरे सारसार पदारथ मुंकवाने निरंतर जुगप्रधान आगल धूप तथा दीप करवाने पछी जुगपरधानना आगल निरन्तर साथीयाविगेरे करीने त्रणखमासमण दीजे, जेजे दिवसे जेजे जुगप्रधाननो नाम होय, तेजुग प्रधाननो नाम लेहने वंदणवत्तिआनो पाठकहिजे एक लोगस्सनो काउसग सागरवर गंभीरा सुधीकरवोनें पारीनें थोई कहवीने, त्यारपछी पच्चक्खाण कर, त्यारे पछे ज्ञानपदनी पूजा भणाववीनें ज्ञाननी पूजा छैलेने पहिले दिवसे रूपानाणेथी ते बीजे दिवसे पैसेथी पूजकुंनेंछेले दिवसे गुरुकरवुने, युगप्रधानपदनी पूजा भणाववीनें, वरघोडो बडा आडंबरथी चढाववो, अठाइ महोत्सव करयुं, तथा पूजा परभावना गुरुपदपूजा संघपूजा संघभक्ति श्रीगुरुयात्रा तीर्थयात्रा साहमवत्सल चोरासी तेतीस आशातनारहित विनय बहुमानादि सहिततवत्रिकनी आराधना करवी, महानिर्जरादायक दश प्रकारनी वैयावच करवी, सम्यक्त और श्रावक तथा साधुना व्रत अत्यंत निर्मल शुद्धपालवा, यथाशक्ति दानादिचतुष्क मां प्रवृत्तिकरवी, यथाशक्ति सातक्षेत्रमां धनवावरवो ( खरचवो ) एवीरीते श्रीयुग प्रधान तपनी आराधना करवाथी युगप्रधानपणुं पामे निर्विघ्नपर्णे मोक्षपदपामे सुखे धर्मनीप्राप्ति थाय, परभवे विशेष सुखी होवे || इति श्रीयुगप्रधानपदतपविधिः समाप्तः ॥
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१ उदय __ २० ॥ अवतरण-युगप्रधानसूरीसंखत्ति, एटले २ उदय २३ युगप्रधान आचार्यनी संख्यानुं बशेने चोसट्ट ३ उदय
मुद्धारकहेछे मूल जोदुप्पसहोसूरी होहिंती ४ उदय ७८
जुगप्पहाणआयरिया, ५ उदय
अजसुहम्म ৩৭
प्पभिई चउरहि आदुन्निय सहस्सा,४५१ ६ उदय ७ उदय १००
| व्याख्या-आ अवसर्पिणिए पांचमा दुषमा८ उदय
नामा आरा ने छेहडे बेहाथप्रमाण शरीर २० ९ उदय वर्षनुं आयू अने जेनातपे करीने घणाकर्मो १० उदय खप्याछेतेणेकरीने अणाहाररूप मुक्ति जेनेर्दू ११ उदय कडी थइछे अनेमात्र दशवकालिक सूत्रनो १२ उदय ७८ धरनारछतापण चउदपूर्वधरनी पेरेशक्रनेपण १३ उदय
पूजनीक एहवा समस्त आचार्योने प्रांतेथशे, १४ उदय १०८
एवाजे श्रीदुप्पसहनामा सूरी तेज्यांलगेथशे, १५ उदय १०३ १६ उदय १०७
अने पहेला श्रीसुधर्माखामी आदे समस्त प्रव१७ उदय १०४
चनना जाणथया तेने आदेलेइने ए भरत क्षेत्र १८ उदय ११५
नेविछे युगप्रधान आचार्यबे हजारने चारे१९ उदय १३३ | करी अधिक एटलाथशे एक आचार्यबली २० उदय १०० | एमकहेछे के वे हजारते चारेकरी रहित करिये २१ उदय ९५ एटले एक हजार नवसे ने छन्नुथशे, अनेउ२२ उदय ९९ क्तंच, इत्थं आयरियाणं पणपन्नाहुंति २३ उदय ४० कोडीलक्खाओ, कोडसहस्से कोडी सएय तह इन्तियाचेव ॥ १॥ एषु श्रीमहानिशीथमाहे पंचावन
२८ दत्तसूरि
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४२२ कोडी प्रमुख कहाछे, ते सामान्य आचार्य आश्रिजाणवा, त्यांजवली एम कपुंछे के एमां केटलाक गुरू श्रीतीर्थकर सरखा गुणगणसहित थशे ॥ ४५२ ॥ इति प्रवचनसारोद्धारप्रकरणे गाथार्थः॥
॥ सर्वमिलि युगप्रधान २००४ छे ते उपरोक्त विधिप्रमाणे युगप्रधानत्रयाणां सप्रश्नोत्तरा समाचारीर्यथा-ननु श्रीजिन वल्लभसूरीणां परमसंविनानां सक्रियापात्राणां का सामाचारी प्रर्वत्तते यदुपरि सर्वोपि श्रीखरतरगछसंघः प्रतिक्रमणादिक्रियां कुर्वाणोस्ति, उच्यते श्रूयतां एषां चखारिंशद् गाथारूपा तेषां सामाचारी, तथाहि-सम्मनमिउं देविंद, विंदवंदिअपयं महावीरं, पडिकमणसमायारिं, भणामि जहसंभरामि अहं ॥ १ ॥ पंच विहायारविसुद्धिहेउमिह साहुसावगोवावि, पडिक्कमणं सह गुरुणा, गुरुविरहे कुणइ इकोवि ॥ २॥ वंदित्तुचेइआई, दाउंचउराइए खमासमणे, भूनिहिअसिरोसयलाइआरमिच्छुक्कडं देई ॥३॥ सामाइअपुव्वमिच्छामि ठाइओकाउसग्गमिच्चाइ, सुत्तं भणिअ पलंबिज भुअकुप्परधरिअपरिहाणो ॥४॥ संजइ १ कविट्ठ २ घण ३ लय ४ लंबुत्तर ५ खलिण ६ सबरि ७ बहु ८ पेहा ९ वारुणि १० भुमुहं ११ गुलि १२ सीस १३ मूअ १४ हय १५ काय १६ निहलु १७ द्धा १८ ॥ ५॥ थंभाइ १९ दोसरहिअं, तो कुणइ दुहूस्सिओतणुस्सग्गं, नामिअहो जाणुहूं, चउरंगुलढविअकडिपट्टो ॥ ६ ॥ तत्थय धरेइ हिअए, जहक्कम दिणकए अईआरे, पारितुनमुकारेण, पढइ चउवीसस्थवदंडं ॥ ७ ॥ संडासगेपमझिअ, उवविसिअ लगाविअबाहुजुओ, मुहर्णतयंचकायं, पेहए पंचवीस इह
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॥ ८ ॥ उट्ठअट्टिओसविणयं, विहिणा गुरुणो करेइ किअकम्मं, बत्तीसदोसर हिअं पणवीसावस्सय विसुद्धं ॥ ९ ॥ थद्ध, पविद्ध २ मणादि ३ परिपिंडिअ ४ मंकुसं ५ मच्छुव्वंतं ६ कच्छवरिंगिअ ७ टोलगइ ८ ढडूरं ९ बेआबद्धं ॥ १० ॥ मणदुट्ठ ११ रुट्ठ १२ अ १३ सढ १४ हीलिअ १५ तेणिअ १६ भंडणीअंच
८
७
31
२१
१७
१७ दिट्ठमदिट्ठं १८ सिंग १९ कर २० मोअण २१ भ्रूण २२
२३
२४
१५
RE
૨૮
मूव २३ ॥ ११ ॥ भय २४ ॥ मित्ती २५ गारव २६ कारणेहिं २७ पलिउंचिअ २८ भयंतंच २९ आलिद्धमणालिद्धं ३० चूलिअ
99
93
કર
કર
२७
Re
३२
३१ चुडलित्ति ३२ बत्तीसा ॥ १२ ॥ उपवेसमहाजायं, दुहोणयं पयडवारसावत्ता, इगनिक्खमण तिगुत्तं, चउसिर नमणंति पणवीसा || १३ || अहसम्मवयणंगो, करजुअ विहिधरिअपोत्तिरयहरणो, परिचिंतेअइआरे, जहकमंगुरुपुरो विअडे || १४ || अहउव विसित्तुसुत्तं, सामाइअं पढिअतओ, अन्भुडिओमि इच्चाइ, पढइ दुहओ ठिओ विहिणा ॥ १५ ॥ दाऊणदणतो, पणगाइसु जइसु खामए तिन्नि, किइकम्मं किरिअटिओ, सहोगाहातिगंभणई, ॥ १६ ॥ अहसामाइअ उसग्ग, मुत्तमुच्चरि अकाउसग्गठिओ, चिंतेइ उज्झोअदुगं, चरितआइआर सुद्धिar || १७ || विहिणासम्मत्त सुद्धिहेउंच पढिअ उज्झोअं, तहसव्वलोए, अरिहंतचेइआराहणुस्सग्गं ॥ १८ ॥ काउंउज्झोअगरे, चिंतs पारेइ सुद्धसम्मत्तो, पुरकरवरदीव, कड्डूइ सोइ सोहण निमित्तं ॥ १९ ॥ पुण पणवीसुसासगं उस्सग्गं कुणइ पारए
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विहिण, तो सयलकुशलकिरिआफलाणसिद्धाण पढइ थयं ॥ २० ॥ अहसुअसमिद्धिहेउ, सुअदेवीएकरेइ उस्सग्गं, चिंतेइ नमुक्कारं, सुणइ व देई व तीइथुअं ॥२१॥ एवं खेत्तसुरीए, उस्सग्गं कुणइ सुणइ देइ थुअं, पढिअंच पंचमंगलं, उबविस्स पमझसंडासं ॥ २२ ॥ पुन्वविहिणेव पेहिअ, पुत्तिदाऊण वंदणं गुरुणो, इच्छामो अमुसदिति, भणिअ जाणुहि ताठाइ ॥ २३ ॥ गुरुथुइगहणेतिनिवद्धमाणरकरस्सरा, पढइ सकत्थयं थवं पढिअ, कुणइ पछित्तमुस्सग्गं ॥ २४ ॥ एवंतादेवसिअ, राइअस्सवि एवमेवनवरितहिं, पढमंदाउ मिच्छामिदुक्कड पढइ सकत्थयं ॥ २५ ॥ उट्टि करेइ विहिणा, उस्सग्गं चिंतएअ उज्झोअं, बीअंदसणसुद्धीए, चिंतएतत्थवि तमेव ॥ २६ ॥ तइए निसाइआरे, जहकमं चिंतिऊणपारेइ, सिद्धत्थयं पढित्ता, पमज्झ संडासमुवविसए ॥ २७ ॥ पुधिवपोत्ति पेहण, वंदणमालोअसुत्तपढणंच, वंदण खामण वंदण, गाहातिगपढणमुस्सग्गो ॥ २८ ॥ तत्थयचिंतइ संजम, जोगाण न जेण होइ मेहाणी, तंपडिवज्झामि तवं, छम्मासंती न काउमलं ॥ २९ ॥ एगाइ गुणतीसूणिअंपि, न सहो न पंचमासमवि, एवं चउतिदुमासं, नसमत्थोएगमासमपि ॥ ३० ॥ जातंपितेरसूणं, चउतीसइमाइ तो दुहाणीए, जावचउत्थं आयंबिलाइ, जापोरसिनमोवा ॥३१॥ जंसकइ तंहिअरा, धरित्तु पारितु पेहएपोत्ति, दाउंवंदणमसढो, तंचित्र पञ्चरकई विहिणा ॥ ३२ ॥ इच्छामोअणुसहित्ति, भणइ उवविसिअ पढइ तिनिथुई, निसदेणं सकस्थवाइ, तो चेइएवंदे ॥ ३३ ॥ अहपरिकअचउद्दसिदिणंमि, पुव्वं च तत्थ देवसिअं, सुत्तंतं पडिकमिउं,
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तो सम्ममिमं कर्म कुणइ ॥ ३४ ॥ मुहपोति वंदणयं, संबुद्धा खामणं तहालोए, वंदण पत्तेअ खामणाणि, वंदणय सुत्तंच ॥३५॥ सुत्तं अन्भुट्ठाणं, उस्सग्गो पोति वंदणं तहय, पज्झंतिअ खामणयं, तहचउरोच्छोमवंदणयं ॥ ३६ ॥ पुव्वं विहिणेवसव्वं, देवसिअं वंदणाइतो कुणइ, सिज्झसूरी उस्सग्गो, अजिअसतित्थय पढणे ॥३७॥ एवं चिअ चउमासे, वरिसेअ जहकमं विहीणेओ, परक चउमासवरिसे, नवरं नामम्मिनाणतं ॥ ३८ ॥ तहउस्सग्गोजोआबारस, बीसा समंगलगचत्ता, संबुद्धाखामणं तिअ, पणसत्तसाहूर्ण जहसंखं ॥ ३९ ॥ इयजिणवल्लहगणिणा, लिहिअंजं सुसमरिअंच मइणावि, उस्सुत्तमणाइन्नं, जंमिच्छामि दुक्कडंतस्स ॥ ४० ॥ इति युगप्रधानश्रीजिनवल्लभसूरि समाचारी ॥१॥
॥ ननु श्रीजिनदत्तमरीणां युगप्रधानगुरूणामपि अनायतन चैत्य, स्वीकृतमूलप्रतिमापूजाप्रमुखनिषेधकवाक्यानि समाचारीरूपाणि कापि संकलितानि सन्ति, सन्तीति ब्रूमः, स्वकृतोसूत्रपदोद्घनकुलके तैः सविस्तरप्ररूपितखात्तथाहि-तत्कुलकं, लिंगी जत्थगिहिव, देवनिलए निचंनिवासीतयं, सुत्तेणायतणं नत स्थउ जओ नाणाइ वुड्डीभवे, निस्सानिस्स जिणंदमंदिरदुगं तल्लामहे ऊ तयं, सिद्धतंमि पसिद्धमेव तहवी खिसंति ही बालिसा॥१॥ चेइ अमढेसु जइवेसधारया, निश्चमेव निवसंति, तमणाययणं जइ, सावगेहिं खलु वन्झणिज्झंति ॥ २॥ उस्सुत्तदेसणाकारएहि, केहि तु वसइवासीहि, पडिबोहिअसावयचेइ, पुणोहोयणाययणं ॥ ॥३॥ एअंमिहुस्सुत्तं ग वनेसोनिमाइ चेहरे, रयणीह
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जिणपइट्टा, ह्राणंनेवजदाणंच ॥ ४॥ पूएइ मूलपडिमंपि, साविआ चिइनिवासि सम्मत्तं, गब्भापहारकल्लाणपि, न हु होइ वीरस्स ॥५॥ कीरइ मासविहारोहु, णासाहूहिअ नस्थि किरदोसो, पुरिसित्थि ओविपडिमा, वहंतितत्थाइमा चउरो ॥६॥ कंडुअ संगरिआओ, नहुँतिबिदलं न विरुहगाणंतं, नयसिवइवोराअं, सचित्तं सिंधवोदरका ॥७॥ इरिआवहिअंपडिकमिअं, जोजिणाईणपूअणाइपुरो, कुजाइरियं पडिकमिअ, कुणई किइकम्मदाणाई ॥ ८॥ विहिचेइअनामंपिहुं, न जुत्तमेअंजमागमेणुत्तं, निस्साकडाइ जिणचेइआई, लिंगीहिं वि जुआई ॥९॥ तत्तिअमित्तंकुजा, जत्तिअमित्तं जलादि जिजा, अजिअजलाहारिगिहि, पाणागारे समुच्चरह ॥ १०॥ उग्गएसूरे सूरुग्गमेअ, भणिमि नत्थि किरदोसो, एगजुगेजुगपवरा, दसपंच हवंति नहुएगो ॥ ११ ॥ बत्तीसंदेविंदा चउसट्टीने अहुंति जिणपयडा, पूआ अट्टविअप्पा, पास सुपासान नव ति फणा ॥१२॥ नवसत्तपण फणंसो, पासंकीलावइ जिणं पासं, तिप. णफणाइ सुपासं, भणिअ पढमाणुओगम्मि ॥ १॥ इति विचारसारग्रंथे । खीरघएहिंहाणं, जिणपडिमाणं जओ जुत्तमिणं, दवत्थओत्तिकाउं, गिहीणमुचिआ जिणपइटा ॥ १३ ॥ कत्तिा अमाव. साए, पछिमरयणीइवीरपडिमाए, कीरइ न्हाणंपूआ, वाइअमहनहिगीअंच ॥ १४ ॥ लउड़ारसोविहिजइ, विहिजिणभवणंमि सावएहिंपि, वासाणसुसणमंदोलणं च तत्थेव जलकीलं ॥ १५ ॥ माहे मालारोवणमिहकीरंतंच साहए सिद्धिं, मालग्गहणे दाणे, जिणाण रयणीइ को दोसो ॥१६॥ दवणयरसिहाबंधो, मुद्दाकलसेसु वासखे
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वाई, सूरीविणा पट्टं, कुणइ अ उस्सुत्तमाइअं ॥ १७ ॥ गिहिणोवि दिसाबंधो, कीरंतो धम्मसाहगो होई, चेइअ वसहि निवासिवि, साहवे सट्टा || १८ || जिणविंचमणाययणं, नहोइ निवसंति ते जहिं समढो, सोसुविहिअ साहूहिं, परिहरणिजो न य गिहीहिं ॥ १९ ॥ मेरुगिरिम्मि तिअसाहिंवेहिं, जिण जम्मन्हाणमविकिरिअं आरत्तिअमुत्तरिअं मंगलदीवं कर्यनङ्कं ॥ २० ॥ आरतिअमेगजिणंद पडिमपुरओकथं न निम्मलं परिहाविजइजेणं वत्थेणं तमवि निम्मलं ॥ २१ ॥ आरतिअमुवरिजलं, भामिज्झतह पयत्तउपूअं, तम्मिश्र जमुत्तरंते तदुवरि कुसुमंजलिखेवो ॥ २२ ॥ आरत्तिअं धरिजह, जमंतरालेवि उत्तरंतंतुं, कीरइनहंगीअं वाइअमुअगीअनहंच ॥ २३ ॥ जिण पुरओवि फलरकय, पमुहं जोढोइअंतु पूअट्ठा, तमवि न कप्पड़ निम्मल, मित्थकाओ पुणोदाओ || २४ || कप्पड़ न लिंगिदच्त्रं, विहि जिण भुवर्णमि सव्वहादाओ, सासणसुराणपूआ, नोकायता सुदिट्ठीहिं ।। २५ ।। पवज्झागहणुठावणाइ, नंदीविकीरह निसाए नेमिविवाह कोड, रहचलणा राईमइसोगं ॥ २६ ॥ सिद्धंतसुत्तजुत्तीहिं, जमिह गीअत्थ सूरिमायरिअं न कुणंति तं पमाणं पयडंतिय समयमाहप्पं ॥ २७ ॥ पोत्तिंविणावि गिहिणो, कुणतिचेलंचलेण कियकम्मं, पाउरणेणं खंधेकएण जइणो परिभमंति ॥ २८ ॥ सुगुरुकयपारतंता, सुतंवि सत्यं विआणता, विहिपडिकूलासंतो, कुणंति जं मुणत मुस्तं ॥ २९ ॥ गणणाइआलोआ, उस्सुत्ताणं पयासिआसमए, इह जे जिणदत्ताणं, मन्नंति कुणंतिताणि न ते ॥ ३० ॥ इति श्री जिनदत्तसूरि सामाचारी ॥ २ ॥
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ननु श्रीजिनदत्तमरिप्रशिष्याणां श्रीजिनपतिसरीणामपि कापि सामाचारी प्रवर्तते न वा, उच्यते प्रवर्तते एव कासौ कियती च, उच्यते एकोनसप्ततिशिक्षारूपा सा तथाहि-आयरिय उवज्झाए, इच्चाइ गाहितिगं पडिकमणे, साहुणोन भणंति ॥१॥ पडिकमणते सिरिपासनाह सकत्थवो काउस्सग्गोअ ॥२॥ चउवडमुंहप्रत्तीए अप्पाभिमुहदसिआए सावयाणं साविआणय आवस्सयकरणं ॥३॥ पडिकमणमाईसु सामाइअदंडगो नवकारोअ वारतिगं भणिजइ दुषणायरिअ ढवणंच तिहीं नवकारेहिं ॥ ४ ॥ सड्डाणं सामाइअ गहणे अट्टहिं नवकारोहिं सज्झायकरणं ॥५॥ उस्सुत्तमासग, चियवासि, दबल्लिंगीणं, वरकाण सुणणस्स, कियकम्मस्सय निसेहो ॥६॥ खमासमणदुगंतराले इच्छकार सुहदेवसिअ सुहराइअपुच्छा ॥७॥ संगर कंडुअ गोयाराइ विदलं ॥ ८॥ तिहिबुड्ढीए पच्चरकाणकल्लाणय ण्हवणाइसु पढमतिही घेतबा ॥९॥ मासवुडीए पढममासस्स पढमपरकोवा बीअमासस्स बीअपरकोवा कल्लाणगेसुघेत्तहो ॥१०॥ सावणे भद्दवएवा अहिगमासे चाउम्मासाओ पण्णासइमे दिणे पज्जो सवणा कायवा न असीइमे ॥ ११॥ सावगाणं पाणस्स लेवाडेणवा इचाइ पाणगामार अणुच्चारणं॥१२॥ विगई ओपचारकाइ, इच्चेव भणणं नसेसिआओत्ति ॥१३॥ कत्तिअवुड्डीए पढमकत्तिएचेव चोम्मासि पडिकमिआइ, सेसमासवुड्डीए पंचमासेसु चउमासंकीरइ ॥ १४ ॥ इत्थीण देवपूआनिसेहो ॥१५॥ वायणायरिअ, उवज्झाय, सूरीणं, जह संखं इग दु तिकंबलानि सिज्झा ॥ १६ ॥ सामण्ण साहूणं अपं गुरिआणं उवओगकरणं चंदणकापूरपूआनिसेहो अ॥ १७ ॥ नए
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गागिणीए इत्थीए वसहीप्पवेसो ॥ १८ ॥ वरिसयाले अगलिअ तकनिसेहो ॥ १९ ॥ पारुडिआ, जडाल, कंबल, बोरिआणं अपरिभोगो ॥ २० ॥ संघवय, सरिपय, कुलेसुवि, दसाहं सुअसूअग कुलाणं, च एगारसाहं पुत्तिआसूअगं, बारसाहं मयगकुलाणं, चवज्झणं, ॥ २१ ॥ दरका खजूर उत्तत्तिमाईणं सकुलिआणं, साहूहिं अगहणं ॥ २२ ॥ एगजुगे जुगप्पहाणो एगो न उणणेगे॥ २३ ॥ चित्तासोअसत्तमठमी नवमीसुकयं तहापुप्फबईएकयतवं आलो अणाएनपडइ ॥ २४ ॥ आयंबिले पप्पड, घुग्धरिआ, वेढमिआ, इम्मरिआ, तकाइ, निसेहो ॥२५॥साहूणं वासारत्ते वीर कल्लाणगेसु अएगाविगई उवहाणे गिहीणंवि ॥ २६ ॥रयस्सलाभत्तस्सवझणं ॥२७॥पुप्फवईए तिचउरदिणे छुत्तिररकणं चेइअवसही सु अगमणं पडिक्कमणाइसुमोणं ॥२८॥ कंधआणं तइअदिण हाणंजावदेवअपूअणं ॥२९॥ वायणायरिआइपयहाणं ठवणायरिअस्सय असंफुसणं निअमिअपडिकमणाइ मोणेणं कुणंति ॥३०॥ गोअमपडिग्गह, मुक दंडग, मउड सत्तमि, माणिकपत्थरिआइ तव अकरणं ॥३१॥ संपइकाले सावयपडिमाओ न वहिजंति ॥३२॥ देवस्सगाम, गोउल, आराम, कूवाइ, नकीरइ ॥ ३३ ॥ चेइअहराइसु अडं चयनिसेहो॥ ३४ ॥ राईमईविरहगीआइपरिहारो॥३५॥जहन्नओवि पारुत्थयं विणा न न्हवणं ॥३६॥ रयणीए नंदि, बलि, पइट्ठा रहजत्ता, न्हवणाई, समण समणी सावय साविआणं चेइअपवेसो अन, मंगलदीवस्स न भामणं ॥३७॥ नय आरत्तिए विसेसपूआ ॥ ३८ ॥ लवणस्सजलस्स उत्तारिअजलणेखिवणं ॥ ३९ ॥ नयथालं विणा आरत्तिअमंगलदीवो ॥४०॥
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नचेइए वेसानचणं ॥४१॥ न य लउडारसदाणं ॥ ४२ ॥ लोण जल आरत्तिआइ जिणस्स सक्केण न च कयं किंतुगीअत्थेहिं आईण्णं संहारेणय जुत्तं ॥४३॥ अट्ठाहिआओ तहा आरंभिअवाओ जहा सत्तमि अहमि नवमीओ अठाहिआमज्झेइंति ॥ ४४ ॥ परिग्गहप्प माणग्धिप्पणए मूलगुरु पासे इमंगहि अंति लिहिज्जइ न उण अन्नेहि वि आयरिअउवज्झाय वायणायरिएहिं रुदिन्नेपरिगाहपमाणे सनाम लिहिअवं ॥४५॥ मूलगुरु पत्थाणं काउ जावविवरिकअंठाणं नसंपचो ताव धोवणीआ सव्वठाणेसुसाहहिं न कायवा ॥४६॥ कंधकंबलिआए असमप्पिआए दंडगो न अप्पेअबो आयरिअ उवज्झायाणं गिण्हते पढमं दंडओ घेत्तवो पच्छा कंधकंबलिआ ॥४७॥ आयरिअ उवज्झायाणकंधकंबलीविहारभूमीए वेआवञ्चगरेण घेत्तव्वा न उण वायणाअरिअस्स ॥४८॥ चउरो तिप्पाओघेत्तव्वा न उण तिन्नि ॥४९॥ अपडिकमंतवंदणदायारो सावया जहाप भाए तहा संज्झए विदोहिं २ बंदणेहिकमेण आलोयण कामणया ॥५०॥ सावयापडिक्कमणसुत्तं ते तस्सधम्मस्सकेवलिपन्नत्तस्सत्ति न भणंति ॥ ५१ ॥ पडिक्कमणे साहुणो सावयाय काउस्सग्गे अइआर मुक्कलं चिंतिंति न उण गाहासूअं॥५२॥ वरकाण वायणे वि रागझुणी न कायव्वो, ॥५३॥ सामाइअदंडगं मुहपोतिआपडिलेहणपुव्वं भणि तओ इरिआवहि पडिकमिजइ न उण इरिअंपडिक्कमित्ता तओ सामाइअग्गहणं ॥ ५४ ॥ परिकअपडिक्कमणे पुढोकयआलोअणंमुत्तुं परोप्परं एगमंडलीए न च्छंदणादोसो अओ मुहपोत्ती पडिलेहिजह ॥ ५५ ॥ अहमीचउद्दसीसु उववासकरणं सइसामत्थे बीआ पंचमी
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एगारसीसु निविगयं अन्नया एगभत्तमवंजणजायखुड्डिअ, गिलागाइ मोत्तुं ॥५६॥ पइदिणं संपुण्णचिअवंदणादेवालए ॥ ५७ ॥ रत्तीए गुरुणो सोअत्थं टुप्परिआए जलोल्लिअचीवरखंडट्ठावणं अइसाराइसु लुहणयाइ धोवणभंडए धारेयव्वं ॥ ५८ ॥ चउमासि आधोवणि ।। ५९ ॥ वासाचउमासए सूरीणं दुकंबला निसिज्झा उवज्झायस्स एगकंबला वायणायरिअस्सय ॥६०॥ जेट्ट उवज्झाया महोवज्झाया इति भणंति न उण अन्ने ॥ ६१ ॥ आयरिअ नामं लेहाइसु अमुगआयरिअ इयलिहिअव्वं न उण सूरित्ति ॥६२॥ संघाडइ बाहिरिमए तस्संतिअंवत्थपत्त पुत्थयाइपडआसण कंबलसहि मूलगुरुणो दिजइ ॥ ६३ ॥ साहूसु कणिट्टो भोअणमंडली समुद्धरइ ॥६४॥ ओमरायणिआजलं विहरंति सेसाभत्ताइ ॥६५॥ वीसउसिरिमाल ओसवाल पोरुआडकुलसंभूओचे आयरिओहविजइ, उवज्झाओवितहेव, न उण दसाजातिओ महुतीयाणो ठाविजइ, वायणा गुरुजोवा सोवा, ठाविजइ, महत्तरा सिरिमालाचेव ठाविजइ ॥६६॥ पंथे सइजाय दुप्पडिलेहगोअरचरिअभंगोत्ति जहा जेडं साहुणो विस्सामिअ, सुहविहारोपुच्छिअन्चो ॥६७ ॥ साहूणं पढमोवहाणे बुड्ढे उत्तरज्झयणाइ जोगा बोढव्वा ॥ ६८॥ वीरस्स छक्कल्लाणया ॥६९॥ इति श्रीजिनपतिमरिसामाचारी, ॥३॥ ननु श्रीराजगच्छे एतत्सामाचारी त्रयातिरिक्तं व्यवस्थापनमपि किमपि वर्तते न वा, उच्यते वर्तते एव साधूनां शिक्षारूपं, तथाहि सर्ववस्त्रपात्रादि विहृत्य मूलगुरुभ्यो निवेदनीयं १ प्राभृतकादिपरिष्ठापने आचाम्लं अन्यत्र चातुर्मासिक १ सांवत्सरिक २ पारणातः ३ पात्रक्षालने कल्प
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परिष्ठापने निर्विकृतिकम् ३ गुरुणा सह संस्तारकमुखवस्त्रिका प्रतिलेहे निर्विकृतिकम्, मार्गश्रमग्लानत्वादि २ कारणं विना ४ गुरोरनापृच्छा साधुभ्यो वस्त्रादिदानं न कार्य अन्यत्र पृथक्संघाटकात्, ५ पात्र १ त्रेपणक २ घटभंगे ३ आचाम्लं चेतणी १ ढांकणी २ प्रभृतिभंगे, निर्विकृतिकम्, ७ आत्मरुच्या गृहस्थपार्श्वात्किमपि न आनाय्यं किंतु संघाटकं प्रति पृष्ट्वा ८ विंशतिवर्षपर्यायं विना योगपट्टादिन ग्राह्यं ९ सन्निधिधारणवर्जनं १० संस्तारके सामान्यतपोधनस्य कंबलिका निषेधोग्लानवर्ज ११ क्रीतादिना वस्त्रादि अपूर्व न आनाध्यं १२ सागरिकसमक्षं गाढकलहे आचाम्लं, अज्ञाते निर्विकृतिकम् १३ सागारिकेभ्यो याचकेभ्यश्च निजान्नपानादि न देयं ९४ उपाध्याय १ वाचनाचार्ययोर्मण्यक्षतपूजानिषेधः १५ गुरोराज्ञया विहारो गमनागमनादिकः १६ उपाध्याय १ वाचनाचार्याणां २ प्रावृतानामेवोपयोगकरणं आचार्यवत् १७ उपाध्यायवाचनाचार्याणामारात्रिकावतारणन १८ प्रथमदिने आचार्यो १ पाध्याय २ वाचनाचार्यैर्यथा ज्येष्ठं रानिकपादशौचं कार्य १९ उपाध्याय १ वाचनाचार्याणां २ पृष्ठपट्टेकंबलं वस्त्रं च नास्ति, २० भोजनकाले आचार्योपाध्यायैरये पट्टकं धार्य, न वाचनाचार्येण २१ व्याख्यानारंभे गच्छाधिपतेर्नमस्कारकथनं प्रतिक्रमणे तन्नामकथनं च, २२ दीक्षादानं मूलगुरोः तदाज्ञया आचार्याणांच २३ सागारिकदृष्टौ उच्छोलनाभ्यंग निषेधः अन्यत्र हस्तपादशौचात् २४वर्षाचतुर्मास्यां एका विकृतिर्वीरकल्याणके च बालग्लानवर्ज २५राद्ध काचरनिषेधः २६ देवस्वं ज्ञानघनंच न क्वापि व्यापार्य देव ज्ञान कार्यादन्यत्र २७ पूर्णिमामा वस्योर्नदीखरदेववंदनं २८ कार्त्तिक
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चतुर्मासिकपारणं बहिर्विधेयं यतनया २९ गुरुस्तूपद्रव्यमपि देवखज्ञानवत् ३० अकालसंज्ञायां यथातथा उपवासः प्रेश्यः ३१ अष्टमीचतुदश्योः पादशौचवर्ज उच्छोलनानिषेधः करणे उपवासः ३२ उत्सर्गेण दुग्धनिषेध: ३३ इति व्यवस्थापत्रम् ||४|| अनेनैव क्रमेण प्रतिसंघाटकं सिद्धान्तानुसारेण गच्छानुकूलेनैव सांप्रदायेन वर्त्तमानिकैः सुविहितगीतार्थैः संविमरीत्या निर्वाहयोग्यम् व्यवस्थापत्रं लेख्यम् ॥ अथोत्सुत्रस्यैकलेशः ज्ञाप्यते' तथाहि - ननु आगमे स्त्रीणां पूजानिषेधः कापि नश्रूयते' प्रत्युत प्रभावतीद्रौपद्यादीनां तद्विधेरेव श्रवणात्' आधुनिकवनितानां अपि जिनाचैनं युक्तमेव, अन्यथा तासां दुर्लभार्हद्धर्मलाभो वैफल्यमापद्येत' सम्यक्तशुद्धेः अन्यथानुपपत्तेरिति चेत्, शृणु तरुणीनां स्वहस्तेन जिनांगस्पर्शनंन युक्तिमत् यतस्तासामनियतकालतया स्वयमप्यलक्षणतया च स्त्रीधर्मस्य संभवेन सर्वासां तदयोग्यतोपपत्तेः किंच लोके लोकोत्तरे च स्त्रीधर्मस्य महादोषत्वेन श्रवणादपि स्त्रीणां तद्विधानं न संगतिमियर्ति, अन्यथा सिद्धान्ताध्ययनादौ साध्वीनां कथंचित् स्त्रीधर्माविर्भावे, श्रुताशातनाघातनाय छेदग्रन्थेषु तादृक् प्रयत्वं गणभृतो न व्याहरेरन्, देहधर्मतया भवदाशयेन तत्र दोषानवकाशात्, तथा पंचेंद्रियजन्तुदेहक्षतादिक्षतजस्यापि वसत्यादिषु विन्दुमात्रस्य पतितोधृतस्याप्याशातनानिमित्तेनाहोरात्रादिमर्यादया सिद्धान्ताध्ययनादिप्रतिषेधः सूत्रे प्रत्ययादि, किंपुनर्नारीरजसः, लौकिका अपि मलिनीं प्रत्याहुः प्रथमे अहनि चंडाली, द्वितीये ब्रघातिनी, तृतीये रजकी प्रोक्ता, चतुर्थे अहनी शुध्यतीति, एवंच यदा रुधिरसन्निधौ सिद्धान्तमप्यधीयाना विराधयन्ति, तदा
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Achar
तत् स्रष्टुर्भगवतो रजस्खलामिविरच्यमाना पूजा तु तासां सम्यक्त्वा. दिनाशमेव कुर्यादिति, ताभिस्तद्विरचनं कथमिव प्रेक्षावतां चेतांसि प्रीणीयात् , किंच ननु कास्तास्तवाभिप्रेताःता एव शौचदशायां वत्तेमाना इति चेत् , ननु सर्वैः पूजोपकरणैस्तासां तदधिकारस्त्वं प्रस्तूयते कतिपयैर्वा न प्रथमः तदाहि उभयतस्तीर्थकृद्विवं व्यवस्थिताभिः कोमलकरकमलकलितधौतकलधौतकलशाभिः पुरुषवत्ताभिरपि पु. पादिपूजावत् खात्रादिरपि निर्माणप्रसंगात् , जिनपडिमाए वामंमि इत्थिया इत्यादिक्रमेण चैत्यवंदनवद्वा दक्षिणेनजिनप्रतिकृति तस्थुषा, पौंस्नेनोत्तरेण च स्त्रैणेन तद्विधानापातात्, इन्द्रानुकारेण स्नात्र विधेर्विधीयमानतया तत्करणं, पुंसामेवौचिती चिनोति, न स्त्रीणां इति चेत् यद्येव इंद्राण्यनुकारेणैव तासां पूजाविधिर्युज्येत न च जन्माभिषेकमहसि रत्नसानुशिरसि सिंहासनमध्यासीनस्य परमेश्वरस्य वपुषि खानवसनपुष्पस्रगाद्यारोपणभक्तिमिंद्राण्योनुतष्टु, किंतर्हि भुवनगुरोः पुरोवस्थितास्ता अक्षतैरक्षतैरष्टावष्टापदाचलचूलायां मांगलिक्यान्या. लिख्य गुणान् गायति नृत्यंति च, एवं श्राविका अपि शुचिभूतश्राद्धहस्तेन स्वपनसुरभिगंधसारघनसारसुमनोमनोरमवस्त्रादिभिः पूजा प्रयुजाना मेदुरानिंद्ययनैवेद्यदानविदुरा अनवगानगाननर्तनप्रवर्तनपेशला यदि भगवंतमाराधयन्ति, तदा नकंचनदोषमुत्पश्यामस्तावतैवद्रव्यस्तवद्वारा तासां सम्यक्तशुद्धिसिद्धेः, यथाधिकारं विहिताचरणस्यैव चागमे निःश्रेयसहेतुतया प्रतिपादनात् , एवमनभ्युपगमे तु पुरुषवद् योषितामपि अहो कायं कायसंफासमित्यादिसूत्राण्यनुपपत्त्याखकराभ्यां गुरुचरणस्पर्शेनैव वंदनकविधिप्रसंगात् , दृश्यन्ते चा
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द्यापि चिरंतनजिनसदनेषु स्त्रीणां पूजानिवारणाय गर्भागारद्वारे भुजार्गलाः, अतएव गर्भागारबहिर्विधीयमानपूजायामेव तासां प्रायः स्वपाणिना करणाधिकार इत्यवसीयते न द्वितीयो यतः कियतीरेव पूजाः पुष्पारोहणाद्याः स्त्रियो विदधति, ननु मात्रादिका अपि कुतएव तद् भवतानिश्चायि न तावदागमात् , भवद्विवक्षितकतिपयपूजाधिकारित्वनियमस्य तासां तत्रादर्शनात् , अनादिसंप्रदायादिति चेत्, न, तस्याप्यस्मिन् वटे यक्षः प्रतिवसतीत्यादिसंप्रदायवदप्रामाणिकस्य परीक्षकैरनभ्युपगमात् , इंद्राण्यनुकारादिति चेत् , तर्हि तद्वदेव तावत्य सास्ताभिरपि कर्तुमुचिता, न खरोचकरुचिता, यदपि प्रयोगद्वयेन तत् समर्थनं तदपि प्रतिपन्नश्रावकधर्मवादित्यस्य हेतोस्तथाविधश्चित्रादि, आमयाविभिर्व्यभिचारात् , न समीचीनं तेषां तथात्वेप्यशुचितया खहस्तेनसपर्यानधिकारात् द्वितीयप्रयोगेपि हेतोस्तादृशीभिः स्त्रीभिर नेकान्तात्, न खलु त्वयापि कुष्टादिकायविकृतामिस्ताभिर्भगवत्प्रतिकृतिषु स्वहस्तार्चनमभ्युपेयते अप्रयोजकश्च अन्यथानुपपद्यमानसम्यग्दर्शनशुद्धिलादिति हेतुर्नहि प्रभावत्यादीनामेतत् साधनधर्मधमंप्रयुक्तः, स्वकरपूजाधिकारा किंनाम तासामवरोधनिरुद्धतया तथाविधार्चकपुरुषार्थलाभप्रयुक्ततयौपाधिकः तथाहि-या अन्यथानुपपद्यमानसम्यक्त्वशुद्धिकास्तागर्चकपुरुषार्थलाभमाज इति व्याप्तेः, पक्षीकृतयोषित्स्वेव संभावितं, तादृग् अर्चकपुरुपलाभानुव्यभिचारात् साधनाव्यापकत्वेन तथा याः स्वहस्तेन पूजाधिकारिण्यस्ता उदभावितोपाधिभाजः याश्चैवंभृतास्ताः स्वहस्तेन पूजाधिकारिण्यो यथा प्रभावत्यादय एवेति साध्यसमव्याप्तिकत्वेन चोपाधिलक्षणस्यहो.
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पपत्तेः, अतएवापवादिकोसौ विधिः, नारिविशेषोद्देशेन प्रवृत्तेः, वि. शेषविधेरेव चापवादपदेनाभिधानात् , नचांतःपुरसंचरिष्णुभिः खवल्लभैः तत् करणोपपत्तौ कथं पूजकपुरुषालाभ इति वक्तव्यम् , तेषां मिथ्यादृष्टितया केषांचित् सम्यग्दृष्टित्वेप्यत्याज्यप्राज्यराज्यप्रयोजनवर्गव्यग्रतया यथाकालं तदकरणं संभवात् एवं व्यवस्थिते प्रयोगोप्यभिधीयते' उत्सर्गेणतरुण्योर्हद्विवं स्वकरण पूजानधिकारिण्य आकसिकशोणितोद्भेदसंभावनावत्वेनावश्यसंभाव्यभगवदाशातनास्वात्' तादृग्नासिकादिशोणितप्रवाहसंभावनासु कुपुरुषवदिति, नचात्र प्रभावत्यादिभिरेव व्यभिचार इति शंकनीयं, उक्तयुक्त्या अपवादेन नीरजस्कता दशायां तासां तत् समर्चनेन, व्यभिचारानुपपत्तेः, अतएव तन्निरासाय प्रतिज्ञायामुत्सर्गपदमवादि, एवं तर्हि कन्यानां विगतार्तवानां च तत् निर्माणप्रसंग इति चेत्, न तासां स्वपाणिसपोविधिदर्शनेन किमाभ्योपि वयं हीना, इतीर्ष्यालुतया तुच्छतया प्रायः सातिरेकविवेकविकलतया चाधुनिकन्यायेनाहमहमिकया तरुणीनाम् तत्प्रवृत्तिप्रसंगात्, प्रवृत्तिदोपस्स च, इक्केणकयमकजं, इत्यादि आगमेन भगवता निवारणात्, इतरथा निरंकुशतया सर्वासमंजसतोत्पत्तेः, तथाच प्रयोगः विवादास्पदस्थानमस्याः, कन्याविगतातवानामपि कर्तुमनुचिता, प्रसंगदोषापादकलात्, तासामेव रजन्यां निजमंदिरोदराबहिः संचारवत्, श्रमणानां स्वार्थ गृहस्थप्रासुकिकृतार्द्रकाभ्यवहारवद्वेति,न चसाध्यविकला, प्राच्यो दृष्टान्त दंडनीत्यादिशास्त्रेषु कुलवधूनां निशायां स्वगृहात् बहिरनिर्गमस्य वंधकीभावावंध्यनिबंधनतया प्रतिषेधोपदेशात् , एवंच यदि पुष्पचापचापलनिरर्गल
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२९ दत्तसूरि
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तया भूभुजां च स्वतंत्र स्त्रैणदोषदर्शने पीश्वरलीलतया गजनिमिलिकावस्थानेन काचन शठा हठाच्छास्त्रक्रमं व्यतिक्रामेयुः ' तदा कस्तासां निवारयिता, पुरुषभुजं गवां मांसादि तत्स्वादतया अकांडचंडदण्डपातेनाप्यमेध्यप्रवृत्तेर्व्यावर्त्तयितुमशक्यत्वादितिपौर्णमासिकादिमतवर्त्तिपक्षनिरासः, अथ कैश्चित् पुनः पंडितंमन्यैर्यदपि विकल्पचतुष्टयीमुद्भाव्यं तन्निरासेन स्त्रीणां स्वहस्तेन जिनार्चनसमर्थनं तदप्यसंगतं माभूवन् यतीनामिव प्रतिमानामचेतनतया कामोत्कलिकादयः स्त्री संघट्टजन्या दोषाः किन्तु उत्कटरजसां स्त्रीणां संघट्टात् कदाचित् भंगादिदर्शनात्, कथं तत् संघट्टस्तासामौचित्यं भजेत, यत्पुनरुक्तं यतीनां हि सरागसंगमस्थानानां संभवन्ति, स्त्रीसंघट्टप्रभवदोषाः, तीर्थकृतान्तु वीतरा गतया तत्संघद्वेपि न किंचिदिति तन्नघटामुपैति, एवं हि जीवन्मुक्तानामपि, तीर्थकृतां सामान्य केवलीनां च स्त्रीसंघट्टो भवतानुज्ञातः स्यात्, तेषां वीतरागत्वेन सर्वथा तत्प्रभवदोषानुसंगासंभवात् एवमस्त्वितिवेत् न, जत्थित्थी करफरिसं, लिंगी अरिहाविकुणइ नियमेण, ( संयमविकारिजा ) तं (निछयओ) गोयम जाण गणं, न मूलगुणसंपयं वहइ (जाणिजामूलगुणभट्ट ) || १॥ इत्यादिना यत्रारिहापि वीतरागोपि यतिः स्त्रियाः करस्पर्शमात्रमपि कुरुते नासौ गच्छो मूलगुणोपेत इति भगवतो गौतमं प्रति गच्छसंस्थोपदर्शनवैकल्यापत्तेः, अन्यथायतीनामित्यादिप्रसंगश्च न किंचित, जीवद्यतिकल्पप्रतिमा कल्पयोरत्यंतं भेदादिति, यच्च स्त्रीणां अपावित्र्यमाशंक्य विकल्पैर्दूषितं तदपि न माभूत् यावज्जीविकमपावित्र्यं, तथापि कदा चित्, कमपि तस्मात्पूजनानर्हत्वस्य तासानुपपत्तेः ननूक्तं कदाचित् कात्तस्मात् कदाचित्कमेव तत्सिद्ध्यति, नतु सर्वदिशमिति चेत् न,
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अपावित्र्यनिबंधनस्य कुसुमोझेदस्याकस्मिकत्वेन पावित्र्यावस्थायां अपि तत्संभावनया तासां सर्वदापि पूजानहवस्थानुगुणवात् , श्रूयते च तत्रदृष्टान्तरुपपादितानां मालापहतादिभिक्षाग्रहणदोषाणां कादाचिकत्वेपि प्रवृत्तिदोषादिहेतुना यावजीवं यतीनां तद्वर्जनं तत्कस हेतोः, इक्केणकयमकजं इत्यादिन्यायेनातिप्रवृत्त्या सर्वोपप्लवांतरपातात् यदपि मूलप्रतिमा जगतिप्रतिमानामविशेषापादनेन स्त्रीणां मूलप्रतिमायां अपि स्वहस्तेनपूजनसमर्थनं तदप्यचारु वाचा तासामविशेषममिदधानैरपि भवद्भिर्मनाकायाविशेषस्योपदर्शनात् , तथाहि चतुर्विंशत्यादिजिनालये चैत्यवंदनावसरे यूयं किमिति प्रथमं मूलप्रतिमा बन्दध्वं, तदनुदेवकुलिकाप्रतिमाः, नहि युष्मदाशयेन द्वयीनामप्यारोप्यमाणतीथंकरगुणैरस्ति कश्चिद्विशेषः, तथा प्रथमचैत्ये या मूलप्रतिमात्वेनासी. व, तजातीयैव चैत्यान्तरे यदा जगतिप्रतिमात्वेन व्यवस्थिता प्रतिमान्तरं तु मूलप्रतिमात्वेन तदा किमिति तत्रगतैर्भवद्भिः प्रतिमान्तर प्रागभिवन्द्यते, प्रथमचैत्यमूलप्रतिमाजातीयानुपश्चादुभयोरपि प्राग्वइविशेषात्तथा किमिति तदेवदेवगृहं मूलप्रतिमानामाधेयेन सर्वत्राधारः व्यपदिश्यते, न जगति प्रतिमानानेति किमिति च पूर्व सर्वोपि कश्चिन्मूलप्रतिमायाः सपर्या रचयति, पश्चात्तु शेषप्रतिमानां ततश्चेदमुपस्थितम् यत्रोभयोःसमो दोषः, परिहारश्च तत्समः, नैकपयनुयोज्यस्यात् तादृश्यार्थविचारणे ॥१॥ तसान्मूलेतरप्रतिमानां प्रतिष्ठादिकृतः कश्चिदस्ति संस्कारविशेषः अन्यथा तीर्थकरगुणाध्यारोपाविशेषेपि तासां वन्दनपूजनादिविषयप्राक्पश्चाद्भावादिः नियमानुपपत्तेः, तसादपवादत्वेन तथाविधपूजकालामे मंडपादिप्र
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तिमागृहप्रतिमाश्च शुचिर्भूतश्राविकाः स्वहस्तेन पूजयन्त्यपि, न पुनर्मूलप्रतिमामिति स्थितम् यदपि युगप्रधानगुरुरेक एवेत्यादिप्रत्यपादि, तत्र विवक्षितकाले संख्यामाश्रित्य एकएवेत्यनुमन्यामहे, यत्पुनरसदीय एवेति तन्न युक्तं नहि वयमसद्वंश्य एव, युगप्रधानमित्यभ्युपेयकिन्तु कालाद्यपेक्षया देशकुलजाइरूवी इत्यादिश्रुतभणितगुणगणशाली ववंश्यपरवंश्यो वा भवतु न तत्रास्माकं रागद्वेषौ स्तः, यच्च व्यवहारतस्तु तण्णतेदोथूलिभद्दसीसा जुगप्पहाणा इत्यादिजल्पितं, तत्रास्ता द्वयोर्वहूनां वा युगप्रधानत्वं को निवारयिता केवलं न युगपत्, आर्यमहागिरौ संघधुरांप्रति जाग्रति. तस्यैव मुख्यो युगप्रधानव्यपदेशः, आर्यसुहस्तिनस्तु राज्यार्हकुमारस्य राजव्यपदेश इव तदानीमसौ गौणएवमनभ्युपगमे, एरोनिवडइगुणगणाइण्णे, इत्यादिमहानीसीथवचनात्संगतिप्रसंगात् , अपिचैकदा युगप्रधानत्वे द्वयोरपि स्वप्रधानतयार्यसुहस्तिनस्तत्तदार्यमहागिरिनिर्देशवर्तित्वं कथानकमतीतं नघटामाटीकेत ॥ तथा यत् त्रेधारात्रिकशब्दव्युत्पादनं, तत्र किंचिद् विचार्यते, तथाहि आरात्रिभवमित्यत्र यद्याङ् अभिव्यास्यर्थस्तदासकलां रात्रि तद्विधीयते इत्यर्थः, स्यानचैतदस्ति भगवन्मतेरात्रिमभिव्याप्य तद्विधानस्यानुपगमात् , अथेषदर्थस्तदाह्नि तद्विधानानुपपत्तिः, अथ रात्रेरुपलक्षणत्वादिनेपि तद्विधिरुपपद्यत इतिचेत् , न लोकिकलोकोत्तरयोर्दिवसस्स प्राधान्येन गौण्याराव्या तदुपलक्षणायोगात्, अथ सीमार्थस्तदा मातरारभ्य सायं यावत्तनिर्माणप्रसंगः, अथाद् भगवतामदरसामिप्येन त्रिरुत्तार्यत इतिव्युत्पत्तिः, तत्रापि द्विर्दअद्विदशा एवं त्रिर्दशः त्रिदशा इत्यादौ बहुव्रीहिसमासेन सुच् प्रत्य
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४४० यार्थस्योक्तत्वादुक्तार्थानां अप्रयोगः इति भवति,तत्र सुचो अप्रयोगा, आरात्रिकमित्यत्रतु यथारादित्यनेन पदेन त्रिरिति पदं समस्यते, तदासंख्यासमासे इति सूत्रेण संख्यावाचिनो नाम्नः, समासमात्रे पूर्वनिपाताभिधानात् त्रिरादिति प्राप्नोति न तु सुचो अप्रयोगः स्थात्सुच् प्रत्ययार्थस्य वारस्यकेनाप्यनुक्तत्वात् , अथोत्तार्यत इत्यनेन क्रियावाचिना अध्याहियमाणेन समस्यते, तदानामनाम्नकार्ये समासो बहुलमिति व्याकरण सूत्रेण नानोनाम्नासाक्षाद्विद्यमानेन समासाभिधानात् , क्रियावाचिना पदेन अध्याहियमाणेन च द्वितीयेनापि समासाभावप्रतिपादनात्सुच् प्रत्ययस्य अनुक्तार्थत्वेन तदनवस्थत्वप्रसंगाच, अथारात्रायते इत्यादिव्युत्पत्त्या मत्वर्थीये इके आरात्रिकपदसिद्धिस्तदपि न हरिहरादिविषयत्वेनापि तदवतारणस्य बहुलं लोके दर्शनात् , तस्मात्पूर्वमूरिग्रन्थेषु रूढस्यारात्रिकशब्दस्यैवान्वाख्यानं श्रेयः, किंवः प्रागल्भीप्रकाशनछमना कल्पितस्यारात्रिक शब्दस्यासंबद्धार्थानेकव्युत्पत्तिकल्पनाभिरात्मनायासितेन, तथा यदपि जिनपूजाव्याप्रियमाणपुष्पादिसंघट्टादिना जीवविराधनासंभवादीर्यापथिकीप्रतिक्रमणसमर्थनं तत्राप्युच्यते, प्रतिक्रमणं हि आ. लोयण पडिकमणे इत्यादि गाथोक्तदशविधप्रायश्चित्तमध्याद् द्वितीयं प्रायश्चित्तं तच्च प्रतिपंक्रमणं प्रतिक्रमणं, अतिचारान्निवृत्य गुणेष्वेव गमनं किमिति मया प्रयोजनमंतरेणैवंविधासत्कृत्यमध्यवसितमित्यादि पश्चात्तापरूपविकल्पेन मिथ्यादुष्कृतदानमितितात्पर्यमिति श्रीमदभयदेवसूरिभिः प्रायश्चित्तपंचाशकवृत्ती व्याख्यातं, एवंसति यदि पूजार्थपुष्पादिसंघटनेपि ईर्यापथकी प्रतिक्रमणं विधीयते, तदा
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पुष्पादिपूजायाः श्राद्धैरकृत्यत्वमेवावसीयेत, अतिचारजनितपापविशुद्ध्यर्थमेव प्रायश्चित्तविधानात् तथाच जिणभवणबिम्बठावणजत्तापूयाई सुत्तओ विहिणा इत्यादि गाथायां द्रव्यस्तवत्वेन गृहिणां विधेयत्वेनाभिहितस्य जिनभवनादेरपि तैर्निर्मापणाप्रसंगात्, यथाहि पुष्पादिसंघट्टनमात्रेपि, प्रायश्चित्तेनस्तदाकैव कथाजिन भवनादिनिर्माणे न च ईर्यापथकी प्रतिक्रमणरूपप्रायश्चित्तेन तन्निर्माणजातपातकस्य शुद्धिः तावदारंभ संभारसंभवस्य तस्य चातुर्मासिकादि बृहत्प्रायश्चित्तं विना शोधयितुमशक्यलात् नहि भुवोनिदाघदाहः प्रावृष्येण्यवारिवाहधारासारादृते जलघटपटलापिनिरोद्धुं पार्यते, तथाचालंगृहमेधिनां तन्निर्मापणाय स्वापतेयव्ययेन प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरमितिन्यायात्, एवंच प्रायश्चित्तभिया जिनगृहाद्यवि - धानेसाध्वीतीर्थवृद्धिः श्राद्धानांच संसारवीथी भवता व्यवस्थापिता स्यात्, नचागमे जिनगृहादि निर्माणेन गृहिणां क्वचित्प्रायश्चित्तविधिः श्रद्धापुरस्सरं जिनपात्रन्यायान्तस्ववित्त नियोजनार्जितकुशलानुबन्धिकुशललाभेनार्हद्भवनाद्यारंभप्रादुर्भ विष्णुजीव विराधनाजन्य कल्मषततेः प्रतिबन्धात्, इत्यादि जिनधर्मप्रबोधोदयेनच लब्धभूरि संवेगोद्भृतरंगितात्मा, श्रीकीर्त्तिसारगणेः शिष्याणुना श्रीमदानन्दाख्यमुनिना प्रकरणमिदं व्यरचि सोपयोगित्वादत्र लिखितः पूर्वोद्दिष्टविषयानामथाग्रेऽस्य यत्रे द्वितीयावृत्तौ लोकभाषायां अवतारो भवि व्यति, इति सुमनसां प्रीतयेऽस्तु मे प्रयासः ॥
"स्त्रिया जिनपूजा कार्या नवा” अर्थात् स्त्रीको श्रीजिनप्रतिमाकी पूजा करनी या नहीं ? [ उत्तर ] इस विषय में ढूँढियें की तरह
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शंका करनी अनुचित है क्योंकि शास्त्रोंकी संमतिसे श्रीजिनप्रतिमाकी पूजा करनी और आशातनादि होनेके कारणों से नहीं करनी यह दोनों मंतव्य मानने पड़ेंगे देखिये कि श्रीतीर्थकरमहाराजकी प्रतिमा तीर्थकरतुल्यमानी है इसीलिये श्रीजिनप्रतिमाकी पूजा हित सुख मोक्ष आदि फलकी हेतु है और वह श्रीजिनप्रतिमाकी पूजा श्रीज्ञाताधर्मकथा सूत्र आदि शास्त्रोंमें द्रौपदी आदिने करी लिखी है वास्ते पुरुषोंको तथा स्त्रियोंको श्रीजिनप्रतिमाकी पूजा करनी ऐसा श्रीगणधर आदि महाराजोंका उपदेश है तथा श्रीगणधर महाराजोंने जिसतरह श्रीठाणांग सूत्रआदि ग्रंथोमें (अहिमांस सोणिए इत्यादि) अर्थात् हड्डी मांस रुधिरादिसे श्रीजिनवाणीकी आशातना नहीं होनेके लिये सूत्रअध्ययन (पठन पाठन ) नहीं करना लिखा है इसीतरह श्रीप्रवचनसारोद्धार आदि अनेक ग्रंथोंमें (खेल इत्यादि) अथोत् नाकसम्बधीमल इत्यादि ये तथा (लोहिय इत्यादि ) अर्थात् शरीरसम्बधी ( खून ) रुधिरादि से श्रीजिनप्रतिमाकी आशातना नहीं करना लिखा है वास्ते कोई पुरुष व स्वीके शरीरद्वारा अकस्मात् (खुन ) रुधिरादि गिरता हैं तो आशतनादि नहीं होनेके कारणोंसे श्रीजिनप्रतिमाकी चंदनादि विलेपनद्वारा अंगपूजा नहीं करे इसीलिये श्रीमत् बृहत्खरतरगच्छनायकयुगप्रधानदादाजी श्रीजिनदत्तमुरिजी महाराजने इस दुस्सम कालमे श्रीजिनप्रतिमाकी चंदनविलेपनादिसे अंगपूजा करती तरुण स्त्रियोंको अकालवेला प्रगट हुआ ऋतुधर्म उसकी बहुत मलिनताके दोषसे याने पूजासमय अतुधर्मवाली हुई उस महामलिन
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४४३ तरुणस्त्रीका हाथके स्पर्शसे अतिशयवाली तथा श्रीजिनशासनकी उन्नतिकरनेवाली चमत्कारी देवाधिष्ठित श्रीमूलनायक जिन प्रतिमाकी आशातना और उसके अधिष्ठाता देवका लोप नहीं होने के लिये इस विशेष लाभको दीर्घदृष्टिसे विचारकर तरुणअवस्था वाली स्त्रीको श्रीमूलनायकजिनप्रतिमाकी चंदनादि विलेपनद्वारा केवल अंगपूजा नहीं करना उच्न पदोघट्टन कुलकमै लिखा है तथा विधिविचारसार कुलकमेंभी लिखा है कि
सागारमणागारं, ठवणाकप्पं वयंति मुणिपवरा । तत्थ पढम जिणाणं, महामुणीणं च पडिरूवं ॥१॥
भावार्थ-साकार अनाकाररूप स्थापनाकल्प प्रवरमुनियोंने कहा है उसमें प्रथम साकार कहे है कि श्रीजिनके तथा महामुनिके प्रतिरूप (सदृश प्रतिमा) हो ॥१॥
तं पुण सप्पडिहेरं, अप्पडिहेरं च मूलजिणबिंब । पूइजइ पुरिसेहि, न इथिआए असुइभावा ॥२॥
भावार्थ-वहपुन प्रातिहार्यसहित तथा प्रातिहार्यरहित श्रीमूलनायक जिनप्रतिमाको पुरुष पूजे स्त्रीअशुचिवाली नहीं पूजे ॥२॥ काले सुइभूएणं विसिठ पुप्फाइहिं विहिणाउ । सारत्थुइ थुतिगुरुई, जिणपूआहोइ कायवा ॥ ३ ॥
भावार्थ-कालवेला. ऋतुधर्मआवे वह स्त्री (शुचि) पवित्र होके विशेष श्रेष्ठ पुष्पादि (धूपदीप अक्षत नैवेद्य फल) करके
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विधिद्रव्य पूजा और सार स्तुति थुइगीत से श्रीजिनेश्वरकी भात पूजा करती हैं ॥३॥
पुरिसेणं बुद्धिमया, सुहबुद्धिं भावओ गणितेणं । जत्तेण होइयवं, सुहाणुबंधप्पहाणेणं ॥४॥
भावार्थ- शुभानुबन्ध करके प्रधानबुद्धिमान् पुरुष शुभ बुद्धिको भावसे भावताहुआ पूजामें प्रयत्न वाला होय ॥
संभवइ अकाले बिहु, कुसुमं महिला णं तेण देवाणं । पूआए अहिगारो न उहउ होइ सज्जुत्तो ॥५॥
भावार्थ-अकाल वेलाभी याने स्त्री जिनप्रतिमाकी पूजा करती हैं उससमयमेंभी उसस्त्रीको ऋतुधर्महोता है उसीलिये श्रीजिन देवकी पूजाकरनेमें उन ऋतुधर्म आनेवाली तरुणस्त्रियोंको अधिकार युक्ति युक्त नहीं है ॥५॥ लोगुत्तम देवाणं, समचणे समुचिओ इहं नेउ । सुइगुण जित्तणओ, लोए लोउत्तरे सूरीसेहिं ॥६॥
भावार्थ- इहां लोकोत्तम श्रीजिनदेवका ( समर्चन) पूजन उसमें समुचित (शुचिगुण ) पवित्र गुण ज्येष्ठपनेसे लोकमें और लोकोत्तर जिनधर्ममें (सूरीश) गणधरमहाराजोंने कहा जानना ॥६॥
न छिवंति जहा देहं, उसरणभावं जिणवरिंदाणं । तह तप्पडिमंपि सयं, पूअंति न जुवनारीओ ॥ ७ ॥
भावार्थ-जैसे अशुद्धशरीरको धारण करनेवाली ऋतुवंती स्त्री अन्य वस्तुको नहीं छूती है वैसे श्रीजिनप्रतिमाकोभी अपने हाथसे
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नहीं छूती है इसीकारणसे जवानस्त्रियां पूजा नहीं करती हैं याने श्रीजिनप्रतिमा की पूजा करती हुई तरुणस्त्री को अकालवेला ऋतुधर्म रुधिरपात (खूँनका झरना ) होता है उसी लिये तरुण अवस्थावाली स्त्री श्री मूलनायक जिनबिंब ( प्रतिमा ) की अपने हाथसे चंदनादि विलेपनद्वारा केवल अंगपूजा नहीं करें यह श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजने लिखा है परंतु बाल तथा वृद्ध अवस्थावाली स्त्रियों को श्री जिनप्रतिमा की अंगपूजाका निषेध नहीं लिखा है और तरुणत्रीको भी सर्व प्रकार से श्रीमूलनायक जिनप्रतिमाकी पूजाका निषेध नहीं किया है क्योंकि तरुणस्त्रीको श्रीमूलनायक जिनप्रतिमाकी सुगंधी धूप पूजा १ अक्षत पूजा २ कुसुमप्रकरपूजा ३ दीपक पूजा ४ नैवेद्य पूजा ५ फल पूजा ६ गीत पूजा ७ नाट्यादि पूजा ८ करने के बारेमें उक्तसूरिजीने निषेध नही लिखा है केवल अंग पूजाका निषेध लिखा है सो तो श्रीपूर्वाचार्य महाराजने भी १८ गाथा प्रमाण चैत्यवंदन उसकी टीकामें तरुण स्त्रियोंको श्रीमूलनायक जिनप्रतिमा के चरणआदि अंगको स्पर्शकरना निषेधलिखा
क्योंकि इसकालमें श्रीसिद्धाचलजी आदि तीर्थ पर भी श्रीमूलनायक जिनप्रतिमाकी चंदन विलेपनादिसे अंगपूजा करती हुई कई स्त्रियों को अकालवेला अकस्मात् महत्पाप बंधनरूप महामलिन ऋतु धर्म आजाता है । यहवात बहुतलोगों को मालूम है तो उक्त उचित कथन को कौन बुद्धिमान सर्वथा अनुचित कहेगा ? देखिये श्रावक भीमसीमाणकने सर्वलोकोंके हितके लिये छपाकर प्रसिद्धकीहुई " पुष्पवती विचार" नामकी पुस्तकमें लिखा है कि
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आ जगतमा समस्त प्राणीमात्रने त्राणभूत शरणभूत आभव तथा परभवमां हितकारी सुखकारी कल्याणकारीने मंगलकारी एवां त्रण तत्व छ तेनां नाम कहे एक तो देव श्रीअरिहंतजी बीजु गुरु सुसाधु तथा त्रीजो धर्म ते केवली भाषित एत्रण तत्व छे तेने आराधनानुं मुख्य कारण अनाशातना छे (आशातना नहीं करनी) अने एने विराधनानुं मुख्य कारण आशातना छे ते आशातना पण विशेषे करी अशुचिपणा थकी थाय छे इत्यादि तथा समस्त अशुचिमां महोटी अशुचि अने समस्त आशातनाओमां शिरोमणिभूत बली सर्वपाप बंधननां कारणोमां महत् पापोपार्जन करवानुं मुख्य कारण एतो एक स्त्रियोंने जे ऋतु प्राप्त थायछे अर्थात् जे पुष्पवती केहेवाय छे एटले स्त्रियोने अटकाव अथवा कोरे बेसवार्नु थाय छे तेने लोकोक्तिमें ऋतुधर्म कहे छे ते ऋतुधर्म यथार्थपणे न पालवा विषेर्नु (सर्वपाप बंधननां कारणोनां महत् पापोपार्जन करवानुं मुख्य कारण ) छे इत्यादि ।
तथा आ ग्रंथमां करेला उपदेश प्रमाणे जे पुष्पवती स्त्रियो पोतें प्रवर्तशे बीजाने प्रवर्तावशे तथा प्रवर्तनारने सहाय आपशे तेने अत्यंतलाभ थशे अने तेने परंपराए मोक्षसुखनी प्राप्ति पण अवश्य थशे-जे प्राणी आग्रंथमां करेला उपदेशथी विपरीत प्रवृत्ति करशे अथवा ए वातमा शंका कांक्षा करशे ते प्राणीनी लक्ष्मी तथा बुद्धिनो आभवमां नाश थशे अने सम्यक्त्व तो तेमां होयज क्याथी अर्थात् नजहोय तेना घरना अधिष्ठापक देवो तेने मुकी जशे अने ते जीव मिथ्या दृष्टि अनंत संसारी दुराचारी तथा कदाग्रही जाणनो केमके एम
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करवा थकी देवगुरु तथा धर्मनी महोटी आशातना थाय छै ते वात आ ग्रंथ वाचवा थकी विवेकी जनोना ध्यानमा तरत आवशे ।
इत्यादि लिखकर तपगच्छवालोंकी बनाई हुई ७० गाथाकी ऋतुवंतीस्त्रीकी सजाय और १८ गाथाकी छोतीभास तथा अंचल गच्छवालोंकी करी हुई ३३ गाथाकी सूतककी सजाय तथा ऋतुवंती स्त्रीके अधिकार संबंधी सिद्धांतोक्त ६ गाथाओं यह चार ग्रंथभेले छपवाये हैं उनमें विशेषतासे ऋतुवंती स्त्रीको दूसरे वस्त्र आदि नहीं छूने तथा पुस्तक श्रीजिन प्रतिमाको नहीं छूना पूजादर्शन इत्यादि बहुत कृत्योंका निषेध लिखा है, और अनेक दोष दुःखदंड लिखें हैं देखिये उस पुष्पवतीविचार नामकी पुस्तकमें तपगच्छवालोंकी करी हुइ सज्झाय लिखा है कि-ऋतुवंती नारियो परिहरे रे, बीजे वस्त्रे न अडके, सांजे रात्रे नारी मतफरो रे, मतवेसजो तडके ॥१॥ मतभालवी नारमालनीरे, छोडवा धर्म ठाम, प्रभुदर्शन पूजासद्गुरु रे, वांदवातजो नाम ॥२॥ पडिकमणुं पोषह सामाय करे, देववंदनमाला, जलसंघनें रथजातरारे, दर्शनदोषटाला ॥३॥रास वखाण धर्म कथारे, व्रतपच्चक्खाणमेलो, स्तवन सज्झाय रास गहुँलीरे, धर्मशास्त्रमखेलो॥४॥ लखj लखे नहीं हाथथुरे, न करे धर्मचर्चा, धूपदीवो गोत्रजारणारे, नहिं पूजा ने अर्चा ॥ ५॥ संघ जिमण प्रभावनारे, हाथे देजो मलेजो, बलिदान पूजा प्रतिष्ठानुरे, मतरांधीने देजो, ॥६॥ पडिलामे नहिं साधु साधवीरे, वस्त्र पात्र अन्नपान, रांक ब्राह्मणने हाथे आपे नहिं रे, दाण लोटने दान ॥१२॥ ऋतुवंती हाथे जलभरीरे,
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देरासरजो आवे, समकितवीजपामे नहिं रे, फलनारकीना पावे, ॥ २५ ॥ ऋतुवंती यात्राए चालतां रे, मतवेसजोगाडे, संघतीर्थ फरस्यां थकारे, पडशो पाताल खाडे ॥ २९ ॥ दर्शन पूजादिनसात मेरे, जिनभक्ति करवी, ब्रतपचरकाण वखाण सुणोरे पुण्यपालखी भरवी, ॥३१॥ वेदपुरान कुरानमारे, श्रीसिद्धान्तमां भाव्युं, ऋतु वंतीदोषघणोकह्योरे, पंचांगे पणदाख्यु ॥ ५० ॥ पहेले दाहाडे चंडालिणी कहीरे, ब्रह्मघातक बीजे, धोबण त्रीजे चोथे दिवसेरे, शुद्धनारी बंदीजे ॥५१॥ ऋतुवंतीनुं मुख देखतां रे, एक आंबिलदोष, बातडी करतां रागनीरे, पांच आंबिलदोष ॥५७ ॥ ऋतुबंती आसने बेसतारे, सात आंबिल साचा, छट्ठबार तास भाणे जम्यारे, नवगढ होये काचा ॥५८ ॥ ऋतुवंती नारीने आभड्यारे, छहर्नु पाप लागे, वस्तु देतां लेतां अट्ठमनोरे, कहो केम दोष भागे ॥५९ ॥ खाधुं भोजनतेनारी हाथ-रे, भवलाखनो पाप, भोग जोग नवलाखनोरे, वीर बोले जबाब ॥ ६०॥॥ ऋतुवंती खातां भोजन वध्युरे ढोरने लावी नांखे, भववार मुंडा करवा पडेरे, चंद्रशास्त्रने साखे, ॥ ६२ ॥ रजस्वला वाहणे समुद्रमारे बेसतां वाहण डोले, भांगेकां लागे तोफानमारे, मालवामेंका बोले ॥६३ ॥ लाख भव जाण अजाण मारे, लघुबड भव आठ, भव लाखने बाणु घातमारे, एम शास्त्रानो पाठ ॥६४॥ कमलाराणी प्रभुवांदतारे, वारलाख भवकीधा, मालण फूल अटकावमारे, लाख भवफल लीधां ॥६५॥
इसीतरह पुष्पवतीविचार नामक पुस्तकमें छपी हुइ छोतीभासमेंभी लिखा है कि-छोती मूर्ति स्त्रीधर्मिणी जाणो, तेहनो भय
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घणो आणोरे, जेहनो दोष दीसें निजनयणे, वली कह्यो जिनवयणेरे ॥ छो० १॥ दीठे अंध होय नेत्र रोगी, पंढ होये संभोगीरे, गंधे अन्नादिका कश्मल थाये, पापडी पडी धावलायरे ॥ छो०२॥ बेडी बूडे जेहने संगें, जावारंग उरंगेरे, स्नानजलेवेलवृक्ष सुकाये, फलफूल नविथायेरे,॥छो०३॥एम जाणी वीजे घरे राखो,तेहशुंभाषमभासोरे, वस्तुवानी आभडवानदीजे, दूरथकांज रहीजेरे॥छो०४॥ एमन राखेजेनर निजगोरी, तेहपापरथधोरीरे, प्रेमनरहे जे नारीप्रसारी ते पामेदुःखभारीरे ॥छो०५॥शाकिनी जे कुटुंबने खाये, नरकमांहे तेजायरे, दुःखदेखे ते त्यां अतिघणा, छेदादिकवधवंधतणारे, छो०६॥ सापिणी वाघणी रीछणी सिंहणी, श्यालिणी सुणी होई कागणीरे, अशुद्धयोनिमां पछीदुःखपामे, भवोभवपातकठामेरे॥ छो० ७॥ पुष्पवती विचार नामक पुस्तकमें अंचलगछवालोंकी करी हुई सूतककी सजाय है उसमें भी लिखा है कि-जिनपडिमा अंगपूजासार, नकरे ऋतुवंती जेनार, एमचर्चरी ग्रंथमा हे विचार, ए परमारथ जाणो सार ॥ पुष्पविचार नामकी पुस्तकके पत्र २२ तथा २३ में लिखा है कि-अथरजस्वला (ऋतुवंती) स्त्री अधिकारनी सिद्धान्तोक्त गाथा लिखतें हैं,
जापुप्फपवहं जाणीऊण, नहुसंकाकरेइ नियचित्ते, छिव्वइअ भंडगाइ, तथ्थय दोसाबहु हुंति ॥१॥ व्याख्याजे ऋतुधर्मवाली स्त्री जाणी करीने पोताना चित्तने विषे शंकाय नहिं हांडलादिक ठामने आभडे त्यां तेने घणा महोटा दोष लागे ॥१॥ लछीनासइदूरं, रोगायं तह वहंति अणुवरयं, गि
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हदेवयमुचंति, तं गेहूं जे न वज्जंति ॥ २ ॥ व्याख्या तेनी लक्ष्मी दूरनाशी जाय तथा रोग आतंक विषम अनिवारक थाय धरना अधिष्ठायक देव तेनुं घरमुकी जावे जे ऋतुधर्मथी आशातना नहिं वर्जे तेनेपूर्वोक्तवानां थाय || २ || जइकहविअणाभोगे, पुरिसे विछिव्व नियमहिलाए, णाहायस्स होइसुद्धि, इयभणियं सव्वलोएसु || ३ || व्याख्या - जो कदाचित् अजाणतो थको कोई पुरुष पोतानी ऋतुधर्मवाली स्त्रीने स्पर्श करे तो स्नानकस्यां शुद्धि थाय एवात सर्वलोकमहे कहेली छे ॥ ३ ॥ विहिजिणभवणे गमणं, घरपडिमापूअणं च सज्झायं, पुष्कवइ इथ्थीणं, पडिसिद्धं पूवसूरीहिं ॥ ४ ॥ विधिजिनभवनविषे जावुं घरमा जिनप्रतिमानी पूजा करवी अने स्वाध्याय करवो एटलावानां ऋतुधर्मवाली स्त्रीने पूर्वसूरिये निषेध्या छे. ॥ ४ ॥ आलोअणानपडइ, पुप्फबइ, जं तवं करे नियमा, नविअ सुत्तं अन्नं, तागुणइ तिहिं दिवसेहिं ॥ ५ ॥ ऋतुधर्मवाली स्त्रीण दिवस सुधी गुरुपासेंथी आलोयण लेवाने अर्थे पोतानुं पाप प्रकाशे नहिं वली तपस्या न करे नियम करे नहिं सूत्रगुणे भणे नहिं वली अन्यपण कोई भाषण न करे ॥ ५ ॥ लोएलोडतरिए एवं विहृदंसणं समुद्दिहं, जो भणइ नधि दोसा, सिद्धान्तविराहगोसोउ || ६ || लोकमांहे तथालोकोत्तर एटले जिनशासनमांहे एवी रीते ऋतुवंती स्त्री हांडलादिकठामने जिनप्रतिमाने आभडे त्यां तेने घणा महोटा दोष लागे ए कर्तुं जे कहे छे के एम दोष नथी ते सिद्धान्तना विराधक जाणवा ॥ ६ ॥
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४५१ तपगछाधिराज भट्टारकश्रीहीरविजयसरिप्रसादीकृत हीरप्रश्नोत्तर ग्रंथमेभी लिखा है कि-जिनगृहे निशायां नाट्यादिकं विधेयं नवा जिनगृहे निशायां नाट्यादिविधेनिषेधोज्ञायते यत उक्तं रात्रीननंदिर्नवलिः प्रतिष्ठा, न स्त्रीप्रवेशो न च लास्यलीला इत्यादि किंचकापितीर्थादौ तत्क्रियमाणं दृश्यते तत्तुकारणिकमिति बोध्यम् व्याख्या-श्रीजिनमंदिरमें रात्रिको नाटकपूजादि भक्ति करनी वा नहिं १ उत्तर-श्रीजिनमंदिरमें रात्रिको नाटक पूजादि भक्तिकरना यह विधि निषेध है, क्योंकि शास्त्रोंमें कहा है कि श्रीजिनमंदिरमें रात्रिमें नंदिनिषेध बली पूजा तथा प्रतिष्ठा निषेधश्रीजिनमंदिरमें रात्रिको स्त्रियोंका प्रवेश निषेध नाटक पूजा भक्तिरात्रिको निषेध है, कोई तीर्थादिमें वहकरनेमें आता हुवा देखते हैं, सो तो कारणिक है ऐसा जानना औरभी लिखा है कि श्राद्धनां रात्री जिनालये आरात्रिकोत्तारणं युक्तं नवा श्राद्धानां जिनालये रात्रौ आरात्रिकोत्तारणं कारणे सति युक्तिमनान्यथा व्याख्या-श्रावकोंको रात्रिमें श्रीजिनमंदिरमें आरति पूजा करनी युक्त है वा नहिँ ? उत्तर श्रावकोंको श्रीजिनमंदिरमें रात्रिमें आरति पूजा करनी कारण होतो युक्त है, अन्यथा रात्रिकों श्रीजिनमंदिरमें आरती पूजा करनी युक्त नहिं है तथा-कायोत्सर्गस्थितजिनप्रतिमानां चरणादि परिधापनं युक्तं नवा? जिनप्रतिमानां चरणादि परिधापनं तु सांप्रत व्यवहारेण न युक्तियुक्तं प्रतिभाति ॥ व्याख्या-कायोत्सर्गस्थितश्रीजिनप्रतिमाके चरणादि अंगको वस्त्र पहराने रूप पूजा युक्त है वा नहिं ? उत्तर श्री
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जिनप्रतिमाके चरण आदि अंगको वस्त्र पहरानेरूप पूजा वर्त्तमान कालके व्यवहारसें युक्तियुक्त नहिं भासती है - यह श्री जिनप्रतिमाकी वस्त्रपूजाका निषेध तथा वर्त्तमानकालमें श्रीजिनप्रतिमाकी चंदनविलेपनादिसें अंगपूजा करती हुई बहुत तरुणस्त्रियोंको ऋतुधर्म होता है इसी अभिप्रायसें उन तरुणस्त्रियोंको श्रीमूलनायक जिनप्रतिमाकी केवल चंदनविलेपनादिसें अंगपूजाका निer आशाना और अधिष्ठायकदेवका लोप दुःकर्मबंध इत्यादि नहिं होनेके लिये उपर्युक्त महानुभावोंके वचन उचित विदित होतें हैं, सोतपोटमतके पक्षावलंबित द्वेषभावके दुराग्रहको त्याग - करखपरहित के लिये सत्यस्वीकार करें, अन्यथा निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर आशातना नहो इत्यादि शास्त्रप्रमाण संमत सत्य प्रकाशित करें
१ प्रश्न - स्त्रीके ऋतुधर्मद्वारा श्रीजिनप्रतिमाकी महाआशातना होती है, उससे वह स्त्री विराधक भावको प्राप्तहोकर संसार में अनेक दुःख युक्तभवभ्रमणकरती है, इसीलिये अत्यंत भ्रष्टता के विकारको धारण करनेवाली ऋतुवंती स्त्रीको श्रीजिनप्रतिमाकी अंगपूजा दर्शनादि नहिं करना मानते हो तो इस वर्त्तमान विषमकाल में श्रीजिनप्रतिमाकी चंदन विलेपनादिसें अंगपूजा करती हुई कई तरुण स्त्रियोंके अत्यंत भ्रष्टमहामलिन ऋतुधर्म होता है, उससे उसप्रतिमाधिष्ठायक देवका लोप और महाआशातना दुःकर्मबंध इत्यादि होता है, वास्ते उन तरुण स्त्रियोंको श्रीमूलनायक जिनप्रतिमाकी चंदन विलेपनादिसे अंगपूजा नहिं करना क्यों नहिं मानते हो ?
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२ प्रश्न-पुरुष तथा स्त्री श्रीजिनप्रतिमाकी अंगपूजा करें परन्तु आशातनादि कारणोंसे कोई पुरुष वा काई स्त्री श्रीजिनप्रतिमाकी अंगपूजा नहिं करें एसा तपगच्छवालोंका मंतव्य वा उपदेशहै या नहिं ?
३ प्रश्न-इसदुषमकालमें तरुणस्त्रीको कभी १० या १५ दिनमें कभी २० दिनेमें और कभी २५ दिनमें इसतरह अनियमसे बेटेम अकस्मात् ऋतुधर्म होता है इससे श्रीजिनप्रतिमाकी अंगपूजाकरनेमें भी अत्यंत महामलिन ऋतुधर्म द्वारा श्रीजिनप्रतिमाकी महाआशातनाहि होति हैं सो नहिं होनेकेलिये कितनेदिन पहिले और कितने दिन पीछे उस तरुणस्त्रीको श्रीजिनप्रतिमाकी अंगपूजानहिंकरना बतलाते हो?
४ प्रश्न-तरुण स्त्रियां जानतीहै, कि हमको पाँचदशदिनपहिले वा पीछे बेटेम अकस्मात् ऋतुधर्महोताहै, और वहअत्यंतभ्रष्टताका भराहुआ होताहै, उससे श्रीजिनप्रतिमाकीमहाआशातना अधिष्ठायकदेवकालोप और दुष्कर्मबंधहोताहै, तो फिर अपने शरीरकी व्यवस्थाजानकर भी श्रीजिनप्रतिमाकी अंगपूजाकरती हुई अत्यंत भ्रष्ट महामलिन ऋतुधर्मसे महाआशातनादि दुष्कर्मबंध क्यों करती हैं?
५ प्रश्न-श्रीसिद्धाचलजीतीर्थपर आशातनारूप लालनने अपनी पूजा करवाई सो यह नहिं होना चाहिये इत्यादि भावसे कितने लोगोंने श्रीसंघको बहुतआग्रहदिखलायातो उसपरमपवित्र श्रीसिद्धाचलजीतीर्थपर श्रीमूलनायकजिनप्रतिमाजीकीचंदन विलेपनादि
३० जिनदत्तसरि
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कसे अंगपूजाकरतीहुई बहुततरुणस्त्रियोंके अत्यंत भ्रष्ट महामलिनऋतुधर्मद्वारा महाआशातनादि दुष्कर्मबंधहोताहै, यह महाआशातनादिकतो अवश्य नहिंहोनीचाहिये, इसकेप्रबंधमें स्वपरहितके लिये आप उचित आग्रह क्यों नहिं दिखलाते हैं ?
६ प्रश्न-श्रीजिनप्रतिमाजीकि थूकसें आशातना नहिं होनेके लिये मुखे मुखकोष बांधकर श्रावक श्राविका पूजाकरतेहै, इसी तरह श्रीजैनशास्त्रकी थूकसे आशातना नहिंहोनेकेलिये आपके महान्पूर्वज साधु साध्वीओंने मुखे मुहपत्तिकांनमेलगाके व्याख्यान करनेकी गुरुपरंपरासें चलीआई समाचारीको उत्थापी या नहिं किंतु कितनेकमुनिनामधारकोने श्रीजैनशास्त्रकी आशातना करनेके लिये उत्थापीहै, उससे यहलोकपूर्वजोंकी उक्त समाचारिसे विरुद्ध हैं या नहिं ? जैसे कि एक वस्तुकाविरुद्ध प्ररूपक मिथ्यात्वीहोवे तो फिर अनेकवस्तुकाविरुद्धप्ररूपक पुरुष क्यौं नहिं होवे, ___७ प्रश्न-तीरथनी आशातना नवि करिये, इस पूजाकी ढालमें पंडित श्रीवीरविजयजीने लिखा है, कि आशातना करता थकां धन हाणी, काया वली रोगेभराणी, इत्यादि तो श्रीसिद्धाचलजीतीर्थपर केई तरुणस्त्रियोंको ऋतुधर्मसंबंधी महामलीनरुधिरद्वारा श्रीजिनप्रतिमाजीकी अंगपूजामें आशातना अनुचित है या नहिं ?
८ प्रश्न-श्रीदेवगुरु धर्मको आराधनेका मुख्यकारण आशातना नहिं करना है, और उनको विराधनेका मुख्यकारणआशातना है, इसलिये इस दुःषम कालमें बहुततरुणस्त्रियोंको अकाल
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वेला अत्यंत भ्रष्ट महामलीन ऋतुधर्मद्वारा श्रीजिनराजकी प्रतिमाकी अंगपूजामें महाआशातनासें विराधनाकरनी उचित है कि अंग पूजा नहिं करनेरूप आशातनाके अभावसें आराधना करनी उचित है इन आठ प्रश्नोंके आठ उत्तर सप्रमाण पूर्वोद्दिष्टविषयको नहिं माननेवाले सत्यप्रकाशित करें, इत्यलंविस्तरेण, नमःतीर्थाय,
॥ जिनाणाविरुद्ध शास्त्राणाविरुद्ध सुविहितक्रमागत परंपराविरुद्ध देशआचरणालक्षणविरुद्ध सर्व आचरणा लक्षणविरुद्ध सुविहित गछोंका तथा आचार्योंका सत्यप्ररूपक आचार्योंका अवर्णवाद करे, अशुद्ध प्ररूपक का पक्षकरे, और अपनी अथवा अपने पूर्वजोंकी प्रमादसे, छमस्थपणेसें वा रागद्वेषसें भया हठाग्रह उससे भइ भूलकों कबूल न करे छतिशक्तिसें न सुधारे, वह गछ वा वह पुरुष आराधक या विराधक है और निश्चय व्यवहारसहित इस लोकपर लोकके आराधक युगप्रधानोंकी शुद्धसमाचारी वा गछव्यवस्था दिखलाते हैं, तथाहि
सामायारिं पवक्खामि, सबदुक्खविमोक्खणि, जंचरित्ताणं निगंथा, तिन्ना संसारसागरं ॥१॥ पढमाआवस्सियानाम, विइयाय निसीहिया, आपुच्छणायतइया, चउच्छीपडिपुच्छणा ॥२॥ पंचमाछंदणानाम, इच्छाकारो छ?ओ, सत्तमो मिच्छकारोय, तहकारोय अट्ठमो ॥३॥ अम्भूठाणं नवम, दसमा उवसंपया, एसाद संगासाहूणं, सामायारी पवेइया ॥ ४ ॥ गमणे आवस्सियं कुजा, ठाणेकुजानिसीहियं, आपुच्छणा सयंकरणे, परकरणे पडिपुच्छणा ॥५॥ छंदणा दबजाएणं, इच्छाकारोयसारणे, मिच्छाकारोय
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निंदाए, तहकारो पडिस्सुए ॥ ६॥ अम्भूटाणं गुरुपूया, अत्थणे उपसंपया, एवंदुपंचसंजुत्ता, सामायारीपवेइया ॥७॥ पुचिल्लंमि चउभ्भागे, आइचंमि समुहिए, भंडयं पडिलेहित्ता, वंदित्ताय त ओगुरुं ॥ ८॥ पुच्छिज्जा पंजलीउडो, किंकायच्वं मए इहं, इत्थंनिउइउं भंते, वेयावच्चे व सिज्झाए ॥ ९॥ वेयावच्चे निउत्तेणं, कायव मगिलायओ, सज्झाएवा निउत्तेणं, सबदुक्ख विमोक्खणे ॥१०॥ दिवसस्सचउरो भाए, कुजाभिक्खू विउक्खणो, तो उत्तरगुणेकुजा, दिणभागेसु चउसुवि ॥ ११॥ पढमंपोरिसिसज्झायं, वीइयंझाणंझियायइ, तईयाएभिक्खायरिअं, पुणोचउत्थीएसज्झायं ॥१२॥ आसाढेमासे दुपया, पोसेमासे चउप्पया, चित्तासोएसु मासेसु, तिपया हवइ पोरिसी ॥ १३ ॥ अंगुलंसत्तरत्तेणं, पक्खेणयदुरंगुलं, वड्डए हायएवावि, मासेणय चउरंगुलं ॥ १४ ॥ आसाढबहुल पक्खे, भदिवए कत्तिएय पोसेय, फग्गुण वइसाहेसुय, नायबाओमरताओ ॥ १५ ॥ जेहामूले आसाढे सावणे, च्छहिं अंगुलेहिपडिलेहा, अट्टहिं बिइयतीयंमि, तइए दसअहिंचउत्थे ॥ १६ ॥ रतिं. पिचउरो भाए, भिक्खूकुजा वियक्खणो, तत्तोउत्तरगुणेकुजा, राइ भागेसुचउसुवि॥ १७ ॥ पढमपोरिसिसज्झायं, विइयंझाणं झियायइ, तइयाए निद्दमोक्खंतु, चउत्थी भुजोविसज्झायं ॥ १८ ॥ जंनेइ जयारति, नक्खत्तं तंमिनहचउभ्भाए ॥ संपत्ते विरमेजा, सज्झायं पओ. सकालंमि ॥ १९ ॥ तम्मेवय नक्खत्ते, गयणचउभ्भाय सावसेसंमि, वेरत्तियंपिकालं, पडिलेहित्ता मुणीकुजा ॥२०॥ पुविलंमि चउभागे, पडिलेहित्ताण भंडगं गुरुं, वंदित्तु सज्झायं, कुजा दुक्ख विमो.
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क्खणं ॥ २१ ॥ पोरिसीए चउभ्भागे, वंदिताण तओगुरुं, अप्पड - कमित्ताकालस्स, भायणं पडिलेहए ।। २२ ।। मुहपतिं पडिले हित्ता, पडिलेहेजगुच्छयं, गुच्छगलइयंगुलिओ, वत्थाईपडिलेहए || २३ || उथिरं अतुरियं पुत्रंता वत्थमेव पडिलेहे, तोबिइयं परफोडे, तहयंचपुणो पमज्जेजा ॥ २४ ॥ अणच्चाविवं आवलियं, अणाणुबंधिं अमोसलिंचेव, छप्पुरमा नवखोडा पाणीपाणिविसोहणं ।। २५ ।। आरभडासम्मद्दा, वजेयवाय मोसली तईया, पष्फोढणा चउत्थी, विक्खित्ता वेड्या छट्टा || २६ || पसिढिल पलंब लोला, एगा मोसा अगरूवधुणा, कुणइ पमाणि पमायं, संकिए गणणोवयं कुञ्ज ॥ २७ ॥ अणूणाइरित्त पडीलेहा, अविवचासा तवय, पढमंपयं पसत्थं, सेसाणिउ अप्पसत्थाणी || २८ || पडिले - हणं कुणतो, मिहोsहं कुणइ जणवयकहंवा, देइपच्चक्खाणं, वres सयं पडिच्छवा || २९ ॥ पुढवी आऊक्काए, तेऊबाऊ वणस्सह तसाणं, पडिलेहणा पमत्तो, छण्हंपि विराहओहोइ ॥ ३० ॥ पुढवी आऊकाए, तेऊबाऊ वणस्सइतसाणं, पडिलेहणा आउत्तो, छण्हंपिआराहओहो || ३१ ॥ तइयाए पोरिसिए, भत्तपाणं गवेसए, छण्हमन्नयरागम्मि, कारणम्मि समुहिए || ३२ ॥ वेण वेयवच्चे इरियँढाएय संजैमट्टाए, तहपाणवत्तिगाए छठ्ठे पुण धम्मैचिंताए ॥ ३३ ॥ निग्गंथो धितो, निग्गंथीवि नकरेजछहिंचेव, ठाणेहिंतु इमेहिं, अणइकमणया सेहो || ३४ ॥ अयंके उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुतीसु, पाणिर्देया तवहेउँ, सरीरवोच्छेयणट्टाए || ३५ || अवसेसं भंडगं गिज्झा, चक्खूसा पडिलेहए, परमद्धजोअणाओ, विहारं
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४५८ विहरए मुणी ॥ ३६ ॥ चउत्थीए पोरिसीए, निक्खिवित्ताणं भायणं, सज्झायंतओकुञ्जा, सवभावविभावणं ॥ ३७ ॥ पोरिसीए चउम्भाए, वंदित्ताणतओगुरुं, पडिक्कमित्ताकालस्स, सेजं तु पडिलेहए ॥ ३८ ॥ पासवणुच्चारभूमिंच, पडिलेहिज जयं जई, का उस्सग्गं तओ कुजा, सबदुक्खविमोक्खणं ॥ ३९ ॥ देवसियंच अईयारं, चिंतेज अणुपुव्वसो, नाणंमिदंसणं मि, चरित्तमि तहेवय ॥ ४० ॥ पारिय काउस्सग्गो, वंदित्ताण तओगुरुं, देवसियंतु अई यारं, आलोइज जहक्कमं ॥४१॥ पडिकमित्तानिस्सल्लो, वंदित्ताण तओगुरुं, काउस्सग्गं तओकुजा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥४२॥ पारियकाउस्सग्गो वंदित्ताण तओगुरुं, थुइमंगलंच काउं, कालं संप डिलेहए ॥४३॥ पढमं पोरिसिसज्झायं, बिइयं ज्झाणंझियायई, तई. याए निद्दमोक्खंतु, सज्झायं तु चउत्थीए ॥ ४४ ॥ पोरिसीए चउ. त्थीए, कालंतु पडिलेहिया, सज्झायंतु तओकुज्जा, अबोहंतो असंजए ॥४५॥ पोरिसीए चउम्भाए, वंदिऊण तओ गुरुं, पडिक्कमित्ताकालस्स, कालं तु पडिलेहए ॥४६॥ आगएकायवुस्सग्गे, सव्वदुक्ख विमोक्खणे, काउस्सग्गं तओकुजा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ४७ ॥ राईयंच अईयारं, चिंतेज अणुपुब्बसो, नाणंमि दंसणमी चरित्तमितवं मिय ।। ४८॥ पारिय काउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरूं, राईयंतु अईयारं, आलोएज जहकमं ॥४९॥ पडिक्कमित्तु निसल्लो, वंदित्ताण तओ गुरुं, काउस्सग्गं तओ कुजा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ५० ॥ किं तवं पडिवजामि, एवंतत्थविचिंतए, काउस्सग्गंतु पारित्ता, वंदईय तओगुरुं ॥५१॥ पारिय काउस्सग्गो, वंदित्ताण
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तओगुरुं तवं संपडिवजित्ता, करिज सिद्धाणसंथवं ॥ ५२ ॥ एसा सामायारी, समासेण वियाहिया, जंचरिता बहूजीवा, तिन्नासंसारसागरं तिबेमि || ५३ ॥ इइ उत्तराज्झयणस्स छवीसइमं साहूसामायारी णामं अज्झयणं संमत्तं ॥
नमोसुयस्स || नमिऊण महावीरं, तिअसिंदन मंसिअं महाभागं, गच्छायारं किंची, उद्धरिमो सुअसमुद्दाओ || १ || गाथाच्छंदः ॥ अत्थेगे गोअमापाणी, जेउम्मग्गपइट्ठिए, गच्छंमि संवसित्ताणं, भमई भवपरंपरं ॥ २ ॥ विषमाक्षरेति गाथाछंदः || जामद्धजामदिण परंक, मासं संवच्छरं पिवा, सम्मग्गपट्ठिएगच्छे, संवसमाणस्सगोअमा || ३ || लीलाअलसमाणस्स, निरुच्छाहस्सवीमणं, पिरक विरकाइ अण्णेर्सि, महाणुभागाण साहूणं ॥ ४ ॥ उज्जमं सव्वथामेसु, घोरवीरतवाइअं, लजंसकं अइकम्म, तस्स विरिअं समुच्छले ॥ ५ ॥ वि० ॥ वीरिएणंतुजीवस्स, समुच्छलिएणगोअमा, जम्मंतरक पावे, पाणी मुहुतेनिद्दहे || ६ || विष० || तम्हानिउणं निहालेउ, गच्छंसम्मग्गपट्ठिअं, बसिज तत्थआजम्मं, गोअमासंजरमुणी ||७|| विष० || मेढी आलंबणं खंभं, दिट्ठीजाणं सुउत्तमं ( उत्तिमं ) सूरी जं होइगच्छस्स, तम्हातंतु परिरकए || ८ || अनु० ॥ भयवंकेहिं, लिंगेहिं, सूरिं उम्मग्गपट्ठिअं, विआणिजा छउमत्थे, मुणी तं मे निसामय || ९ || अनु० || सच्छन्दयारिंदुस्सीलं, आरंभेसुपवत्तयं, पीढयाइ पडिबद्धं, आउक्कायविहिंसगं ॥ १० ॥ अनु० ॥ मूलुत्तरगुणभट्ठे । समायारी विराहयं, अदिन्नालोअणं निचं, निचं विगहपरायणं ॥ ११ ॥ विष० ॥ छत्तीसगुण समन्नागएण, तेणवि अवस्स
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कायव्या, परसरिकया विसोही, सुहृवि ववहारकुशलेण ॥ १२ ॥ गा०॥ जह सुकुसलोवि विज्झो, अन्नस्सकहेइ अत्तणोवाहि, विजुवए संमुच्चा, पच्छासो कम्ममायरइ ॥१३॥ गा० ॥ देसंखितंतु जाणित्ता, वत्थंपत्तं उवस्सयं, संगहे साहुबग्गंच, सुत्तत्थंचनिहालइ ॥१४॥ अनु० ॥ संगहोवग्गहं विहिणा, नकरेइ अ जो गणी, समणं समणिंतु दिरिकत्ता, समायारिं न गाहए ॥ १५ ॥ विष०॥ बालाणं जोउ सीसाणं, जीहाए उवलिंपए, न सम्ममग्गं गाहेइ, सोसूरीजाणवेरिओ ॥१६॥ अनु० ॥जीहाए विलिहतो, नभद्दओ सारणा जहिनस्थि, दंडेणवि ताडतो, सभद्दओसारणा जत्थ ॥१७॥ गा०॥ सीसोवि वेरिओसोउ, जोगुरुं नवि बोहए, पमायमइराघत्थंसमायारीविराहयं ॥१८॥ अनु० ॥ तुम्हारिसावि मुणिवर, पमाय, वसगा हवंति जइपुरिसा, तेणन्नोकोअम्हं, आलंवणं हुजसंसारे ॥१९॥ गा० ॥ नाणंमि दंसणंमिअ, चरणमिअतिसुवि समयसारेसु चोएइ जोठवेडं, गणमप्पाणंच सोअगणी ॥२०॥ गा० ॥ पिंडं उवहिं सिजं, उग्गम उप्पायणेसणासुद्धं, चारित्तररकणहा, सोहिंतो होइसचरित्ती ॥२१॥ गा०॥ अपरिस्साविसम्म, समपासीचेवहोइ कजेसु, सोररकइ चक्खुंपिव, सबालबुड्डाउलंगच्छं ॥ २२ ॥ गा० सीआवेइ विहारं, सुहसीलगुणेहिंजो अबुद्धीओ, सोनवरि लिंगधारी, संजमजोएण निस्सारो ॥२३॥ गा०॥ कुलगाम नगर रजं, पयहिअजोतेसुकुणइ हु ममत्तं, सोनवरि लिंगधारी, संजमजोएण निस्सारो ॥२४॥ गा०॥ विहिणा जो उ चोएइ, सुत्तंअत्थंचगाहइ, सोधनो सोअ पुण्णोअ, स बंधू मुकदायगो, ॥२५॥ अनु० ॥ सएव भव्वसत्ताणं,
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चक्खू भूए विआहिए, दंसेइजोजिणुद्दिहं, अणुट्ठाणं जहट्ट, ॥ २६ ॥ अनु० ॥ तित्थयरसमोसूरी, सम्मं जो जिणमयं पयासेर, आणं अइकमंतो, सो काउरिसोन पुण सम्पुरिसो ||२७|| गा० ॥ भट्ठायारोस्सूरि, भट्ठायाराशुविरकओ सूरी, उम्मग्गट्टिओसूरी, तिन्निविमग्गं पाणासंति ||२८|| गा० ।। उम्मग्गट्टिए सम्मग्गनासए, जोउ सेवएसूरिं, नियमेणं सोगोयम, अप्पंपाडेइसंसारे ॥ २९ ॥ गा० ॥ उम्मग्गट्टिओ इकोवि, नासए भव्वसत्तसंघाए, तंमग्गमणुसरंतं, जहकुत्तारो नरोहोइ ॥ ३० ॥ गा० ॥ उम्मग्गमग्गसंपट्टि आण, साहूणगोयमानूणं, संसारोय अणतो, होइ सम्मग्गनासीणं ॥ ३१ ॥ गा० ॥ सुद्धसुसाहुमग्गं, कहमाणोठवेइतइयपरकंमि, अप्पाणंइयरोपुण, गिहत्थधम्माओ चुक्कत्ति ||३२|| गा० ॥ जइ विनसकंकाउं, सम्मंजिणभासियं अणुट्ठाणं, तोसम्मंभासिजा, इहभणियं खीण रागेहिं ॥ ३३ ॥ | गा० ॥ ओसन्नोवि विहारे, कम्मं सोइ सुलहबोहिय, चरणकरणं विसुद्धं, उवबूर्हितो परूविंतो ॥ ३४ ॥ गाथा || सम्मग्गमग्गसंपट्ठिआणं, साहूणकुणइवच्छलं, ओसहभेसजेहिय, सयमन्नेणंतु कारेइ || ३५ || गा० ॥ भ्रयाअस्थि भविस्संति, के तेलुकन मियकमजुअला, जेसिं परहियकरणिक, बद्धलरकाणवो लिहिकालो || ३६ || गीतिच्छंदः || तीआणागयकाले, केईहोहिं ति गोयमासूरि, जेसिंनामगहणेवि, होइनियमेण पच्छित्तं ||३७|| गा० ॥ जओ, सहरी भवंति अणविरकयाइ, जहमिच्चवाहणालोए, पडिपुच्छा हिं चोअण, तम्हाउगुरूंसयाभयः || ३८ || गा० ॥ जोप्पमायदोसेणं, आलसेण तवय, सीसवग्गं न चोएइ, तेण आणाविराहिया ||३९|| अनु० ॥ संखेवेणं मए सोम, बन्नियं गुरुलरकणं, गच्छस्सलरकर्णधीर,
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संखेवेणं निसामय ॥ ४० ॥ गा० ॥ इइ आयरियसरूवनिरूवणाहिगारो पढमो संमतो ॥
गीअत्थे जेसुसंविग्गे, अणालस्सी दढव्वए, अरकलियचरित्तेसययं, रागदोस विवजिए॥४१॥ विष०॥ निविय अट्ठमयट्ठाणे, सोसि यकसाए जियंदिए, विहरिजातेण सद्धिंतु, छउमत्थेणविकेवली ॥ ४२ ॥ विष० ॥जे अणहीयपरमत्थ, गोयमासंजएभवे, तमा तेवि जिजा, दुग्गइपंथदायगे ॥४३॥ विष० ॥ गीअत्थस्स वयणेणं, विसंहालाहलंपिवे, निविगप्पोअ भरिकजा, तरकणे जं समुद्दवे ॥४४॥ अनु० ॥ परमत्थओ विसंनोतं, अमयरसायणंखुतं, निविग्धं जंन तं मारे, मओवि अमयस्समो ॥ ४५ ॥ विष० ॥ अगीअत्थस्स वयणेणं, अमिअंपिन(टए, जेणनोतं भवे अमयं, जंअगीयत्थदेसियं ॥४६॥ विष० ॥ परमत्थओन तं अमयं, विसंहालाहलंखुतं, नोतेण अजरामरोहुज्झा, तरकणा निहणंवए ॥ ४७ ॥ विषमा० ॥ अगीयत्थकुसीलेहि, संगं तिविहेण वोसिरे, मुरकमग्गस्सिमे विग्घे, पहमितेणगे जहा ॥ ४८ ॥ विष० ॥ पञलियं हुअवहंदर्छ निस्संको तत्थपविसिउं, अत्ताणं निद्दहिजाहि, नोकुसीलस्स अल्लि (दिनु) ए' ॥४९॥ विष० ॥ पजलंति जत्थधगधगस्स, गुरुणावि चोइएसीसा, रागदोसेण वि अणुसएण, तं गोयमनगच्छं ॥ ५० ॥ गा० ॥ गच्छोमहाणुभावो, तत्थवसंताण निजाराविउला, सारणवारण चोअण, माई हिं नदोसपडिवत्ती, ॥५१॥ गा०॥गुरुणोछंदगुवत्ती, सुविणीए जिअपरीसहेधीरे, नविथद्धे नविलुद्धे, नवि गारविए विगहसीले ॥५२॥ गा०॥खंतेदंतेगुत्ते, मुत्तेवेरग्गमग्गमल्लीणे,
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दसविहसामायारी, आवस्सग संजमुज्जुत्ते ॥५३॥ गा० ॥ खरफरुसककसाए, अणिह दुहाइ णिदुरगिराए, निब्भच्छण निद्धाडण, माईहिं जेनपउस्संति ।। ५४ ॥ गा०॥ जेअन अकित्तिजणए, नाजसजणएनाकजकारीअ, नपवयणुड्डाहकरे, कंठग्गयपाणसेसेवि ॥ ५५ ॥ गा० ॥ गुरुणा कजमकजे, खरककसदुद्दनिहुरगिराए, भणिएतहत्तिसीसा, भणंति तं गोयमा गच्छं ॥५६॥ गाथाछंदः ॥ दूरुज्झिय पत्ताइसु, ममत्तए निप्पिहेसरीरेवि, जायमजायाहारे, (जत्तयमत्ताहारे) वायालीसेसणाकुशले ।।५७।। गा० ॥ तंपि न रूवरसत्थं, नयवन्नत्थं न चेव दप्पत्थं, संजमभरवहणत्थं, अरकोवंगं वहणत्थं ॥५८॥गा०॥ वेअण वेआवच्चे, इरिअट्ठाएअ संजमट्ठाए, तहपाणवत्तिआए, छटुंपुंण धम्मचिंताए ॥५९॥ गा० ॥ जत्थयजिट्टकणिट्ठो, जाणिजइ जिट्ठवयणबहुमाणो, दिवसेण वि जो जिहो, नयहीलिजइ स गोअमागच्छो ॥६०॥ गीतिः ।। जत्थयअजाकप्पो, पाणचाएविरोरदुम्भिरके, नयपरिभुंजइ सहसा, गोअमगच्छंतयं भणिअं॥६१॥ गा० ॥ जत्थयअजाहिंसमं, थेरावि न उल्लवंति गयदसणा, नयझायंतित्थीणं, अंगोवंगाईतंगच्छं ॥६२॥ गा० ॥वजेह अप्पमत्ता, अज्जासंसग्गिअग्गिविससरिसं, अजाणु चरोसाहू, लहइअकित्तिं खु अचिरेण ॥६३॥ गा॥ थेरस्स तवस्सिस्सव, बहुस्सुअस्सव पमाणभूअस्स, अज्जासं सग्गिए, जणजपणयं हविजाहि ॥६४॥ गा०॥ किंपुणतरुणो अबहुस्सुओअ, नय विहुविगिढतवचरणो, अजासंसग्गीए, जणजपणयं न पाविजा ॥ ६५ ॥ गा० ॥ जइवि सयं थिरचित्तो, तहावि संसग्गिलद्धपसराए, अग्गिसमीवेवघयं, विलिञचित्तं खु अजाए
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॥ ६६ ॥ गा० ॥ सव्वत्थइत्थीवग्गंमि, अप्पमत्तोसया अवीसत्थो, नित्थरइबंभचेरं, तविवरीओ न नित्थरइ ॥ ६७ ॥ गा०॥ सवत्थेसु विमुत्तो, साहसवत्थहोइ अपवसो, सोहोइ अणप्पवसो, अजाणं अणुचरंतोउ ॥ ६८ ॥ गा०॥ खेलपडिअमप्पाणं, नतरह जहमच्छिआविमोएउं, अजाणुचरोसाहू, नतरइअप्पविमोएउं ॥६९॥ गा० ॥ साहुस्सनत्थिलोए, अन्जासरिसाहुबंधणे उवमा, धम्मेण सह ठवतो, नयसरिसोजाण असिलेसो ॥७०॥ गा०॥ वायामित्तेण विजत्थ, भट्टचरिअस्स निग्गहं विहिणा, बहुलद्धिजुअस्सावी, कीरइ गुरुणा तयंगच्छं ॥ ७१ ॥ गा०॥ जत्थय संनिहिउरकड, आहडमाईण नामगहणेवि, पूईकम्मा भीआ, आउत्ताकप्पतिप्पेषु ॥ ७२ ॥ गा० ॥ मउए निहुअसहावे, हासदवविवजिए विगह मुक्के, असमंजसमकरते, गोअरभूमट्ट विहरंति ॥ ७३ ॥ गा० ॥ मुणिणं नाणाभिग्गह, दुकरपच्छित्त मणुचरंताणं, जायइ चित्तचमकं, देविंदाणपि तंगच्छं ॥ ७४ ॥ गा० ॥ पुढविदगअगणि मारुअ, वाउवणस्सइतसाणविविहाणं, मरणंतेवि नपीडा, कीरइमणसातयंगच्छं ।। ७५॥ गाथा ॥ खज्जूरीपत्तमुंजेण, जोपमजे उवस्सयं, नोदयातस्स जीवेसु, सम्मंजाणाहि गोअमा । ७६ ॥ अनु० ॥ जत्थयवाहिरपाणिअ, बिंदूमित्तंपि गिम्हमाईसु, तण्हासोसिअपाणा, मरणे वि मुणि न गिर्हति ॥ ७७ ॥ गा० ॥ इच्छिाइजत्थसया, वीअपएणाविफासुअंउदयं, आगमविहिणा निउणं, गोअमगच्छं तयं भणिअं॥७८॥ गा०॥ जत्थयसूल विसइअ, अण्णयरेवावि चित्तमायंके, उप्पण्णे जलणुज्जालणाइ, न कीरइमुणितयं गच्छं ॥७९॥ गीतिः ।।
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बीअपएणं सारूविगाइ, सड्ढाइमाइएहिंच, कारिती जयणाए, गोअमगच्छंतयंभणिअं ।८०॥ गा०॥ पुष्फाणंबीआणं, तयमाईणं च विविहदवाणं, संघट्टणपरिआवण, जत्थनकुजातयंगच्छं ॥ ८१ ॥ गा०॥ हासंखेडाकंदप्प, नाहिअवायं नकीरए जत्थ, धावण डेवणलंघण, ममकारावण्ण उच्चरणं ॥८२॥ गाथा ॥ जत्थित्थीकरफरिसं, अंतरिअंकारणेवि उप्पन्ने, दिट्ठीविसदित्तग्गी, विसंव वजिजएगच्छे ॥३॥ गा०॥बालाए वुड्ढाए, नत्तुअ दुहिआइ अहव भइणीए, नयकीरइ तणुफरिसं, गोअमगच्छंतयं भणिकं ॥८४॥ गा०॥जत्थित्थीकर फरिसं. लिंगी अरिहावि सयमविकरिजा, तंनिच्छयओ गोअम, जाणिजामूलगुण भट्ट ॥८५॥ गा०॥ कीरइ बीअपएणं, सुत्तममणि नजत्थविहिणाउ, उप्पण्णे पुणकजे, दिरकाआयंकमाईए, ॥८६॥ गा०॥ मूलगुणेहिं विमुकं, बहुगुणकलिअंपिलद्धिसंपन्नं, उत्तमकुलेवि जायं, विद्धा डिजइ तयंगच्छं ॥८७॥ गा०॥जत्थहिरण्णसुवण्णे, धणघन्ने कंस तंब फलिहाणं, सयणाण आसणाणय, झुसिराणं चेव परिभोगो॥ ८८ ॥ गा०॥जत्थय वारडिआणं, तेकूडिआणंच तहयपरिभोगो,मुत्तुंसुकिल्लवत्थं, कामेरातत्थगच्छंमि ॥८९॥ गा०॥ जत्थहिरण्णसुवण्णं, हत्थेण पराणगंपि नो छिप्पे, कारणसमप्पिअंपिहु, निमिसखणद्धपि तं गच्छं ॥९०॥गा०॥जत्थय अञ्जालद्धं, पडिग्गहमाई वि विविह मुवगरणं, परिझुंजइ साहूहिं, तंगोअम केरिसंगच्छं ।।११।। गा०॥ अइदुल्लहमेसजं, बलबुद्धिविवड्डणंपि पुद्धिकरं, अजालद्धं भुंजइ, कामेरातत्थ गच्छंमि ॥९२॥ गा० ॥ एगो एगिथिएसद्धिं, जत्थ चिहिजगोअमा, संजईए विसेसेणं, निम्मेरंतंतु भासिमो ॥ ९३ ॥ अनु०॥ दड्वचारितं
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मुत्तुं, आइअंमइहरंच गुणरासिं, इकोअज्झावेई, तमणायारं नसंगच्छं || १४ || गा० ॥ घणगजिअ हयकुहए, विजूदुग्गिज्झगूढ हिअयाओ, अजा अवारिआओ, इत्थीरजं न तं गच्छं ।। ९५ ।। गा० ॥ जत्थ समुद्देसकाले, साहूणं मंडलीइ अजाओ, गोअम ठवंतिपाए, इत्थीरजं न तंगच्छं ।। ९६ ।। गा० || जत्थमुणीणकसाया, जगडिजंतावि परकसा एहिं नेच्छंतिसमुट्ठेउं, सुनिविट्ठो पंगुलोचैव ॥ ९७ ॥ गा० ॥ धम्मंतराय भीए, भीए संसारगब्र्भवसहीणं, न उईरंति कसाए मुणी, मुणीणतयंगच्छं ।। ९८ ।। गा० ॥ कारणमकारणेणं अहकहवि मुणीहि कसा, उदरवि जत्थ रुंभहि, खामिजहि जत्थ तंगच्छं ।। ९९ ।। गा० ॥ सीलतवदाणभावण, चउविहधम्मंतराय भयभीए, जत्थ बहूगीयत्थे, गोअम गच्छं तयं भणियं ॥ १०० ॥ गा० ॥
त्थय गोयम पंचह, कहविसूणाण इक्कमविहुजा, तंगच्छं तिविहेणं, वोसिरिअ वइज अन्नत्थ || १०१ || गा० ॥ भ्रूणारंभपवत्तं, गच्छंवेसुजलं न सेविजा, जंचारित्तगुणेहिंतु, उज्जलंतंतु सेविज्जा ।। १०२ ।। गा० || जत्थयमुणिणोकयविकयाई, कुवंति संजम भट्ठा, तंगच्छं गु सायर, विसंव दूरं परिहरिजा ॥ १०३ ॥ गा० ॥ आरंभे सुपसत्ता, सिद्धं तपरम्मुद्दा विसयगिद्धा, मुत्तुं मुणिणो गोअम, वसिज मझे सुवि हिआणं ॥ १०४ ॥ गा० ॥ तम्हासम्मंनिहालेउं, गच्छं सम्मग्गपद्विअं वसिञ्जापरक मासंवा, जावजीवंतु गोअमा ।। १०५ ।। अनु० ।। खुड्डोवा अहवा सेहो, जत्थररकेउवस्तयं, तरुणो वाजन्थए गागी, कामेतत्थभासि || १०६ ।। विष० ।। इइवीओ साहूसरूव निरूवणा हिगारो सम्मत्तो ॥
जत्थ एगाखुड्डी, एगातरुणीउ ररकएवसहि, गोअमतत्थविहारे,
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कासुद्धिवंभचेरस्स ॥१०७।। गा०॥जत्थय उवस्सयाओ, बाहिंगच्छेदुहत्थमित्तंपि, एगारत्तिसमणी, कामेरातत्थगच्छस्स ॥१०८॥गा०॥ जत्थयएगासमणी, एगोसमणोअ जंपएसोम, निबंधुणाविसद्धिं, तंगच्छं गच्छगुणहीणं ॥१०९॥ गा० ॥ जत्थजयार मयारं, समणी जंपइ गिहत्थपञ्चरकं, पञ्चरकंसंसारे, अज्झापरिकवइ अप्पाणं ॥११०॥ गा० ॥ जत्थयनिहत्थभासाहि, भासए अजिआ सुरुद्वावि, तं गच्छं गुणसायर, समणगुण विवजिअंजाण ॥१११॥ गा०॥ गणिगोअमजाउचिअं, से अंवत्थ विवजिउं, सेवए चित्तरूवाणि, नसा अजा. वियाहिया ॥ ११२ ॥ विषमा० ॥ सीवणंतुन्नणं भरणं, गिहत्थाणं तु जाकरे, तिल्ल उज्वट्टणंवावि, अप्पणोअ परस्सय ॥११३॥ विषमा०॥ गच्छइ सविलासगई, सयणीअंतूलिअंस विवोअं, उच्चट्टेइ सरीरं, सिणाणमाईणि जाकुणइ ॥ ११४ ॥ गा० ॥ गेहेसु निहत्थाणं, गंतूणकहाकहेइकाहीआ, तरुणाइ अहिवडते, अणुजाणे साइपडिणीआ ॥११५ ॥ गा० ॥वुड्डाणं तरुणाणं, रत्तिं अजाकहेइजाधम्म, सागणीणिगुणसायर, पडिणीआहोइ गच्छस्स ॥११६ ॥ गा० ॥ जत्थयसमणीणमसंखडाई, गच्छंमि नेव जायंति, तंगच्छंगच्छवरं, गिहत्थ भासाउ नो जत्थ ॥११७॥ गा० ॥ जोजत्तोवाजाओ, नालोअइ दिवसपरिक अंबावि, सच्छंदासमणीओ, मयहरिआए न ठायंति ॥ ११८ ॥ गा० ॥ विंटलिआणि पउंजंति, गिलाणसेहीणनेव(य)तेप्पंति, अणागाढे आगाढं, करति आगाढि अणागाढं ॥ ११९ ॥ गा० ॥ अजयणाएपकुव्वंति, पाहुणगाण अवच्छला, चित्तलियाणि अ सेवंति, चित्तारयहरणेतहा ॥१२०॥ विष० ॥ गइविभमाइएहिं,
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आगार विगारतह पगासंति, जहवुड्डाणविमोहो,समुईरइ किंतु तरुणाणं ॥१२१॥ गा०॥ बहुसो उच्छोलिती, मुहनयणे हत्थपायकरकाओ, गिण्हेइ रागमण्डल, सोइंदिअतहयकवटे ॥ १२२ ॥ गा० ॥ जत्थयथेरीतरुणी, थेरीतरुणीअ अंतरेसुअइ, गोअमतंगच्छवरं, वरनाणचरित्तआहारं ॥ १२३ ॥ गा० ॥ धोअंतिकंठिआओ, पोअंती तहय दिति पोत्ताणि, गिहिकज चिंतगाओ, नहु अन्जागोअमाताओ ॥ १२४ ॥ गा० ॥ खरघोडाइहाणे, वयंतितेवावितत्थवचंति, वेसत्थीसंसग्गी, उवस्सयाओसमीवंमि ॥ १२५ ॥ गा०॥ छक्कायमुक्कजोगा, धम्मकहा विगह पेसण गिहीणं, गिहिनिस्सिज्जं वाहिति, संथवं तहकरतीओ ॥१२६॥ गा० ॥ समा सीसपडिच्छीणं, चोअणासु अणालसा, गणिणीगुणसंपन्ना, पसत्थ पुरिसाणुगा ॥१२७॥ अनुष्टप्०॥ संविग्गा भीअपरिसाय, उग्गदंडायकारणे, सज्झायज्झाण जुत्ताय, संग्गहेअ विसारया ॥ १२८ ॥ विषमा० गा० ॥ जत्थुत्तर पडिउत्तर, वडिआ अजाउ साहुणासद्धिं, पलवंति सुरुहावि, गोयमकिंतेणगच्छेण ॥ १२९ ॥ गा०॥ जत्थयगच्छे गोयम, उप्पण्णे कारणंमि अजाओ, गणिणी पिहिठिआओ, भासंती मउअसद्देणं ॥ १३० ॥ गा० ॥ माऊएदुहिआए, सुएहाए अहव भइणिमाईणं, जत्थन अजा अरकइ, गुत्तिविभेअं तयंगच्छं ॥ १३१ ॥ गा० ॥ दसणाइआरकुणई, चरित्तनासं जणेइ मिच्छत्तं, दुण्हविवग्गाणजा, विहारमेअं करेमाणी ॥१३२ ॥ गा० ॥ तम्मूलंसंसारं, जणेइ अजावि गोअमानूणं, तम्हाधम्मुवएसं, मुत्तुं अन्नन भासिज्जा ॥ १३३ ।। गा०॥ मासे मासेउजाअजा, एगसित्थेणपारए, कलहे गिहत्थेभा
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साहिं, सव्वंती निरत्थयं ॥ १३४ ॥ वि० ॥ इइसाहुणी सरूव निरूवणाहिगारो तइओ संमत्तो। महा निसीह कप्पाओ, ववहाराओ तहेवय, साहूसाहूणी अट्टाए, गच्छायारं समुद्धरिअं ॥ १३५ ॥ वि० ॥ पढंतुसाहूणो एयं, असज्झायं विवज्झिउं, उत्तमंसुय निस्संद, गच्छायारं सुनुत्तमं ॥ १३६ ॥ अनुष्टु० || गच्छायारं सुणित्ताणं, पढित्ताभिक्खु भिक्खुणी, कुणंतु जंजहा भणिअं, इच्छंता हिअमप्पणी, तिबेमि, ॥ १३७ ॥ विषमाक्षरेति गाथा च्छंदः ॥ इइगच्छायारपइन्नसु सिरिपुव्वधरविरइअं सम्मत्तं ॥
अथ श्री सुविहितगच्छपरम्परायाश्च आक्षेपपरिहारौ ॥
अत्राह कश्चित् तपोटमताश्रितः खरतरगच्छपट्टावल्याः कल्पितम्, तत्रास्ति प्रतिविधानम् किंचित्संप्रदायागतं प्राचीनं सप्रमाणं सन्ती - ति ब्रूमहे, नवांगविवरणपंचाशका दिविवरणान्त्यप्रशस्तिषु प्रगटतया दर्शितम्, तच्च मया प्रागेव लिखितमतो पुनर्न लेख्यमिति, तथायत्रालये नियत्रिता पंचलिंगीप्रकरणवृत्तिः संदेहदोलावली प्रकरणवृत्तिः चैत्यवंदन कुलकवृत्तिः इत्यादिग्रन्थेषु आद्या: प्रस्तावनाः प्रान्त्याः प्रशस्तयश्च दृष्टव्याः । इहतु ग्रंथगौरवान्न लिखिताः ताः ततोऽवसेयाः, अपरंच हरिभद्राष्टक आत्मभ्रमोच्छेदनभानुः पर्यूषणानिर्णय: प्रश्नोत्तरमंजरीः प्रश्नोत्तरविचारादिभाषाग्रन्थाः यंत्रमुद्रिताः विलो - कनीयाः, भवभीरुतया समग्रदृष्ट्या च मध्यस्थधिया, नचाग्रहेण कुपक्षाग्रहेण च, प्रयोजनं बुद्धेः फलं तत्वविचारणं च इत्यादि, श्लोकनी त्या कः खलु गच्छः प्राचीनतमः का च खलु प्राचीनतमा पट्टपरम्परा ३१ दत्तसूरि०
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स्फुटा भविष्यति, उपर्युक्तग्रन्थानां सारभावार्थस्विदम् सौधर्मामुनिपतिप्रगट, वीर जिनेश्वरपाट, मिथ्यामततमहरणकुं, भव्यदिखाव
वाट || २ || सुस्थित सुप्रतिबद्धगुरु, सूरिमंत्र को जाप, कोटिकी योजन ध्यानधर, कोटिकगच्छसुथाप || ३ || दशपूर्वी श्रुतकेवली, भयेवज्रधरस्वाम, तादिनते गुरुगच्छको, वज्रशाखभयोनाम || ४ || चंद्रसूरी भये चंद्रसम, अतिहिबुद्धिनिधान, चंद्रकुली सवजगतमें, पसर्यो बहु विज्ञान || ५ || वर्द्धमानके पाटपर, सूरिजिनेश्वर भाश, चैत्यवासिकूं जीतकर, सुविहितपक्षप्रकाश || ६ || अणहिलपुरपाटणसभा, लोकमिले तिहांलक्ष, खरतरविरुद सुधानिधि, दुर्लभराज समक्ष || ७ || अभयदेवसूरिभये, नवअंगटीकाकार, थंभणपासप्रगटकर, कुष्टमिटावणहार || ८ || श्रीजिनवल्लभसूरिगुरु, रचना शास्त्र अनेक, प्रतिबोधे श्रावकबहुत, ताके पट्टविशेष ॥ ९ ॥ हुंबड श्रावक वागडी, अढारेहज्जार, जैनदयाधर्मी किये, वरतै जयजयकार || १० || दादा नाम विख्यातजस, सुरनरसेवकजास, दत्तमूरिगुरु पूजतां, आनंद हर्षउल्लास ॥ ११ ॥ दिल्लि में पतसाहनें, हुकम उठायासीस, मणिधारी जिनचंदगुरु, पूजो विसवावीस ॥ १२ ॥ ताके पट्टपरम्परा, श्रीजिनकुशलमूरिंद, अकबरकुं परचा दीआ, दादा श्रीजिनचंद ॥ १३ ॥ यह संक्षिप्तसुविहितगच्छपदावली लिखि है ॥ अथ संस्कृतपद्येन सा पुनर्वदति, नमः श्रीवर्द्धमानाय, श्रीमते चसुधर्म्मणे, सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यै सर्वविदस्तथा ॥ १ ॥ अज्ञान तिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया, नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः || २ || सूरिमुद्योतनं वन्दे, वर्द्धमानं जिनेश्वरं जिन
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चंद्रं प्रभुं भक्त्या, भयदेवमहं स्तुवे ॥३॥ श्रीजिनवल्लभ जिनदत्तसूरि जिनचंद्र जिनपतियतींद्राः, लक्ष्मीर्जिनेश्वरगुरुः कुर्वन्तु सुखानि संघस्य ॥ ४ ॥ वन्दे जिनप्रबोधं, जिनचन्द्रयतीश्वरं च जिनकुशलं, जिनपद्मसूरि जिनलब्धि जिनचंद्र जिनोदया जञ्जः ॥५॥ जिनराज जिनभद्रं, जिनचंद्रं जिनसमुद्रसरिवरं, सूरि श्रीजिनहंसं, जिनमाणिक्यं च वन्देऽहं ॥ ६॥ आकार्य गुर्जरदिशोवरलाभपुर्या, श्रीसाहिना गुरुगुणानिपुणानिरीक्ष्य, सन्मानिता युगवरप्रवरावदाता, जातावशीकृतसुरा जिनचन्द्रपूज्याः ॥७॥ तत्पट्टे जिनसिंहमूरिसुगुरुर्जातस्ततोधीमंतां, मान्यः श्रीजिनराजसूरिमुनिपस्तत्पट्टसूर्योपमः, श्रीमच्छ्रीजिनरत्नमरिगणभृत् श्रीजैनचन्द्रस्ततः, पूज्यः श्रीजिनसौख्यसूरिरभवद्विद्यावतामुत्तमः ॥८॥ तत्पट्टोदयशैलभास्करनिभस्तेजखिनामग्रणीः श्रीमच्छ्रीजिनभक्तिसरिसुगुरुर्जज्ञे गणाधीश्वरः, तत्पदाबुजसेविनो युगवराः सद्भूतयोगीश्वरा जाता श्रीजिनलाभमरिगुरवः प्रज्ञागुणानुत्तराः ॥९॥ संवद्वेदहुताशनाष्टवसुधासंख्ये शुभे चाविने, द्वादश्युत्तरवासरेऽसितगते श्रीमगुडाख्ये पुरे, यैराप्तं पदमुत्तमंगुणगुरुश्रीसद्गुरोर्वाक्यतस्ते स्युः श्रीजिनचन्द्रमुरिगुरवः संघस्य कामप्रदाः ॥१०॥ श्रीसूरते श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः, प्रदत्तपट्टाजितसर्वसूरिभिः, गुणान्वितारंजितभूरिसूरयो, जाताश्च ते श्रीजिनहर्षसूरयः॥ ११ ॥ संवन्नेत्रनिधानसिद्धिवसुधासंख्येसुलग्नोदये, सप्तम्यां सहमासके गुरुयुतौ पक्षे सिते येन वै, श्रीमद्विक्रमपत्तनेगुणनिधौ प्राप्तं पदं चोत्तमं, जीयाच्छ्रीजिनपूर्वगोयतिपतिः सौभाग्यमरिर्गुरुः ॥ १२ ॥ अन्दे शैलधरांकरूपनिधने मासे सिते फाल्गुने, ऐशान्यां
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४७२ गुरुवासरे गुणनिधौ देशे च श्रीविक्रमे, पत्रिंशगुणराजिते वरपदे स्थाप्यो हि योगीश्वरैः, जीव्याच्छ्रीजिनहंसमरिसुगुरुर्मान्यः सदा वाग्मिनां ॥ १३ ॥ संवत्सायकतिस्रअंकवसुधासंख्ये सुलग्नोदये, धार्मिण्यां तपमासकेशनियुते दुर्गे च श्रीविक्रमे, श्रीमच्छ्रीजिनहंससूरिसुगुरोप्राप्तं पदं वाक्यतस्तेऽमी श्रीजिनचंद्रमुरिगुरवो नन्दतु भट्टारकाः ॥ १४ ॥ रसशरनिधिचन्द्रे विक्रमाब्दे सुमासे, असितशशिसुघने कार्तिके पंचमीशे, सुगुणमुनिपवर्यः, शर्मकृन्नित्यचर्यः, जयतु जिनसनाथः कीर्तिसूरीश्वरः सः, ॥१५॥ वर्षे वर्षगुहास्यनन्दवसुधासंख्ये शुभे मासके, माधे कृष्णसुघस्रपंचमीदिने प्राप्तं पदं चोत्तम, श्रीखरतरगणनायकः सुविहितानुष्ठानचर्यावरः, श्रीमजिनचारित्रसरिः सुगुरुीमान्सदा नन्दतु ॥१६॥षत्रिंशद्गुणरत्ननीरनिलयः श्रीशंखवालान्वयः, प्रस्फुल्लामलनीरसंभवगणाव्याकोसहंसोपमा, क्षोणिनायकनम्रकर्मदलना दीपाख्यसाध्वंगजाः, शर्म:श्रेणिकरा जयन्तु जगति श्रीकीर्तिरत्नाव्हया ॥ १७ ॥ श्रीमजिनकृपाचन्द्रसूरे जगति यशसा ते धवलिते, पयः पारावारं करिवरमभौमं कुलिशभृत् , कपकैलाशं सुरवरः सुधां च मृगयते, कलानाथं राहुः कमलभवनोहंसमधुना ॥१८॥ अन्धिलब्धिकदंबकस्य तिलकोनिःशेषमूर्यावलेरापीडः प्रतिबोधनैपुण्यवतामग्रेसरोवाग्मिनां दृष्टान्तो गुरुभक्तिशालिमनसां मौलिस्तपःश्रीजुषां, सर्वाश्चर्यमयो महिष्टसमयः श्रीगौतमः । स्तान्मुदे ॥ १९ ॥ वन्दामिभवाहूं, पाईणं चरमसयलसुयनाणिं, सुत्तस्सकारगमिसिं, दसाणुकप्पेयववहारे॥२०॥अस्या भावार्थो यथा१श्रीमहावीरस्वामी ७२ वर्षायुः, उससमय१-२ निन्हवहवा, २ सु.
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धर्मस्वामी शतायः२० वः सिद्धः,३जंबस्वामी ८० वर्षायः ६४ वर्षेः सिद्धः, ४ प्रभवस्वामी १०५ वर्षायुः ७५ वर्षेः स्वर्ग गतः, ५ शय्यभवसरिः सर्वायुः ६२,९८ वर्षेः खर्ग गतः, ६ यशोभद्रसरिः ८६ वर्षायुः १४८ वर्षेः स्वर्गगतः-७ संभूतिविजयसूरिः ९० वर्षायुः१५६ वर्षेः स्वर्ग गतः ८ भद्रबाहूस्वामी वर्षायुः ७६,१७० वर्षेः स्वगंगतः ९ स्थूलभद्रस्वामी ९९ वर्षायु २१९ वर्षेः, स्वर्गगताः इणकेसमय ३ तीसरोनिन्हवहवो, १० आर्यमहागिरिः शतायुः इणुकेसमय ४ चोथो निन्हवहवो ५मोनिन्हवहूवो, ११ आर्यसुहस्तिमरिः शतायुः २६५ वर्षेः स्वर्गगतः, १२ श्रीसुस्थितमरिः श्रीसुप्रतिबद्धसरिः कोटिकगणो जातः, १३ इन्द्र. दिन्नमरिः, १४ श्रीदिन्नसरिः, १५ श्रीसिंहगिरिः ४७० वर्षे विक्रमादित्यहूवो, १६ श्रीवनस्वामी ८८ वर्षायुः ५८४ वर्षेः दिवं गतः, इससमय ६छटोनिन्हवहूवो, १७ श्रीवज्रसेनसूरिः, १८ श्री चंद्रसरिः चंद्रकुलं जातं, ५८४ वर्षे ७ मोनिन्हवहवो, १९ श्रीसमंत भद्रसरिः ६०९ वर्षे दिगम्बरोत्पत्तिः,२० श्रीदेवसरिः, २१ श्रीप्रयो तनमरिः२२ श्रीमानदेवमरिः शांतिस्तवकर्ता, २३ श्रीमानतुंगसरिः भक्तामरकर्ता, २४ श्रीवीरसरिः ९८० वर्षे देवडिगणिक्षमाश्रमणः, ९९३ वर्षे कालिकाचार्यजीने (४) चोथ री संवत्सरी करी, जिनभद्र गणिक्षमाश्रमणशीलांकाचार्य श्रीहरिभद्रसरिजीहूवा, २५ श्रीजयदेवसरिः, २६ श्रीदेवानंदसूरि, २७ श्रीविक्रममूरिः २८ श्रीनरसिंहसूरिः, २९ श्रीसमुद्रमरिः, ३० श्रीमानदेवसरिः, ३१ श्रीविबुधप्रभसूरिः, ३२ श्रीजयानन्दमूरिः, ३३ श्रीरविप्रभसूरिः, ३४ श्रीयशोभद्रसरिः अपरनाम यशोदेवसरि एसाभी देखनेमें आवे है, ३५ श्रीवि
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मलचन्द्रसरिः, ३६ श्रीदेवमूरिः अपरनाम श्रीदेवचंद्रसूरिः एसाभी देखनेमें आवे है, ३७ श्रीनेमिचंद्रसरिः ३८ श्रीउद्योतनमूरिः, ३९ श्रीवर्धमानसूरिः, संवत १०८० आबूजीमें विमलवसही प्रतिष्ठी, ४० श्रीजिनेश्वरसूरिः खरतर विरुद उसवक्त कमलाहूवा, ४१ श्रीजिनचंद्रमूरिः, ४२ अभयदेवसूरिः, नवांगवृत्तिकर्ता, ४३ जिनवल्लभसूरिः संवत् ११६७ पाट मधुकर खरतर, गणभेद १, ४४ जिनदत्तसूरिः संवत् ११६९ पाट रुद्रपल्लीयखरतरगणभेद २, ४५ जिनचंद्रसरिः मणियाला संवत् १२११ पाट, इणोकेसमयमें आंच लिया १२१३, ४६ श्रीजिनपतिसूरिः संवत् १२२३ पाट, १२७७ स्वर्गगताः, १२८५ तपाहूवा, ४७ श्रीजिनेश्वरसरिः १२७८ पाट, लघुखरतर. ३ संवत् १३३१ में, ४८ जिनप्रबोधसूरिः १३३१ पाट, ४९ श्रीजिनचंद्रसरिः संवत् १३४१, ५० श्रीजिनकुशलसूरिः संवत् १३७७ पाट संवत् १३८९ स्वर्ग, ५१ जिनपद्मसूरिः १३८९ पाट संवत् १४०० वैशाखसुदि १४ दिवंगतः, ५२ जिनलब्धिमूरिः संवत् १४०० पाट, संवत् १४०६ दिवंगतः, ५३ जिनचंद्रसरिः १४०६ पाट १४१५ दिवंगतः, ५४ जिनोदयमूरिः १४१५ पाट १४२२ बेगडखरतर ४, ५५ श्रीजिनराजसूरिः संवत् १४३२ पाटवेठा संवत् १४७४ पीपलियाखरतर ५, ५६ श्रीजिनभद्रसूरिः १४७५ पाट, ५७ जिनचंद्रसूरिः १५१४ पाट, इणुंके समय १५२४ लोंकाहुवा, रेवडीयागच्छहूवो, ५८ जिनसमुद्रसूरिः संवत् १५३० पाट १५५५ स्वर्ग, ५९ जिनहंसमरिः संवत् १५५५ पाट १५८२ स्वर्ग मुहताकर्मसी पाटमहोच्छवकीधौ, १५६४ बडाआचारजिया ६, ६०
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जिनमाणिक्यसरिः १५८२ पाट १६१२ स्वर्ग, पायचंदिया, ६१ जिनचंद्रमरिः संवत् १६१२ पाट १६७० वर्ग क्रिया उद्धार कियो कर्मचंदरी वारमें, १६२१ भावहर्षीया खरतर ७, ६२ श्रीजिनसिंहसूरिः १६७० पाट १६७४ स्वर्ग, ६३ श्रीजिनराजसूरिः १६७४ पाट १६९९ स्वर्ग १६८६ छोटाआचारजिया ८, १७०० में रंगविजया ९, तन्मध्ये श्रीसारीया खरतर १०, ६४ श्रीजिनरत्नसरिः १६९९ पाट १७११ स्वर्ग ६५ श्रीजिनचंद्रसरिः १७११ पाट १७६३ स्वर्ग ६६ श्रीजिनसुक्खमूरिः १७६३, १७८० रिणीमध्ये दिवंगतः, ६७ श्रीजिनभक्तिसूरिः १७८० पाट १८०४ कच्छमांडबीमध्ये स्वर्ग ६८ श्रीजिनलाममूरिः १८०४ पाट १८३४ स्वर्ग ६९ श्रीजिनचंद्रसरिः १८३४ पाठ १८५६ सुरते सर्ग ७० श्रीजिनहर्षसरिः १८५६, पाट १८९२ स्वर्ग ७१ श्रीजिनसौभाग्यसूरिः १८९२ पाट १९१७ स्वर्ग मंडोंवरिया खरतर १८९२ मेहूवा, ११, ७२ श्रीजिनहंसमरिः १९१७ फागुणवदि ११ पाट १९३५ में खर्ग, ७३ श्रीजिनचंद्रमूरिः १९३५ मा. व० ११, ७४ श्रीजिनकीर्तिमूरिः १९५६ का. व. ५ पाट १९६७ स्वर्ग ७५ श्रीजिनचारित्रमूरिः १९६७ मा. व. ५ पाट, श्रीबृहत्खरतरगच्छे श्रीजिनकीर्तिरनसरिशाखायां वर्तमानविजयराज्ये जं० यु० प्र० भ० श्रीमजिनकृपाचंद्रसरिः स्वस्तिविचरतें हैं इदानींतनीये श्रीमोहनचरिते द्वितीयसर्गेपि इत्थमेव न्यगादि तद्यथा तदा खरतरे गच्छेऽभवन् प्राभाविकास्तु ये, रेखावन्त इमेऽभूवंस्तेषु विद्याप्रभावतः ॥ ३८ ॥ श्रुतं शमाय मंत्रादि विज्ञानं विघ्नशान्तये, वचोयदीयं
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बोधाय धन्यास्ते यतयो भुवि ॥ ३९ ॥ शासनाधीश भगवन्महावीराद्यथागमत् संतान एषां तत्प्रासंगिकं किंचिदिहोच्यते ॥ ४० ॥ महावीरात्सुधर्मार्य जंबूश्रीप्रभवादयः, आचार्याः क्रमशोऽभूवन् नवत्रिंशत्सुसंयताः ॥ ४१ ॥ चत्वारिंशास्ततोऽभूवन्सूरयःश्रीजिनेश्वराः, आणहिलं पत्तनं ते विहरन्तः समागमन् ॥ ४२ ॥ धर्मोद्यतं कृतं तत्र, श्रीजिनेश्वरसूरिभिः, वीक्ष्य भीमनृपः सद्यः प्रससाद महामनाः ॥ ४३ ॥ प्रतिवादिमतोत्साद एतेखरतरा इति, तेभ्यः खरतरेत्याख्यं विरुदं प्रददौ नृपः ॥ ४४ ॥ गगनेभव्योमचन्द्र मित ( १०८० ) विक्रमसंसदि || अलभन्तनृपादेतद् विरुदं श्रीजिनेश्वराः ॥ ४५ ॥ शासने वर्धमानस्य, कुलं चान्द्रं पुरातनम् तस्मादारभ्य लोकेऽस्मिन्नामोत्खरतराभिधाम् ॥ ४६ ॥ तत्पट्टे जिनचन्द्राख्या अभवन्सूरयस्ततः । संवेगरंगशालादिग्रन्थरत्न विधायकाः ॥ ४७ ॥ सूरयोऽभयदेवाख्यास्तेषां पट्टेऽतिविश्रुताः, नवांगीवृत्तिकर्त्तारोऽभूवस्तीर्थप्रभावकाः ॥ ४८ ॥ ततस्तेषां पट्ट आसन्, सूरयो जिनवल्लभाः, संघपट्टादिकर्त्तारो भव्यबोधविशारदाः ॥ ४९ ॥ तेषां पट्टे जज्ञिरेऽथ जिनदत्तादयोऽमलाः, सूरयः संयममिताः शासनोन्नति - कारकाः ॥ ५० ॥ प्रादुरासन्ने कषष्टितमे पट्टेऽथ संवदि, नेत्रेन्दुरसभ्रमाने ( १६१२) जिनचन्द्राख्ययः ॥ ५१ ॥ लुप्तप्रायमथाचारं साधूनां संप्रधार्य ते, संविनैः साधुभिः सार्धं क्रियोद्धारं व्यधुः खयम् ॥ ५२ ॥ पतनेऽथाणहिल्लाख्ये, कंचिदुत्सूत्रवादिनं, ते तच्चयुक्तया निर्जित्य, विशदं यश आसदन् ॥५३॥ अथ लोहपुरे गत्वाऽकवराख्यं महीपतिम् वाचोयुक्त्या विविधया बोधयामासुरन्वहम् ॥ ५४ ॥
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प्रतिबुद्धः स तेभ्योऽदाधुगंधरपदं वरम् , अमारीपटहोद्घोष, पर्वसु प्रत्यपद्यत ॥ ५५ ॥ तेषु स्वर्गप्रयातेषु, जज्ञिरे पट्टधारकाः, जिनसिंहाभिधास्तेऽपि, वितेनुः शासनोन्नतिम् ॥ ५६ ॥ पट्टे तेषामराजन्त जिनराजाख्यसूरयः, जिनरत्नाभिधानास्तत्पट्टे सूरिवरा बभुः॥ ५७ ॥ पंचषष्टितमे पट्टे सत्तमा जज्ञिरे ततः, सूरयो जिनचन्द्रास्ते, स्वनामानुगुणं व्यधुः ॥ ५८ ॥ पट्टे रसर्तुप्रमिते जिनादिसुखसूरयः, रेजिरे शुद्धयशसा, धवलीकृतदिङ्मुखाः ॥ ५९ ॥ रसर्पिमितपट्टेऽथ, जि. नाद्या भक्तिसूरयः, आसन्भव्यमनोऽम्भोधि प्रबोधे भानुसंनिभाः ॥६०॥ जिनादिसुखसूरीणां कर्मचन्द्राभिधः परे, विनेया नयभंगीषु, निपुणा अभवन्भुवि ॥ ६१ ॥ तेषामीश्वरदासाख्याः शिष्या आसन्सतां मताः, तद्विनेया वृद्धिचन्द्रा नयनीतिविशारदाः ॥ ६२॥ तच्छिष्या लालचन्द्राख्या अभवन्नतिविश्रुताः, जिनभाषिततत्त्वार्थज्ञातारोऽमलबुद्धयः ॥ ६३ ॥ तेषां विनेया अभवन्रूपचन्द्रा महाधियः, प्रायः शातोत्पादके ते पुरे नागपुरेऽवसन् ॥ ६४ ॥ नभोमुनिमिते पट्टे जिन हर्षाख्यसूरयः, अलंचकू रूपचन्द्रास्तस्पार्धेव्रतमाददुः ॥ ६५ ॥ एवंवीराद्रूपचन्द्रसंतानउपवर्णितः, इत्यादि समाधानम् ॥ हे हंसराघवादयो पूर्वदर्शितपट्टपरम्परायां कुत्राप्यस्ति हीनाधिकं कल्पितत्वं प्रतिभाषते, ततोद्गीर्यतां नहि तर्हि सिद्धान्तसमाचारीनाम्नि यत्रमुद्रितपुस्तके द्वेषादृष्टिरागेण वा कलुषितान्तःकरणेनच येनमिथ्योपहायोल्लेखं कृतवान् , तस्य श्रीसंघाग्रे सम्यगालोचनेन मिथ्यादुष्कृतं च दत्वा इहलोके परत्रलोके च निर्मलात्मभाजः भवेयुः, इत्यलं पल्लवितेन
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खरतरगच्छरीविगत जाणवी.
खरतरगच्छ सं०१४२२ वेगड खरतर गच्छ ५ सं० १०८० प्रथमभांणसो जियो- सं० १५६० वडाआचारजियागच्छ
गच्छ ६ सं० ११६७ मधुकरखरतरगच्छ १५
व सं० १५६४ आचार्यसागरचंद्र ७ सं० १२०४ रुद्धपल्लीय गच्छ
सं० १६२१ भावहर्ष गच्छ ८
सं०१६८७ लघुआचारियगच्छ ९ शाखा २
सं० १७०० रंगविजयगच्छ १० सं० १३३१ लघुखरतरगच्छ ३ सं० १८९२ मंडोरिय खरतर सं० १४१५ पीपलीया गच्छ ४ गच्छ ११ ___ यह ११ खरतरगच्छकी शाखाओं हैं और एकमूलशाखा है इसतरेबारे भेदरूपतपभानुकी तरह सत्यप्ररूपणा एकसमाचारीरूपी तीक्षण किरणोंकरके कर्मेधनोको जलाणेमें समर्थ होनेसें एकगच्छहि कहा जावे हैं, इस दिनकर भेदरूप एकगच्छमें अविच्छिन्न गुरुसंप्रदायागत सुद्धसिद्धान्त सत्यप्ररूपणा एकसमाचारीवगेरे सद्गुण अभीतक अखंडपणे एक रूपसें चले आरहे हैं, और सिरफ भिन्ननाम, पट्टावली मात्रकाहि भेद है, सो निज निज शाखाओंके प्रादुभर्भावसमेसें है अर्वागसें नहिं है और जिनवल्लभसूरिजी जिनदत्तम्रिजीपर्यंत सर्वखरतरगच्छीय शाखाओं कि एकहि पट्टावली है
और पूर्वोक्त पट्टावली मूलशाखाकी है इस खरतरगच्छमे वडेवडे प्रभाविक युगप्रधान आचार्य हूवेहैं और होवेगा जिसमे श्रुत प्रभावक तो एसे हुवे हैं कि अपूर्व सरसप्रधान विद्वत्ताके गमसें भरे हुवे,
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सर्व अन्यगच्छीय शास्त्ररचयिता आचार्योंकी अपेक्षासें तो हेमाचार्यमलयगिर्यादिके सिवाय बहुतसे शास्त्रप्राये खरतराचार्योंके रचेहवे संभवे है, और इस पंचमआरेमें बहुत जैनधर्मप्रभावक आचार्य हूवे हैं औरभी होगा परन्तु इस वर्तमान कालमें जैनश्वेतांवरजाति ३वा ४ देखनेमे स्थोकबन्ध आवे हैं और इनके सिवाय प्रायें विशेष श्वेताम्बर जैनजातिबहुव्यापक सर्वत्र नहिं दिखतीहै, १ श्रीमाल २ ओसवाल ३ पोरवाल ४ हुंबड इन जातियोंके सिवाय श्वेताम्बर धर्ममे प्रवृत्ति करती हुई विशेष करके नहिं देखतें हैं परन्तु अग्रोहा नगरकों श्रीलोहित्याचार्यने प्रतिबोधा, अग्रवाल भये और श्रीजयपुरराजकी सीमाके एकपरगणेमे श्रीसिद्धसेनाचार्यने ८६ गामोंको प्रतिबोधे, खंडेलवाल भये, और वधेराके राजादिलोक श्रीजिनवल्लभसूरिजीसें प्रतिबोध पाकर जैन भये सोवघेरवाल उपजाति वाघडी भये, श्रीमानतुंगाचार्यके प्रतिबोधसें भूपति सिंहराजा जैनधर्मधारक भया उसका हूंबड गौत्र भया यह जातिय प्रायें श्वेताम्बराचार्यों की प्रतिबोधी भइ संभवेहै निश्चयसें तो तत्वज्ञानीजाणे,
और इन जातियोमें उभयधर्म मंन्तव्यताहै अर्थात् १ श्वेताम्बर २ दिगंबर यह दोनो धर्मों मानते हैं और महाजनवंशमुक्तावलीमें लिखतें हैं कि इस जैनधर्मके लाखोंश्रावकवनानेवाले पडते कालमें उद्योतकारी, प्रथम सवालाख घर १ लाख ८४ हजार राजपूतोंके महाजनवंशके १८ गोत्र थापनेवाले, श्रीपार्श्वनाथस्वामीके छठे पाटधारी श्रीरत्नप्रभसरिः भये वादपर गोत्र हजारो घर महाजन बनानेवाले, श्रीमहावीरस्वामीसें ४३ में पट्टधारी श्रीजिनवल्लभसरिः,
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Anh
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एकलाख तीसहजार घर कुटंब राजपूतवगैरेको महाजन बनानेवाले, दादागुरुदेव श्रीजिनदत्तसूरिः, हजारों घर महाजन बनाने वाले, मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिः, ५० हजार श्रावकबनानेवाले श्रीजिनकुशलसूरिः १२०० साधुवोंके परिवारसें विचरनेवाले, इत्यादि फिर गुजरात देशमें लाखों घर जैनधर्मो श्रावक बनानेवाले, हेमचंद्रसूरिः, नागेन्द्र पूर्णतलगच्छीय श्रीहेमाचार्य, और छुटकर गोत्रकई २ औरभी अल्पसंख्यासें और आचार्यों ने बनायेहैं, इत्यादि विशेषस्वरूप यथा अवसरमें लिखेंगें, और पूर्वोक्त श्वेताम्बर जैन जातियों के प्रथमव्यवस्थापक श्रीगौतमस्वामी ततः चतुरदशपूर्वधराचार्य श्रीरत्नप्रभसूरिः ततः दशपूर्वधराचार्य सिद्धसेनाचार्य मानतुंगाचार्य हरिभद्राचार्य वगेरे भये इनोनें प्रथम जिनवचन समर्थन करनेके लिये जैन श्वेताम्बरकोंमकोंस्थापी वाद श्रीखरतराचार्यों ने तथा अन्यगच्छीय आचार्योंने वृद्धिकरी जिसमें विशेष जैनश्वेताम्बरकोमके संरक्षक तथा विशेषतर वृद्धिकरनेवाले युगप्रधानपदवीभूषित श्रीजिनवल्लभमरिजी श्रीजिनदत्तमूरिजी भये अनेक राजा महाराजा मंत्री महामंत्री बडेबडे राजपूतोंको प्रतिबोधदेकर श्वेताम्बर जैनकौमकी विशेष वृद्धि करनेवाले होते भये और एकंदर जैनकोमका संरक्षण तथा विशेषद्धिका कारण जादेतर खरतर आचार्योंसें भया है यह स्वरूप यथा अवसरमे लिखेगें और इन उपरोक्त महाभाग्यशाली महान् पुरुषका प्रभाव किसीएक भाषाकविने दर्शाया है सो यह है, सदगुरुजीथे सांभलो, श्रीजिनदत्तमरीसहो, सेवकने सांनिधकरो, पूरोमनह जगीसहो ॥१॥ दोलतदोहो दादाजी संप
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त्तिदो, दोलतदोगुरु महारा, थांहरा विरुद अनेकहो, तो सेव्यां संकट टले, एहीजदादाताहरी टेकहो, दोल० १, जीती चोसठ योगिणी, वसकीया बावनवीरहो, संधमांहे थेसाधीया, पंचनदी पंचपीरहो दो० २, पडिक्कमणांमाहें बीजली, वलियवली झबकायहो, थे मंत्री राखीतिका, तूठीवरदेजायहो, ४, दो०, उच्छव करतां उच्चमें, मूओ मुंगलरो पूतहो, जापकरी जीवाडीयो, संघमाहें राख्यो दादे सूतहो ॥ ५॥ दोल०, वडनगररे ब्राह्मणें, देहरेधरी मृतगायहो, पंचपरमेष्ठिविद्याबले, पिसुनलगायापायहो ॥ ६ ॥ दो०, विक्रमपुर व्यापीमरी, थेदरकीया सहु दुःखहो, परवारपिणपोते कीयो, सहुने दीयो सुखहो ॥ ७॥ दो० ॥ अंबडहाथे अक्षरे, थे प्रगट्याततखेवहो, युगप्रधानजगतुंजयो, आखे अंबिका देवी हो ॥८॥ दो०, थांभोवनविदारीने, पोथीपरगट कीधहो, विद्या सुवर्णअक्षरे, उजेणी माहें लीधहो ॥ ९ ॥ दो०, इमविरुदघणा छे ताहरा, कहितांनावेपारहो, भागसंजोगे दादो भेटीयो, अडवडीयां आधारहो ॥ १० ॥ दो, हु छ सेवक ताहरो, थे आपोधन रिद्धहो, भुवनकीरति सुपसाउले, लाभउदेसुखसिद्धहो ॥ ११ ॥ दो०, इति गुरुदेवस्तुतिः, इत्यादि अनेक प्रकारका महाप्रभाव दुनियामे प्रसिद्ध है जो पुरुष गुरुभक्त आस्तिक है और कृतघ्नी नहिं है उसके लिये यह वात है और अबीभी कल्पवृक्षकी तरहफलदेते हैं और इन महापुरुषके विषयमें प्राचीन शास्त्रकार इसतरह गुणसमूह वर्णन करतें हैं, तथाहि-इहहि सकल प्रामाणिक लौकिक प्रकृष्टाचार
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विचार चातुरी विशिष्टाः शिष्टाः कचिदभीष्टकार्ये प्रवर्त्तमानाः, समस्तसमीहितवितरण विहित सुरकारस्कराहंकार तिरस्कारस्वाभीष्टदेवतानमस्कार पुरस्कारमेव प्रवर्त्तन्ते, अतः समस्तयोगिनीचक्रदेव देवतात्रात विहितशासनाः, नानाप्रभावनाप्रभावित श्रीजिनशासनाः, महर्द्धिक नागदेव श्रावकसमाराधितश्री अंबिका लिखित श्रीजिनदत्तसूरियुगप्रधानेत्यक्षरवाचनमार्जनसमुपार्जित युगप्रधान पद सत्यताप्रधानाः, अकलातिशायिप्रगुणगुणगणमणिखनयः, सकलशिष्ट चूडामणयः प्रबोधितान्यगच्छीया तुच्छ भूरिसूरयः श्रीजिनदत्तसूरयः, इत्यादि ॥ १ ॥ सकल प्रामाणिकेति, प्रमाणं विदन्त्यधीयते वा प्रामाणिकाः, न्यायादेरिकणू, इत्यनेन सूत्रेणेकण् प्रत्ययः, प्रमाणशास्त्रविद इत्यर्थः, एवं लोकव्यवहारवेदिनो लौकिकाः प्रामाणिकाश्च लौकिकाचेति द्वन्द्वस्तेषां यः प्रकृष्टाचारविचारस्तस्य चातुरीचातुर्यतया विशिष्टाः २ समस्तसमीहितेति, समस्तसमीहितानां वितरणेन दानेन विहितः कृतः सुरकारस्करस्य कल्पवृक्षस्य तिरस्कारोऽभिभवो येन एवंविधवासौ योऽभीष्टदेवतानमस्कारथ तस्य पुरस्करणं यस्यां प्रवृत्ताविति क्रियाविशेषणं ३ महर्द्धिक नागदेव श्रावकेण समाराधिताचासौ श्रीअम्बिका च तया लिखितानि च यानि श्रीजिनदत्तसूरिप्रधानेति अक्षराणि च तेषां वाचनमार्जने ताभ्यां समुपार्जिता या युगप्रधानपदस्य सत्यता तथा प्रधाना इति विग्रहः, अत्रायं वृद्धसंप्रदायो नागदेवाभिधः श्राद्धः श्रीनेमिनाथनिनंसया श्रीउज्जयन्तं गतः सन् युगप्रधान गुरुं जिज्ञासुः सप्तभिरूपवासैरम्बिकादेवीमारा
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धयामास, तदीयसत्त्वावष्टम्भतस्तु सती श्रीअम्बिकातत्करे युगप्रधाननामाक्षराणि लिलेख, प्रोचे च य एतानि अक्षराणि वाचयित्वोत्पुंसयिष्यति स युगप्रधानो ज्ञेय इति, ततश्च नागदेवः प्रतिपुरं प्रतिग्राम सूरीणां स्वपाणिपनं दर्शयन् प्राप्तः श्रीअणहिल्लपत्तननामपत्तनं, गतश्च श्रीजिनदत्तसूरिवराणां पवित्रायां वसतौ, दर्शितः पाणिः श्रीजिनदत्तमरीणां, श्रीपूज्यैरपि वासक्षेपं विधाय श्रीजिनदत्तमरियुगप्रधान इत्यक्षराणि वाचयित्वोत्पुंसितानि, ततो नागदेवेन समुत्पन्ननिश्चयेन श्रीजिनदत्तमुरिंर्गुरुत्वेनांगीकृत इति, ४ सकलातिशायीति, सकलाः समस्त अतिशायिन उत्कृष्टाः, प्रगुणाः प्रधाना ये गुणगणास्ते एव मणयस्तेषां खानयः, एवं श्रीजिनकुशलमूरिविषयपि तथाहि-श्रीशत्रुजयक्षितिधरशिखरशेखरानुकार श्रीमन्मानतुंगविहार शृंगारहार प्रकार श्रीयुगादिजिनेश्वर भाखरबिम्ब प्रमुखाईद्धिम्बकदम्बक प्रतिष्ठाविधानसंपन्नसमुच्छलन्मरालपक्षवलक्षकीर्त्तिकुसुमोतंसितदिग्वधृत्तमांगाः, त्रिभुवनजनसुभगंभावुकानेकप्रविवेकज्ञानदर्शनचारित्रौदार्यसौदर्यस्थैर्यधैर्यगाम्भीर्यार्जवाद्यगण्य वरेण्यगुणगणावितरत्नराशिशृंगारितांगा निरन्तरानवद्यौविद्याभ्यास विलासविशदायमानापमानमनीषाप्रकर्षतिरस्कृतभूरिसरयः श्रीजिनकुशलसूरयः इत्यादि अनेक प्रभाव प्राचीन प्राचीनतर शास्त्रोंमे देखनेमे आरहाहै ऐसे महाप्रभाविकयुगप्रधान श्रीमजिनदत्तसूरीश्वरका स्वल्पबुद्धि अनुसार किंचित् चरित्र लेश इस छ। सर्गमे कहाहै अब आगे ७ में सर्गमें देशना पूर्वक विशेष गोत्राधिकार कहेनेमें आवेगा, इति श्री
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युगप्रधान श्रीमजिनदत्त सूरिचरिते सावशेषे प्रसंगवशतो विविधार्थस्वरूपवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः परिपूर्तिभावमगमत्समाप्तश्चायं षष्ठः सर्गः श्रीखरतरगच्छे श्रीमजिन- कीर्त्तिरत्नसू रिशाखायां तत्परम्परायां च क्रमात् श्रीमजिनकृपाचन्द्रसूरीश्वरसंशोधितेऽस्मिन्सर्गे परिपूर्तिभावमगमत् शिष्य पं. आनंदमुनिसंगृहीततद्भात्रा उ० जयसागरगणिसंयोजित श्रीजिनदत्तसूरिचरिते नानासंग्रह षष्ठः सर्गः समाप्तः।
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॥ अथ सप्तमः सर्गः ॥ श्रीजिनकुशलसरिजीसद्गुरुभ्योनमः, श्रीगौडीपार्श्वनाथप्रसादात् शिवततिर्भवतु,-अर्हतोज्ञानभाजः सुरवरमहिताः सिद्धिसौधस्थसिद्धाः पंचाचारप्रवीणाः प्रगुणगणधराः पाठकाश्चागमानां, लोके लोकेशवंद्याः सकलयतिवराः साधुधर्माभिलीनाः, पंचाप्येते सदाप्ताः विदधतु कुशलं विघ्ननाशं विधाय ॥१॥
श्रीवीरं क्षीरसिन्धूदकविमलगुणं मन्मथारिप्रघातं, श्रीपार्श्व विघ्ननाशनविधौ विस्फुरत् कान्तिधारं, सानन्दं चन्द्रभूत्याहतवचनरसं दत्तवर्णवोधं, वन्देहं भूरिभक्त्या त्रिभुवनमहितं वामनः काययोगैः ॥ २ ॥ श्रीजिनवल्लभ जिनदत्तसूरि जिनचंद्र जिनपति यतींद्राः लक्ष्मीजिनेश्वरगुरुः कुर्वन्तु सुखानि संघस्य ॥४॥ वन्देजिनप्रबोधं जिनचन्द्रयतीश्वरं च जिनकुशलं जिनपद्मसूरि जिनलब्धि जिनचंद्र जिनोदया जजुः ॥५॥ जिनराजं जिनभद्रं, जिनचन्द्रं जिनसमुद्रमरिवरं, सूरि श्रीजिनहंसं, जिनमाणिक्यंच वन्देहं ॥६॥ पत्रिंशद्गुणरत्ननीरनिलयः श्रीशंखवालान्वयः प्रस्फुल्लामलनीर संभवगुणाव्याकोसहंसोपमाः, क्षोणीनायकनम्रकर्मदलना दीपारव्यसाध्वंगजाः शर्मः श्रेणिकराः जयन्तु जगति श्रीकीर्तिरत्नाह्वयाः ॥७॥ करहयनिधिचंद्रे विक्रमाब्दे सुमासे, ससितगुरुसुषले पौषके पूर्णिमायां, सुगुण मुनिपवर्यः शर्मकृन्नित्यचर्यः जयतु जिनसनाथः कीर्तिमरीश्वरः सः॥८॥ वर्षेवरकराश्वनंदवसुधासंख्ये शुभे मासके, पौषे शुक्ल सुघलपूर्णिमदिने प्राप्तं पदं चोत्तम, श्री खरतरगणनायक:
३२ दत्तरि०
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राजकी देशना प्रतिको
होनेपर
वाय अगले सर्गमें
सुविहितानुष्ठानचर्यावरः श्रीमजिनकपाचन्द्रमूरिः सुगुरुीमान् सदानन्दतु ॥ ९॥ ऊपरोक्त श्लोकोंके नाम क्रमके अनुसार ही मणियाला श्रीजिनचन्द्रमूरिजी आदि युगप्रधान शासन प्रभावक महाप्रभावशाली आचार्य महाराजोंका संक्षिप्त किंचित् चरित्र इस सप्तमसर्गमें कहेनेमे आवे है, और ६ सर्गके अंतमे क्रमप्राप्त युगप्रधान श्रीमजिनदत्तसूरीश्वर महाराजकी देशना प्रतिबोध गोत्र स्थापनादि विषय अगले सर्गमें कहनेमे आवेगा, ऐसी सूचना करी होनेपर और क्रमप्राप्त इसी विषयका अवसर होनेपर भी ग्रन्थ गौरवादि भयसें इस विषयकों पृथक् हि लिखना उचित मानकर इहांपर नहिं लिखा है, और अलगहि यथा अवसर लिखेगें, और गोत्रस्थापनादि विषयकों शीघ्रतासे हि देखने की उत्कंठा होय तो श्री जैनसंप्रदाय शिक्षा अथवा महाजनवंश मुक्तावली आदि ग्रन्थ छपे हुवे तइयार हैं, उनकों आद्योपान्त सम्यक्तया मननचिंतन पूर्वकहि पढकर देखो जिस्से अछीतरे गोत्रोत्पत्ति वगेरा स्वरूप मालूम होसकेगा और सर्वखसिद्धान्त परसिद्धान्त पारंगामी सच्चारित्र चूडामणिः मूलोत्तरगुण अप्रतिपाति आसन्न सिद्धिसुख एकावतारी कृतशासनसेवा शासनशृंगारहारशासन शोभाकारक, चतुरविधसंघवृद्धिकारक, श्रीवीरशासन श्रीसुधर्मास्वाम्यादि पदपरम्परा अलंकृत करणेवाले, श्रीतीर्थकरकल्प अखंडित सदेव मनुष्योंमें आज्ञा प्रवर्त्तानेवाले, अंबाप्रदत्त युगप्रधानपदधारक, एकलाखतीसहजार घरकुंटुंब प्रतिबोधक जंगम युगप्रधान भट्टारक चतुरविध श्रीसंघनायक ज्येष्ठ दादासाहेब श्रीमजिनदत्तमरिजी महाराज साहेब जबकी श्रीमजिन
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Acharya
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वल्लभसरिजी युगप्रधान महाराज साहेबके पट्टऊपर विराजमान भये, तब जगतमें हर्ष उत्पन्न भया सर्वत्र, और चतुरविध श्रीसंघ विशेष खुशीभया थका विशेष धर्मध्यान करणेमें रक्तभया, स्फुरायमाण युगप्रधानमंत्र तथा युगप्रधान लब्धिकों प्राप्त होके, निरवद्य महा विद्याओंका स्मरणकिया, और विशेष शासनोनति चतुरविध श्रीसंघका रक्षण और श्रीसंघकी विशेष वृद्धि होनेके लिये, विशेषतः श्रीसूरिमंत्र और ह्रीकार महामंत्रका जाप किया, तब सर्व सम्यक् दृष्टि देव देवीयोंके मनमें अकस्मात् आनंद याने हर्ष उत्पन्न भया, और श्रीजैनधर्मके विरोधी मिथ्या दृष्टि देवदेवीयोंके मनमें अकस्मात् क्षोभ याने भयउत्पन्न भया, और मि केइक अशुभ चिन्ह उत्पन्न हवे, और इस भारतके मध्यखंडमें सर्व मिथ्यात्वीलोकोंका मुख म्लानभया, और धर्मप्राप्ति और श्रीसंघहर्षित भये, वाद निरवद्य महाविद्याओं करके संयुक्त, श्रुत धर्मादि सर्वगुणसंपन्न, सम्पक दृष्टिदेव देवीयों करके सेवित है चरणकमल जिणोंके ऐसे भगवान श्रीमजिनदत्तसूरीश्वरजी श्रीचितोडनगरसें चतुरविध संघसें परिवरे हुवे, और श्रीदेवभद्रादि १३ आचार्योंकरके सहित पूर्वदिशा क्रमसें शुभ चंद्रादिबल आनेपर सर्वत्र भव्यकमलोंको प्रतिबोधनेके लिये विहार किया पूर्व दिशा संबंधि देशोमें, वाद दक्षिणदिशा संबंधि देशोमें वाद पश्चिम दिशा संबंधि देशोमें वाद उत्तरदिशा संबंधि देशोमें सर्वत्र अस्खलितपणे विचरते भये, और पूर्वानुपूर्वीसे अनेक मध्यभारत खंडीय साधु विहार योग्य देशोमें बहुतवार श्रेष्ठलाभ जानके विहार करते भये, और इसतरे अनेकदेशोमे ४२ वर्ष पर्यंत
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विहार करके चतुरविध श्रीसंघकी वृद्धिरूप बहुतसा लाभ प्राप्त होकर अपने आत्माको कृतकृत्य मानते भये, और इसतरे अनेक लक्ष संख्यक श्रावक सम्यक्त्वधारी और देश विरतिको धारनेवाले भये,
और इसीतरे अनेक लक्षसंख्यक सम्यक्त्वधारी और देश विरति धारी श्राविकायें भइ, हजारोहि संख्यावाले साधु भये, और हजारोंहि संख्यावाली श्रेष्ठ साधवी भई, और अनेक आचार्य उपाध्याय प्रवर्तक स्थविर गणावच्छेक गणिवगेरा पदस्थ भये और आचार्या उपाध्याया महत्तरा गणावच्छेदिनी प्रवर्तिनी गणणी स्थविरादि पदधरा साधवीये भई, और चार निकायके अनेक देव देवीयां सेवक भये, और सेंकडो वा हजारों घर वा कुंटुंबोंवाले अनेक राजा महाराजा गणनायक दंडनायकादिकोंको और महर्द्धिक चार वर्णवाले मनुष्योंको भव्य सिद्धान्तानुसार देशनाओं करके अनेक तात्कालिक चमत्कारों करके ओसवालादि श्रीजैन जातिकी और खरतर संघकी वृद्धि करते भये, और अनेक मूलगोत्र, उप गोत्र शाखा अट(ड)कादि करके श्रीजैनजातिको अलंकृतकरी, और इसतरे युगप्रधान लब्धिके उदयसे इस भारतवर्षमें जैनजातिके ऊपर महान् उपगार करके, श्रीवीरशासनकी प्रभावना करके और धर्म जिज्ञासुक अनेक भव्योंको धर्ममे स्थिर करके और राशलसाह और देल्हणदेवी पिता और माता है जिनोंके, और अपने पदको प्रभावन करनेवाले और मणिमंडित भालस्थल जिनोका और देवोपासित चरण कमल जिनोंके, और धरणेन्द्र पद्मावतीसें वरकों प्राप्त होनेवाले, महान् प्रभावक और छोटे दादाजीके नामसें प्रसिद्धिपाने
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युगप्रधान मणिमंडित भालस्थल श्रीमजिनचंद्रसूरीश्वरजी महाराज
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जन्म संवत् दीक्षा संवत्- आचार्यपद संवत् स्वर्ग संवत् ११९१. १२०६. १२११.
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वाले ऐसे श्रीमजिनचन्द्रसूरिजीको अपने हाथसें महा महोत्सवके साथमे श्रीमरिमंत्र देकर आचार्य पदमे स्थापितकरके और ४२ वर्ष २ मास २० दिनपर्यन्त सर्व युगप्रधानपद भोगवके और सर्व श्रीसंघकों धर्म शिक्षा देके धर्ममे स्थिर करके अपना स्वर्ग स्थान अजमेर जाणके विहार क्रमसें श्रीअजमेर नगर श्रीमजिनदत्तमूरिजी पधारे,
और अपना आयु अल्प जाणके सर्व श्रीसंघके साथ और सर्व जीवोंके साथ शुद्धभावसें खामणादिक करके, सर्वायु ७१ वर्ष कापालके समाघिसें स्वर्ग गये,, ॥+ ॥ तत्पट्टे ४५ मा, श्रीजिनचन्द्रमूरिः भए, पिता साहरासलक माता देल्हणदेवी तिसके पुत्र संवत ११९१ मिति भाद्रवासुद ८ के दिन जन्म, सं० ११९९ दीक्षा संवत १२११ वैशाखसुदि ५ के रोज विक्रमपुरके विषे रासल कृत नंदीमहोत्सव सहित श्रीजिनदत्तमूरिजीनें आप अपने स्वहस्तमैं सुरिमंत्र देकर अपने पट्ट ऊपर आचार्य पदमें स्थापन कीये, ऐसे श्रीजिनचन्द्रसूरिजी नरमणि मंडित भालस्थल खोडीया क्षेत्रपाल सेवित भए, अथ अन्यदा श्रीगुरुमहाराज गुर्जरदेश प्रति जातेथके, श्रीमालगोत्री मदनपाल श्रीचन्द्रादिकके आग्रह करके दिल्लीनगर गए, उहां वादशाहकों अनेक चमत्कार देखाके अपना भक्तिवंत किया, अरु बहुतसा धर्मका उद्योत किया, पीछे एकदा गुरुमहाराज अपनी अंत अवस्था जाणके मदनपालकों कहाकि हमारे मस्तकमें मणि है, तिसकों अग्निसंस्कार समयमें दूधसें भराभया पात्र रखके तुम ग्रहण करना, मार्गमें विश्राम लेनेके वास्ते रथीकों रखना नहीं मुहबत्ती जलाना नही ऐसा कहके महाराज सर्व आयु ३२ वरसको पालके संवत्
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१२२३ भाद्रवा वदि १४ चतुर्दशीके रोज अणशण करके स्वर्ग गए, तदा सर्व श्रावक मिलके अग्निसंस्कार करनेवास्ते जाते थके भरवजार में माणकचोकतक आए, तब कोई कार्यकर के पहली कहा गुरूमहाराजकावचन भूलके विश्रामके वास्ते रथीकों नीचे रखदीनी मणिग्रहण करने के वास्ते, दुग्धकापात्रभी न रखा, परंतु तहां एक विद्यावान योगी मणिग्रहण करने की इच्छासें दुग्धपात्र भरके एकांत बेठ गया पीछे फेर बहोत यत्न करके रथीकों उठाने लगेतोभी रथी ऊठी नहिं, तब सर्व नगर के विषेवातफेली अनुक्रमसें बादशाहनें भी सुनी तब बादशाह आप आके बहोत उठानेका उ पाय करा, परंतु रथी उहांसें उठी नहिं, तब बादसाह बोला कि सत्य है यहदेव, ये जैनका सेवडा जीताभी चमत्कारीथा, और मुवांभी चमत्कारी हुवा, इसका स्थान इहां ही होवो, तब श्रावकोंनें तहांहिज अग्निसंस्कार करा, तिस अवसरमें गुरुके मस्तकसें मणि फडाक शब्द करके योगीने दुग्धपात्र रक्खाथा, सो मणी दुग्धपात्रमें पडी, योगी उसकों ग्रहण करके अपने ठिकानें गया, तब मदनपालनें कहाकि गुरूमहाराज पहले मेरेसें कहा था, परमें जलदी के सबबसें भूल गया, तब सर्व साधु श्रावकोंने तिसकों ओलंभा दिया, अरुउसी ठिकानें श्रीजिनचन्द्रसूरीजीकी छतरी बनवाई बादशाह प्रमुख सर्वलोकोंनें बहोत बहुमानकरा, सर्व लोक जात देनें लगे, तिस ठिकाणे की अभीतक यात्रियोंसें पूजा होती है, इसमाफक प्रभावीक श्रीगुरूमहाराज भए, इहांसेति चतुर्थ पाटके विषे अतिशयवंत श्रीजिनचंद्रसूरि नाम देणा, ऐसा पद्मावतीनें वर
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प्रस्थान विही गज़नी बादशाह
माणिम डि त भालस्थल श्रीमजिनचंद्रसूरीश्वरजी
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जन्म संवत् ११९१. दीक्षा संवत् १२०६.
आचार्यपद संवत् १२११. स्वर्ग संवत् १२२३.
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दिया, ॥४५॥ इनोंके समयमें श्रीदेवचन्द्रसूरीका शिष्य तीनकोड ग्रंथकाकर्ता कलिकालमें सर्वज्ञविरुदधारक पाटणका कुमारपालराजाको प्रतिबोधक श्रीहेमाचार्यजी भए संवत् , ११६६ सरिपद संवत् १२२९ देवलोक, इनोंका विशेष अधिकार कुमारपालचरित्रसें जाणना और मणियाला श्रीजिनचन्द्रसूरिजीका विशेषवृतान्त गणधरसार्धशतकबृहद्दत्ति प्राचीन हस्तलिखितपट्टावलीसें या संग्रदायसें जाणना तत्पदे ४६ मा युगप्रधानपदधारक श्रीजिनपतिसूरिजी भए, तिके मालू गोत्रीय साह यशोवर्द्धन पिता, मूहव देवी माता, संवत् १२०५ चैत्र वद ८ के दिन मूल नक्षत्रे जन्म हवा, संवत् १२१८ फागुणवदि ८ के दिन दिल्ली नगरके विष दीक्षा संवत् १२२३ से कार्तिक सुदि १३ त्रयोशीके दिन श्रीजयदेवाचार्य आचार्य पदमें स्थापन किये पीछे विहार करते श्रीजिनपतिम् रिजी एकदा बब्बर नामापत्तनके विषे गए, तहां ३६ छत्तीस वादियोंकू जीतके बहोत जिनशासनकी प्रभावनाकरी, तथा फेर एकदा आसापुरमें श्रीमालीज्ञात हाजी साहने मंदिर बनवाया, उसकी प्रतिष्ठाके अवसरमें मणिग्रहण करनेवाला योगीनें जिनप्रतिमाकों स्तंभन करदी, तब चिंता सहित श्रीजिनपतिसरिजीनें अपनें गुरूकों आराधनकिया, तब श्रीजिनचन्द्रसरिजी महाराज प्रगट होके वासचूर्ण दिया, पीछे प्रभातसमय गुरू उन प्रतिमा ऊपर वासचूर्ण डाला तिस करके प्रतिमा जलदी ऊठगई, तबयोगी प्रसन्नभयाथका मणिकों पीछी देदीवी, श्रीगुरूमहाराजकी बहोत महिमा फैली, तथा और एकदा श्रीगुरूमहाराज, अजमेर नगरमें चतुर्मासी रहें,
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तब उहाँके रहनेवाले रामदेवादिक श्रावकोंके अगाडी खेडेगामवासी छाजेड गोत्री मंत्रीउद्धरण साहकी प्रसंसाकरे, एकदा रामदेव श्रावक मंत्रीउद्धरणसें जाके मिले, तब तिस मंत्री रामदेव प्रतें बहोत आदर सहित अपने घरलाके विघिसें भोजनकराकै भक्तिकरी, तिस अवसरमे मंत्रवीकीस्त्री देव मंदिरमें देववंदन करने वास्ते चली जब साडा कंचूकी अनेक वस्त्रसे भरी छावडीयां साथमें ग्रहण करी, तब रामदेवनें पूछा किसवास्ते इतना वस्त्र ग्रहणकीए हैं, तब सेवक लोक कहते भए, कि यह वस्त्र साधर्मिक स्त्रीयोंको देनेकेवास्ते हमेंसां लेजाते हैं, तब रामदेव कहनेलगाकि श्रीजिनपतिसूरिजी महाराज जो तुमारी प्रशंसा करी सो योग्य है, कि जिसके घरमे ऐसे धर्मकार्य होते हैं, अथ एकदाऊधरण मंत्रवीने नागपुरमें देवघरकराया, तबबिंब प्रतिष्ठानिमित्त मंत्रवीनें अपना कुलगुरुकों बुलवाए, परंकोई कारण करके मुहूर्त उपर न आए और ऊधरण की स्त्री खरतर गच्छके श्रावककी पुत्री थी, तिसनें मंत्रवीके कुलगुरु प्रतें हीनाचारी मानके शुद्धसंवेग रंगधारी श्रीजिनपतिसूरिजी महाराजकों बुलवाए आचार्य मुहूर्त्तके ऊपर उहां आए, तब उनोंके पास सेती प्रतिष्ठा करवाई, ऊधरण मंत्री कुटुंब सहित खरतर श्रावक होगए, तिस मंत्रवीके कुलधर नामें पुत्र भया जिसने बाहडमेर नगरमें उंचा तोरण सहित मंदिर वनवाया, तथा फेर मरोट नगरमें रहनेवाले श्रीनेमिचंद्र भंडारीने परिक्षा करके शुद्ध संवेगवंत श्रीगुरुप्रतें जानके चारित्रकी इछा करता थका अंबड नामें अपणा पुत्र गुरूमहाराजके भेट करा, इस माफक श्रीजिनपति
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सूरिजी सर्वायु ७२ बहत्तरवरसको पालके संवत् १२७७ पाल्हणपुर नगरमें स्वर्गगये ॥ ४६ ॥
इनों के समयमें संवत् १२१३ अंचल मतहूबा, संवत् १२२६ सार्धपूनमी या मत हूवा संवत् १२५० आगमिया मत हूवा, संवत् १२८५ चित्रवाल गच्छके चैत्यवासी श्रीजगच्चंद्राचार्यजीसें तपा - नामगच्छ प्रचलित भया, श्री जिनपतिसूरिजी के पट्टे ४७ मा श्रीजि - नेश्वरसूरिजी भए, तिणोंका संवत् १२४५ मार्गशिर सुदि एकादशीके दिन भरणी नक्षत्र में जन्मः तथा मरोट नगरके भंडारी श्रीनेमिचंद्र पिता लक्ष्मीमाता, अंबड ऐसा मूलनाम, संवत् १२५५ खेड नगरवि दीक्षा वीरप्रभनाम दिया फेर संवत् १२७८ माघ सुदि छहके दिन जालोर नगर में मालूगोत्रीसाह खीमसीनें १२ बारे हजार रुपये खरचके करके नंदी महोत्सव करा, सर्व देवाचार्यनें सूरमंत्रकरके पद स्थापना करी, इस माफक श्रीजिनेश्वर सूरिजी संवत् १३३१ आसोजवदि ६ छठके दिन अणशण करके स्वर्गगए, इनों वारेमें संवत् १३३१ जिनसिंहसूरिजी से लघू खरतर शाखा निकली, यह तीसरा गच्छ भेद भया ।। ४७ ।। श्रीजिनेश्वरसूरिजी के पट्टे ४८ मा श्री जिनप्रबोधमूरिजी भए, साह श्रीचंद पिता, सिरिया देवीमाता, तिनके पुत्र संवत् १२५५ जन्म, पर्वत ऐसा मूलनाम, संवत् १२९६ फागुनवदि ५ पंचमी के दिन हस्त नक्षत्र में थिराद नगर के विषे दीक्षा ग्रहण करी, प्रबोधमूर्ति ऐसा दीक्षाका नाम भया, अनुक्रमे वाचक पद प्राप्त भए, संवत् १३३१ आसोज वदि पंचमी के दिन संक्षेप करके पाट महोच्छव
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भया, पीछै संवत १३३१ फागुण वदि ८ अष्टमीके दिन विस्तार करके स्वाति नक्षत्रमें जालोर वसणेवाले मालू गोत्रीय साह खीमसीने २५ हजार रुपया खरचके पाट महोच्छव करा, इसमाफक युगप्रधान पद पालके, श्रीजिनप्रबोधसरिजी निर्मल चारित्र आराधन करके संवत् १३४१ में स्वर्गगए ॥४८॥
तत्पट्टे ४९ मा श्रीजिनचंद्रसूरिजी भए ॥ तिके समियाणा गाममें रहनेवाले छाजेड गोत्रीय मंत्रीदेवराज पिता, कमलादेवी माता, खंभराय मूलनाम संवत् १३२६ मिगशिर सुदि ४ चोथकुं जन्म संवत् १३३४ जालोर नगर विषे दीक्षा संवत् १३४१ वैशाख सुदि ३ तीज सोमवारके दिन मालूगोत्रीय साह खीमसीने १२ बारे हजार रुपया खरचकरके महोच्छव करा इसमाफक गुरुमहाराज अनेक देशोंमें विचरते थके बहोत राजस्थानमें मान्यनीक भए जिसमें मुख्य दिल्लीके बादशाह, तथा चीतोडगढका राजा, जेसलमेरका राजा, मंडोरका राजा, यह मोटे ४ राजा तो महाराजके परमभक्त भए, महाराजके धर्मोपदेशमें अपणें अपणे राज्यादिकमें जीव दयादिक धर्म उन्नती करी, सर्व राजादिक खरतर गच्छकों राजगच्छ कहेनें लगे, बादशाहने जीवदयापाळा तथा तीर्थोका फरमाणभी अपनी अपनी मोहर छापका लिखके दीया, सो आजतक खरतरगच्छके प्राचीन भंडारोंमें है, ऐसे गुरूमहाराज कलिकाल सर्वज्ञ केवली विरुद धारक विख्यात अनेकवादीयांकों जीतनेवाले जिनशासनोन्नतिकरनेवाले श्रीजिनचंद्रसरिजी संवत् १३७६ कुसुमाणग्राममें स्वर्गगए, तिसवखतमें खरतरगच्छकों राजगच्छविरुद मिला,
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युगप्रधान श्रीमजिनकुशलसूरीश्वरजी महाराज.
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जन्म संवत् दीक्षा संवत्, आचार्यपद संवत् स्वर्ग संवत्
१३३०. १३ ४७. १३७७. १३८९. SeswegenweswesegWegwesteswegen
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प्रथम श्रीमजिनदत्तसूरीश्वरजीसें राजगच्छ उत्पन्न भयाथा, और बादमें युगप्रधानविरुदधारक श्रीमजिनचन्द्रसरिजीको भी राजगच्छ विरुद मिला था ऐसे महा प्रभावीक ४९ मा श्रीजिनचंद्रसरिजी भए ॥४९॥
॥ अथ श्रीजिनकुशलसूरिणां चरित्रम् ॥ तत्रादौ श्रीमरिनामस्मरणमंगलाचरणम् यथा-कुशल अंग उछरंग कुशल विणजे व्यापारे, कुशलदेव देहरे, कुशल धन राजदुवारे, पुन्यपसाये कुशल कुशल श्रीसंघ भणीजे, बाहण आवे कुशल, कुशल घरघर गाईजे, श्रीजिनचन्द्रसूरि पहु पट्टधर, नाममंत्र अरतिटले श्रीजिन कुशलसरि पाय पूजतां, नवनिधान लक्ष्मीमिले ॥१॥ तत्पट्टे ५० मा श्रीजिनकुशलमूरिजी महाराज भए, तिणोंकासंक्षिप्त चरित्र इसप्रमाणे है, इसी जंबूदीप भरत क्षेत्रके मध्य खंडमें मरुस्थल नामें देश है, कैसाहे वहदेश कि सर्वऋद्धि समृद्धि आदिगुणों करके युक्त, स्वचक्र परचक्रादि भय करके वर्जित और सर्व हरखकी कारण वस्तुयें विद्यमान है जिस देशमें, ऐसा मरुधर नामक देश है, तिसदेशमें सर्वधन संपदादिक गुणोंकरके युक्त, और जहांपर आये हुवे देशवासी नगरवासी लोक हरसित होते हैं, ऐसा समियाणा नामकवर गामा, तिस समियाणा नामकवर गामके विषे दमितारि नामका राजा राजपालताथा, उसीवरग्रामके विषे महर्द्धिक सर्वसंपदा सम न्वित अखंड प्रतापी शूरवीर विक्रान्त अखंड आज्ञा ऐश्वर्य करके युक्त, छाजेहड गोत्रमें मंत्री के बुणोंकरके संयुक्त जिल्हागरनामें वरमंत्री
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रहता था, तिस के सर्व शुभलक्षण संपन्नाविनीता पतिभक्ता श्रेष्ठवंशमे है उत्पत्ती जिसकी एसी और शीलादि प्रधान गुणोंको धारन करनेवाली श्रीमती जयश्री नामें प्रधान स्त्री है, इनदोनों स्त्री भरतारनें एकदा श्री जिनचंद्रसूरिजी विहारक्रमसें विचरते हुवे वहां पर पधारे तब सर्वलोक वांदणेकों गये अपनी अपनी ऋद्धिका विस्तार करके, बाद मे सर्व आई हुई परषदाकों प्रधान धर्म देशनाद, वादमे यथा शक्ति व्रत पचखाणादिक ग्रहण किये, वादमे, स्त्री सहित मंत्रीनेंभी सम्यक्त सहित श्रावक धर्म शुद्ध मनसें ग्रहण किया, वादमंत्री वगेरा सर्व लोक जिस दिशासे आये थे, उसी दिशामें पीच्छे गये, वाददिल्ली चितोड अजमेर मंडोवर इन ४ महाराजाओं करके सेवित है चरण कमल जिनोंके ऐसे युगप्रधान श्रीमजिनचंद्रसूरिजी महाराज भव्योको उपगार करनेके लिये अन्यत्र विहारकर गये, वाद समियाणा गामवासी यथा शक्तित्रतादिक ग्रहण करणेवाले सर्वलोक अपनी अपनी प्रतिज्ञा माफक सुखसमाधे धर्म ध्यान करते हुवे रहे है, और मंत्री भी समाधि धर्मध्यान करता हूवा रहे है, इसमें एकदा कोइ पुन्यवान जीव देवलोकसें चवके जपतश्रीकी कुक्षीरूप सरोवरमे राजहंसकी तरह आकर उत्पन्न भया तब जयतश्री आधीरात्रिके समे अपने वास भवनमे सेजऊपर कुछ सोती कुछ जागतीहुइ, इन्द्रध्वज देखके जगी ओरशीघ्र ऊटी, ऊठकर के, जहां पर जिल्हागर मंत्री सोता है वहां आके जिल्हागर मंत्रीको कोमल वाणी जगावे जगाके पूर्वोक्त महास्वप्न सुगावे वादने महास्वमका अर्थ और फल पूछे वादमें जिल्हागर मंत्री महास्वनका
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अर्थ और फल विचारे वाद जिल्हागर मंत्री अपने स्वभाविक बुद्धि विज्ञानके अनुसार उस महास्वमका अर्थ और फल विचारके, अर्थ
और फल अछीतरे ग्रहण करके, श्रीजिल्हागर मंत्री कोमल वाणीसें इसतरे बोलाकि हे प्रिये यह स्वप्न तेने बहुतहि अछा देखाहै, हे प्रिये यह महास्वमहै, धन धान्य मंगल कल्याण निरुपद्रव आरोग्य तुष्टि पुष्टि दीर्घआयु वगेरा करनेवाला है, और हे प्रिये इस महास्वमके प्रभावसें अर्थादिकका लाभहोगा, और हे प्रिये इस स्वामके प्रभावसें लक्षण व्यंजनादि युक्त, और हीन नहिं परिपूर्ण पांच इन्द्रियरूप शरीरवाला और चंद्रके जैसा सोम्य आकरावाला और सूर्यके जैसा तेजस्वी कमनीय प्यारादर्शन जिसका और प्रधान रूपवाला ऐसा नवमहिना साढीसातदिन ऊपर होनेपर सुकुमालादिगुणविशिष्ट हे प्रिये तें पुत्रकों जनमेगी, और वह पुत्र जब बाल भावको छोडेगा, तब विज्ञानमात्र देखनेसें हि जानेगा, सर्व विद्याकलामें निपुण होगा, याने कुशल होगा, और जब यौवन अवस्था प्राप्त होगा, तब शूरवीर विक्रान्त होगा, और परकीय भूमीको खिंचकर अपणे वशमे करेगा, और विरोधिराजा वगेरा शत्रुओंको जीतकर अपणे वशमे करेगा, और दानादि ४ प्रकार करके परिपूर्ण होगा, और त्यागी भोगी शूरवीर होगा, और राजाओंका राजा अर्थात् मंडलीक राजा होगा, अथवा भावितात्मा अणगार होगा, अर्थात् युगप्रधानके गुणोंको धारण करनेवाला युगप्रधान आचार्य होगा, या, सदृश होवेगा, इत्यादि स्वमार्थ फल श्रवणकरके हरखके वसमें जिसके शरीरमे सर्व रोमराजी विकसित भइ, और नेत्रमुखभी
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विकसित भये, और मेघकीधारासें सिंचाहुआ जैसाकदंब वृक्षका पुष्प फूले वैसा सर्वशरीर विकस्वरमान भया जिसका और हृदय मनमी अछे हुवे जिसके ऐसीवह श्रीमती जयश्री विनयपूर्वक हाथजोडके मस्तकमे अंजली बांधके, श्रीमान् जिल्हागर मंत्रीके प्रति इसतरह बोली के हे स्वामिन यह अर्थ जो आपने इस स्वमका मेरेको कहासो मेरे इष्ट है वांछित है विशेषकरके वांछित है और ईप्सित प्रतीप्सित
हे स्वामिन् इस अर्थ में किसी तरहका शंसय नहिं है, यह अर्थ सत्य है निसंदेह है जिसकारणसें आप कहो हो जिस हेतु युक्तिकरके आप कहो हो उसीतरेमें भी यहही अर्थ विचारुं हूं इसलिये आपका और मेरा विचार एकहि हवा है इसलिये यह अर्थ सत्य है निसंदेह है इसतरे कहे अछीतरह स्वप्नार्थ विनयपूर्वक ग्रहण करे स्वप्नार्थ ग्रहणकरके, वाजयतश्री जिल्हागर मंत्रीके पाससें आज्ञापाकर अस्खलितगतिसें चलती भई कहांभी मार्ग में आधार विलंब विश्रामादिककरके रहित राजहंसणी के सदृश प्रधान गतिसें चलती हुई जहां पर अपणा घर वासभवन सेज है, वहां आवे वहां आके इसतरे बोली, यह मेरा महामंगलीक महास्वप्न है, और कोई पाप स्वमकर के मत हणिजो, एसा कहके खमजागरण करे, सपरिवार आपजागे सेवक सखिजनोंको जगावे, और उत्तम प्रधान मंगलीक धार्मिक श्रेष्ठ मनोहर कथाप्रबंध करके, स्वप्नजागरण करती हुई रहै, वाद प्रभातसमय और सूर्यका वर्णन मंत्रीका वर्णन नगरकी सोभा करणा स्वलक्षण पाठककों बुलाणा और स्वमार्थ फलश्रवण वगेरा करणा यथायोग्य सत्कार सन्मानपूर्वक
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श्रीतिदान देके विसर्जन करणा वाद गर्भपोसण दोहदादि अधिकार यावत जन्माधिकार बधाईदेणा दासित्वका दूरकरणा वाद नगरकी सोभा करणा वगेरा पुत्रजन्मयोग्य दसदिनपर्यंत कुलस्थिति क्रमागत मर्यादा करे, वाद सूतक निकालके भोजनादि सर्व सामग्री तयार करवाके यथायोग्य भोजनादि कराके तांबूलादि वस्तू देके सबका सत्कार सन्मान करके सर्व कुंटुंबादिक लोकोंके समक्ष नामस्थापन अवसरमे बालकके माता पिता जयतश्री और जिल्हागर मंत्री अभिप्राय मनोरथादिक कहके, इसतरे कहे कुसलचंदुत्ति होउ - कुमारे नामेणं इत्यादि, अहो लोको इस हमारे वालकका नाम कुशलचंद्र कुमार ऐसा होवो, इसतरे बालकनाम कुशलचंद्र करके स्थापे, वाद सबहि लोक उस बालकको कुशलचंद्र इसनामसें बोलावे, बाद कुशलचंद्र कुंमरकी प्रतिपालना सर्वकलादिकका ग्रहण यावत् यौवन अवस्थाकी प्राप्तिपर्यंत देशकालादिके अनुमानमे स्वमका प्रभाव और वर्णननका अधिकार उत्त्क्षप्त अध्ययनगत मेघकुमार चरित्र के सदृश पूर्वोक्त अधिकार भावनकरणा, इसीतरह आगे भी धर्माचार्य श्रीजिनचंद्रसूरिजीका आगमन और वर्धापन, दानदेणा बाद राजा मंत्री समियाणा गाम संबंधि परषदका निकलना और श्रीकुशलचंद्र कुंमरका निकलना और धर्मदेशना प्रतिबोधादिस्वरूप ranate प्राप्ति और चरित्रविषयि गुरुदत्त शिक्षण यावत श्रुतादि अभ्यासके लिये श्रुतधर गीतार्थीको समर्पण यावत गीता - र्थत्वपर्णेकी प्राप्तिपर्यंत मेघकुमारवत् भावना करणा, वाद क्रमशः यथाविधि गणिआदिपद और युवराजपदको प्राप्तहोकर सर्वगच्छ
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धर्मकिचिंताकरणेमे समर्थभये, अर्थात् सर्वधार्मिक क्रिया प्रवतेन प्रवर्तीवनके अधिकारी भये, और उत्सर्ग अपवाद खसमयपरसमय सम्यविधिवादके श्रीगुरुमुख गृहीत वाचनासे यथार्थ अधिकारी भये, वाद आचार्यपदकों प्राप्तहोकर विशेष वीरशासन जैनधर्मकी प्रभावना और कालिकसू रिवत् करके सद्गतिको प्राप्त भये, वाद परचा पूरक जिसतरह भये और संक्षिप्त जन्मादिसंबंध इसतरह दृष्टिगोचर होवे है, तथाहि-श्रीजिनकुशसरिः महाशासन प्रभावक हूवे, तिणोंका जन्मनगर समियाणा, गोत्रछाजेहड, पिता जिल्हागर मंत्री, माता जयतश्री, संवत् १३३० मे जन्म, संवत् १३४७ दीक्षा, संवत् १३७७, जेष्ठवदि एकादशीके दिन श्रीराजेंद्राचार्य सूरिमंत्र देके, आचार्यपदमें स्थापे, तब पाटणके वसणेवाले साहतेजपाल वस्तपालने नंदीमहोच्छव करा, २४०० चोवीससैं साधु साधवी भणी, ७०० सातवें वेषधारी जैनपंडितादिकको वस्त्रादिक दीया, तथा तिस अवसरमे दिल्लीनगरके रहनेवाले महतीयाण गोत्रीय, विजयसिंह श्रावक उहां आके बहोत द्रव्य खरचकरके नंदी महोच्छवकरा, तथा संवत् १३८० साह तेजपाल वस्तपालने निकाला संघके साथ सेजेतीर्थ गए, गुरू महाराज मानतुंगनामें खरतर वसीके मंदिरमें २७ सत्तावीस अंगुलप्रमाणे श्रीअदिनाथ विवकीप्रतिष्ठाकरी, तथा भीमपल्हिनगरमें भुवनपालने वनवाया ७२ बहोत्तर जिनालय मंडित श्रीवीरखामीके मंदिरकी प्रतिष्ठा करी तथा जेशलमेरनगरके किल्लेमें, जसधवलने मंदिर बनवाया श्रीचिंतामणि पार्श्वनाथस्वामीजी लोद्रवपुरमें वि. सं. २ के प्रतिष्ठित थे उनकुं
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मंदिरमे स्थापे मंदिरकी प्रतिष्ठा करी, तथा जालोरनगरमें श्रीपावनाथजीकी प्रतिष्ठा करी, तथा आगरानगररहनेवाले श्रीसंघके आग्रहसें साथ होके, श्रीसेठेजयकी यात्राकरके आषाढ वदि ७ सप्तमीके दिन पाटणनगरमें पधारे तथा श्रीगुरुमहाराजके १२०० बारसैं साधु संप्रदायमें भए. १०५ एकसो पांच साधवीयोंका संप्रदाय भया, तथा श्रीगुरुमहाराज श्रीविनयप्रभादिक शिष्योंको उपाध्यायपददीया, जिस विनयप्रभ उपाध्यायनें निर्धनभया अपने भाईकों संपत्तिकेवास्ते मंत्रगर्भित श्रीगौतमरासवीरजिनेसरचरणकमलकमलाकयवासोयहबनायके दिया, तिसके गुणनेंसें अपना भाई धनवंत भया, इसमाफक बहोतश्रावक प्रतिबोधक चैत्यवंदनकुलकवृत्यादि अनेक शास्त्रोंके कर्ता, परमजिनधर्मप्रभावक, श्रीजिनकुशलसरिजी संवत् १३८९ फागुणवदि अमावसके रोज, देराउर नगरमें ८ आठदिनतक अणशण करके स्वर्गप्राप्तभए, वह अभीतक दादोजी ऐसे नाम करके सर्व जगत्रमें प्रसिद्ध हैं, प्रतिनगरमें गुरुमहाराजके चरणकमल पूजीज रहेहैं, सोमवतीपूनमकों प्रथम दर्शन दिया श्रीसंघकों, तिसकारणसें सोमवार पूनमकों विशेषकरके दर्शन पूजन होवेहै ॥ अथ अन्तिम मंगलाचरणम्-कुशलबडो संसार, कुशल सज्जन घर चाहै, कुशले महगलमाल, लछिघर कुशलै आवे, कुशले धन वरसन्त, कुशल धन धन सुवन्नौ, कुशले घोडा थह, कुशल पहिरीये सुवन्नो, ऐरिसोनाम सदगुरुतणो, कुशले जगर ली यामणो, भट्टारक श्रीजिनकुशलसूरि नाम ग्रहणें करी, घरघर होत वधामणौ ॥२॥ इति श्रीजिनकुशलमरिणां चरित्रं समाप्तं ॥
३३ दत्तसूरि.
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अथ श्रीपार्श्वयक्षादि सुरसेवित श्रीज्ञानसारजी कृत् श्रीजिनकुशल स्रीणां प्राचीना अष्टप्रकारी पूजा लिख्यते । तथाहि ॥ * ॥ सक लगुणगरिष्ठान् सत्तपोभिर्वरिष्ठान् शमदमय मयुष्टां चारुचारित्र निष्ठान् निखिल जगति पीठे दर्शितात्मप्रभावान्, मुनिपकुशलसूरीन स्थापयाम्यपीठे ||१|| ॐही श्री श्रीजिनकुशलसूरि गुरो अत्रावतरावर स्वाहा ॥ १ ॥ ॐ ही श्री श्रीजिनकुशलसूरि अत्र तिष्ठठः ठः स्वाहा: इति प्रतिष्ठापनम् ॥ २ ॥ ॐही श्री श्रीजिनकुशलसूरि गुरो अत्र मम सन्निहितो भव वपट् इति संनिधिकरणम् " ॥ ३ ॥ अथ अष्टप्रकारी पूजा लिख्यते ॥
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॥ * ॥ दूहा - गंगाजल निर्मुलवलि, तीर्थोदक भरपूर, कलशभरी गुरु चरणपर, ढाले तस दुखदूर ॥ १ ॥ ढाल देशी सूरती महीनांनी ॥ गंगाजल अति निरमल अमल सुकमले पूर, खीरो दधि वरदधि ज्यौं उज्जल जलभरपूर, तेह उदकवलि तीर्थ नीरभरि कलश सनूर, गुरुचरणे जे ढालेटाले दुकृतदूर ॥ १ ॥ ॐ श्री श्रीजिनकुशलसूरिगुरुचरणकमलेभ्यः जलं निर्वपामिते स्वाहा ॥ इति जलपूजा || अथ चंदनपूजा ॥ दूहा - बावन्ना चंदन अगर घस केसर घनसार, चरचै जे गुरु चरणनें, पामें जयजयकार ॥ १ ॥ ढाल - मलयागर तिम अगरचंदनवलि केसरसार, कस्तूरी अतिगंधे पूरी घस घनसार, कुशलसूरिगुरुचरणे चरचै चढते भाव, सकलरोग तनसोगहरे वलि जडताभाव ॥ २ ॥ ॐ श्री श्री जिनकुशलसूरि गुरुचरणकमलेभ्यः चंदनं निर्वपामि ते स्वाहा ॥ २ ॥ इति चंदनपूजा ||
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अथ पुष्पपूजा || दूहा - केत किचंपकफूलथी, पूजे जे गुरुपाय, तसुजससूरउदैहुवे, अपजस तिमिर नसाय ॥ १ ॥ ढाल चंपक के कि
मरुवो दमन सेवंती फूल, जाई जुई मोगरो मालती तेम उडूल,
कमल गुलाब चंबेली बेली परमल पूर, गुरुचरणेंजे ढोवे होवे जसज्यं सूर || २ || ॐही श्री श्रीजिनकुशलमूरि गुरुचरण कमलेभ्यः पुष्पं निर्वपामिते स्वाहा इति पुष्पपूजा ॥
अथ अक्षतपूजा ॥ दूहा - उज्जलज्यों शशि अकविण, खंडित नहीं विशाल, अक्षत गुरु चरणें ठवे, तसु घर मंगलमाल ॥ १ ॥ ढाल - सरल सुगंधित तंदुल उज्जल जल उत्पन्न, ज्युंवर मोती आभा डुंती उज्वलवन, जलधोई ससमोई सोई अक्षतनव्य, स्वस्तिक कुशल वधावे पावे मंगल भव्य || २ || ॐ ही श्री श्रीजिनकुशलसूरिगुरुचरणकमलेभ्यः अक्षतं निर्वपामिते स्वाहा ।। इति अक्षतपूजा ||
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अथ दीपकपूजा ।। दूहा- कंचनमणिमयरत्ननी, दीवी करघृतपूर, वाती मौली सूत घर, करो प्रदीपसुनूर || १ || ढाल - कंचनघटित जटित मति नानाविधनवरल, दीवी अतिकारीगरकीवी अधिके यत्न, घृतपूरी ससनूरी मौली वाती जोय, दीपकरे गुरु आगे ज्योतउद्योती होय ॥ २ ॥ ॐहीश्री श्रीजिनकुशलसूरिगुरुचरणकमलेभ्यः दीपं निर्वपामिते स्वाहाः ॥ इतिदीपकपूजा । अथ धूपपूजा लिख्यते ॥ बावन्नाचंदन अगर, सेल्लारस घनसार, धूपे जे गुरु धूपथी, तसघर रिधविसतार || १|| ढाल - अगर चंदन सेल्लारस छाडछडीलो मेल, कपूर काचरी वलि घनसारे मृगमदभेल, धूप अडंग करी गुरु
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यूपे चढते चित्त, ते नरवित्तसुमारगपनिवनवनित्त ॥२॥ ॐ ही श्री श्रीजिनकुशलसूरिगुरुचरणकमलेभ्यः धृपं निर्वामिते स्वाहा ॥ इति धृपपूजा ॥ अथ नैवेद्यपूजा ॥ दहा-सालदालपकवानधन, व्यंजन नवनवमांत, नेवजगुरु आगल ठवे, क्षुधादोपउपसांत ॥१॥ ढाल-पेडा मगद सेवइया लाडूमोतीचूर, खाजा ताजालापसी दोठानें घृतपूर, पिस्ता दाख विदाम छुहारा पिंड खजूर, गुरुचरणे जेढोवे भोगलहै भरपूर ॥२॥ ॐही श्री श्रीजिनकुशलसरिगुरुचरणकमलेभ्यः नैवद्य निर्चपामिते स्वाहा ॥ इति नैवद्यपूजा ॥ अथ फलपूजा लिख्यते ॥ दहा-श्रीफल शीताफल सदा, फलपूंगीफल लेय, ढोवे जे गुरुचरणपर, तसुउत्तम फलदेय ॥१॥ ढाल-श्रीफल शीताफल नारंगी दाडम दाख, खरबूजा तरबूज जंभेरी पाकी साख, करुणा कवला केला नींबू फनस सफार, गुरुचरणे फलढोई फलपामें श्रीकार ॥२॥ ॐ ह्री श्री श्रीजिनकुश लसूरिगुरुचरणकमलेभ्यः फलं निळपामिते स्वाहा ॥ इति फलपूजा ॥ ८ ॥ अथ अर्घपूजा लिख्यते ॥ अथ कलश दहा-इम जिनकुशलसूरिंदनें पूजे अष्ट प्रकार, तसुधरनवनिधिसंपजे, पुत्रादिकपरिवार ॥१॥ भट्टारकखरतरगच्छे, श्रीजिनलाभसूरिंद रत्न, राजमुनिभमरपर, सेवेपद अरविंद ॥ २॥ तासुचरणरजकणसमोज्ञानसारबुद्धिमंद, श्रीसद्गुरुपूजारची, सोधोकविजनवृंद ॥३॥ इति श्रीज्ञानसारजीउर्फलघुआनंदघनजीकृत श्रीजिनकुशलसूरीश्वरसुगुरूणां अष्टप्रकारीपूजासमाप्ता, श्रीरस्तु ॥ अथ लघुअष्ट प्रकारीपूजा लिख्यते ॥ सुरनदीजलनिर्मलधारया, प्रबलदुष्कृत
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दापनिवारया, सकलमंगलवांछितदायको, कुशलसरिगुरोश्चरणौ यजे॥१॥ॐ ह्री श्री श्रीजिनकुशलसूरिः चरणकमलेभ्यो जलं यजामहे खाहा अथ चंदनपूजा ॥ मलयचंदनकेसर वारिणा, निखिलजाड्यरुजातपहारिणा, सकलमंगल वांछितदायको, कुशलसरिगुरोश्चरणौयजे ॥२॥ ॐ ह्री श्री श्रीजिनकुशलसूरिः गुरुः चरणकमलेभ्यः चंदनं यजामहे स्वाहा ॥
अथ पुष्पपूजा ॥ कमलकेतकिचंपकपुष्पकैः, परिमलाहृतषट् पदवृंदकैः, सकलमंगलवांछितदायको कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥३॥ ॐ ही श्री श्रीजिनकुशलसूरिगुरुचरणकमलेभ्यः पुष्पं यजामहे स्वाहा अथ अक्षतपूजा ॥ सरलतंदुलकैरितनिर्मलैः, प्रवरमौक्तिकपुंजवदुज्ज्वलैः, सकल मंगलवांछितदायको, कुशलसरिगुरो. चरणौ यजे ॥ ४॥ ॐ ही श्री श्रीजिनकुशलसरिगुरुचरणकमलेभ्योऽक्षतं यजामहे स्वाहा ॥ अथ नैवद्यपूजा ॥ बहुविधैश्वरुभिवटकैर्यकैः, प्रवरमोदकपुंजसुखजकैः सकलमंगलवांछितदायको, कुशलमूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥ ५॥ ॐ ह्री श्री श्रीजिनकुशलसूरिगुरुचरणकमलेभ्यो नैवद्यं यजामहे स्वाहा ॥ अथ दीपकपूजा ॥ अतिसुदीप्तमयैः खलुदीपकैः,विमल कंचनभाजनसंस्थितैः, सकल मंगल वांछितदायको, कुशलसरिगुरोवरणौ यजे ॥ ६॥ ॐ ही श्री श्री. जिनकुशलसरिगुरुचरणकमलेभ्यो दीपं यजामहे स्वाहा ॥ अथ धूपपूजा लिख्यते ॥ अगरचंदनधूपदशांगजैः, प्रसरिताखिलदिक्षुसुधूम्रकैः, सकल मंगलवांछितदायको, कुशलस रिगुरोश्चरणौ यजे ॥७॥ ॐ ही श्री श्रीजिनकुशलमूरिगुरुचरणकमलेभ्यो धूपं यजामहे
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स्वाहा ॥ अथफलपूजालिख्यते ॥ पनशमोचसदाफलकर्कटैः, सुसुखदैः किल श्रीफलचिर्भटैः, सकलमंगलवांछितदायकौ, कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥ ८॥ ॐ ही श्री श्रीजिनकुशलसूरिगुरुचरणकमलेभ्यो फलं यजामहे खाहा ॥ अथ अर्धपूजालिख्यते ॥ जलसुगंधप्रसूनसुतंदुलैः, श्ररुप्रदीपकधूपफलादिभिः सकलमंगलवांछितदाय कौ, कुशलसूरिगुरोरणौ यजे ||९|| ॐ ही श्री श्री जिनकुशलसूरिगुरुच - रणकमलेभ्यो यजामहे स्वाहा ॥ इतिश्रीभट्टारकथी जिनकुशलसूरीश्वराणां लघु अष्टप्रकारी पूजा श्रीनारायणजीबाबाजी रचिता समाप्ता ॥
॥ अथ सद्गुरूणां आरती लिख्यते || पहली आरती दादाजीकी कीजे, दुखदोहगसव दूर हरीजे, जयजय सद्गुरु आरती कीजे, श्रीजिनकुशलसूरिसमरीजे, जयजयस० ॥ १ ॥ बीजीवी जपडतीधारी, भयवारण तूं ही सुखकारी, जयजयस ० ॥२॥ तीजीपरचा पूरकतेरी, दूरहरो सबदुर्मतिमेरी, जयजयस ० ३ ॥ चौथी मुगलपूत जियदायक, सुरवरहुकमधरेज्युं पायक, जयजयस ० ४ ॥ पांचमी पांचनदीजिण तारी, संघसकलनौ संकटवारी, जयजयस ० ५ ॥ छट्ठीयांभोवज्रविदारी, विद्यापोथीपरगटकारी, जयजयस ० ६ ॥ सातमी चौसठ जोगण साधी, सूरिमंत्र सुरनें आराधी, जयजयस ०, ७ ॥ इणविवसात आरती किजे, मनवंछित संपति फल लीजे, जयजयस०, ८ ॥ जिनलाभ खरतर गणधारी, सद्गुरुचरणकमल बलिहारी, जयजयस० ॥ ९ ॥ इति श्रीदादाजी की आरती संपूर्णा ||
,
और श्रीजिनकुशल सूरिजी महाराजका चरित्र ऊपर दिया है और बडास्तवन छोटास्तवन संस्कृत प्राकृत स्तौत्रादिक सेंकडो वा
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हजारों बनेहुवे मौजूद है, जिसमें भी उत्पत्ति सासनसेवा चमत्कार वगेरा स्वरूपगर्भित बहुत बडेबडे स्तवनादिक मौजूद है, परंतु saiपर ग्रन्थकी गौरवताके भयसें नहिं दिये गये हैं और श्रीजिनदत्तसूरिजीका श्रीजिनचन्द्रसूरिका श्रीजिनकुशलसूरिजीका भवचबोधक यह बीजाक्षर संप्रदायसें उपलब्ध हुवे हैं तथाहि - ह स म जूस म स ममसि ॥ एयाई जिणदत्तस्स ह म स मसि ॥ एयाई जिणचंद्रस, क म जूस म उ ना म सि एयाई जिणकुसलस्स" इण अक्षरोंकी विस्तारपूर्वक भावना महान् विद्वान् सत्संप्रदायिगीतार्थी के आधीन है, इसलिये मेने अपनी मन्दबुद्धि अनुसार afi aaa और दादासाहिबकी चरणस्थापना जैनसमाज और हिंदूवोंकी वसतीमें होवे इसमें क्या आश्चर्य है, परंतु गांजीखां कमालखांकाडेरा है, वहां पर जैनसमाज और हिंदुवोंकी बहोत कम वसती है, मुसलमीनोंकी जादा वसती है, तथापि मानतें पूजते है, और खूनकरकेभी दादावाडी में यदि कोई इनसान चलाजावे तो, वह मुसलमीनलोक उसका खून माफ करदेतें हैं, इसतरह मुसलमीनलोक जिणोंका सरणा पालते हैं, जैनसमाज और हिंदुमाने पूजेसरणपाले secret आर्य और श्रीजिनदत्तमूरिजी तथा श्रीजिनचंद्रसूरिजी तथा अकबर प्रतिबोधक श्रीजिनचंद्रसूरिजीका चवन गर्भाधानशुभस्वमप्रदर्शन गर्भपोषणादि सर्व अधिकार श्रीजिनकुलशसूरिजी के करीब करीब सदृशहि जाणलेना, और ग्रन्थ बढजानेके भयसें saiपरजादा नहिं लिखा है, और इसके सिवाय जो चरित्राधिकार विशेषतायें होगा, उसीका अनुसरण किया जायगा, वाचकवर्गकों
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इसमे कुछ काठिन्यता पडनेका संभव है, सो क्षमा वगसेगें, और विशेषतामें इतनी सूचना देकर प्रस्तुतार्थका अनुसरण करतें है तत्पट्टे ५१ मा श्रीजिनपद्मसूरिजी भए' तिके छाजेड वंश भूषणसंवत् १३८१ का जन्म संवत् १३८९ ज्येष्ठ सुदि ६ छडके रोज श्रीदेराउर नगर में साह हरपालनें नंदीमहोत्सव करा, तब आठमें वरसमें तरुणप्रभआचार्यसूरिमंत्रदीया, अथ एकदा श्रीगुरुमहाराज बाहडमेरनगर में श्रीमहावीरस्वामी के मंदिरमें देववन्दनकरनें वास्ते गए तहां जिनमंदिरको दरवाजो छोटो प्रतिमावडी देखके, पंजाबदेश के रहनेवाले थे, इसवास्ते उसदेशकी भाषाकरके कहा, बृहानंदा, यानें दरवजाछोटा, वसहीबड्डी याने प्रतिमावडी, अंदरक्यूं माणित्ति यानें भीतर कैसे माई, ऐसेप्रगट बालभाव वचनसुणके, श्रीगुरु - महाराजके पास में रहे, विवेकसमुद्रोपाध्याय ने कहा कि मौनकरो, ततोव्याख्यानस्थितिप्रवर्त्तावते उन उपाध्यायकेसाथ श्रीगुरुमहाराज गुर्जरदेशमें आए, तहां पाटणकेपास सरखती नदी के तटपर रातवासी रहे परंतु उसवखतमें गुरुमहाराजकों ऐसी चिंता उत्पन्नभईके सवेरे संघ अगाडी इसभाषाकर के किसतरे व्याख्यान करूंगा, ऐसी चिंताकरते जितने रहें हैं उतनें तो श्रीगुरुमहाराजके पुन्यसे आकर्षित भई ऐसी अर्द्धरात्रि के समय में सरखती नदी की अधिष्ठायिका सरस्वतीदेवी प्रगटहोके, ऐसा वरदिया, अहो स्वामी प्रभातसमय में आप श्रीसंघके आगे जो कुछ कहोगे, उससे सकलसंघ प्रसन्नहोगा, वाद प्रभातसममें संघ अगाडी गुरुमहाराज अपणी इछासें अर्हतो भगवंत इन्द्रमहिताः सिद्धा सिद्धिस्थिता, आचार्या जिनशासनोन्नतिकरः पूज्या
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उपाध्यायकाः॥ श्रीसिद्धान्तसुपाठका मुनिवराः रत्नत्रयाराधकाः पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मंगलम् ॥१॥ यह नवीन काव्य बनाके उपदेशदिया, तबसमस्त जैनसंघ श्रीगुरुमहाराजको व्याख्यानसुनकरके बहोत प्रसन्नभए तिहां गुरुमहाराजकों बालधवलकूर्चालसरखती विरुद संघनेदीया, अन्यथा प्रथम पूर्वाचार्यरचित श्लोकका प्रायेंकरके मंगलाचरण व्याख्यान करतेथे, तथाहि सकलकुशलवल्ली पुष्करावर्त्तमेघो दुरिततिमिरभानुः कल्पवृक्षोपमानं भवजलनिधियोतः सर्वसंपत्तिहेतुः स भवतु सततं वः श्रेयसे पाश्वेदेवः, वादमें ऊपरोक्त श्लोकसें मंगलाचरण व्याख्यानका रिवाजभया। इसमाफक श्रीवीरशासन प्रभावक श्रीजिनपद्मसूरिजी संवत् १४०० वैशाख शुदि १४ चवदशके रोज अणसण आराधना पूर्वक समाधिसे कालधर्म प्राप्त होकर पाटण नगरमें स्वर्गगए ॥५१॥ तत्पट्टे ५२ मा श्रीजिनलब्धिसूरिजीभए, पाटण नगरके बसनेवाले, नवलखा गोत्रीय, साहईश्वरदास. नंदीमहोत्सवकरा, तरुणप्रभाचार्ये सरिमंत्रदिया, अनुक्रमें गुरुमहाराज सर्व सिद्धान्तसिरोमणि, अष्टविधान साधकभए, तिके संवत् १४०६ नागपुर नगरमें स्वर्ग गए ॥५२ ॥ तत्पट्टे ५३ मा श्रीजिनचन्द्रसूरिजिभए, तिकेसंवत् १४०६ माघसुदि १० दशमीके रोज नागपुरनिवासी श्रीमालसाह हाथीने नंदीमहोत्सवसहितपदस्थापनाकरी, तरुणप्रभाचार्य सूरिमंत्रदिया, ऐसे श्रीजिनचन्द्रसूरिजी संवत् १४१५ आषाढवदि १३ त्रयोदशीके रोज स्तंभनतीर्थविषे स्वर्ग गए ॥ ५३॥ तत्पट्टे ५४ मा श्रीजिनोदयसरिजी भए, तिके पाल्हनपुर वसनेवाले, मालूगोत्रीय, साहरूंदपालपिता,
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धारलदेवीमाता, संवत् १३७५ जन्म, समरो ऐसामूलनाम, संवत् १४१५ आषाढसुदि २ दूजके दिन, स्तंभनतीर्थके विषे लूणीया गोत्रीय साहजेशलकृत नंदीमहोत्सव करके श्रीतरुणप्रभाचार्य पदस्थापनाकरी, तहां स्तंभनतीर्थक विषे श्रीअजितनाथजीके मंदिरकी प्रतिष्ठाकरी, तथा शचुंजयकी यात्राकरके उहां पांच प्रतिष्ठाकरी, इसमाफक धार्मिककृत्योंको उपदेशद्वारा साधते हुवे, सम्यक्साध्याचारको पालते हुवे, और पांचतिथिमें निरंतर उपवास करनेवाले भये, फेर १२ बारे गामकेविष अमारिपडहवजडानेवाले २८ अठावीस साधुवोंके परवारकरके, अनेकदेशोंमें विहारकरके, श्रीजिनोदयसरिजी संवत् १४३२ भादवावदि ११ एकादशीके रोज अणशण आराधना पूर्वकसमाधिसें पाटणनगरमें स्वर्ग गए ॥ तिनोंके बारे संवत् १४२२ के शालमें वेगडखरतरशाखानिकली ॥ ५४॥ श्रीजिनोदयसूरिके पट्टे ५५ मा श्रीजिनराजमूरिजीभए, तिके संवत् १४३२ फागुण वदि ६ छटके दिन, पाटणनगमें साह धरणने नंदी महोत्सव किया सूरिपदकों प्राप्तभए, तब गुरुमहाराज सवालक्ष प्रमाणे न्यायग्रन्थ पढे, और सर्वसिद्धान्तके पारंगामी भए, ऐसेगुरुमहाराज संवत् १४६१ देवलवाडानगरमें स्वर्ग गए ॥ ५५ ॥ तत्पट्टे ५६ मा श्रीजिनभद्रसूरिजी युगप्रधानभए, तत्प्रबंधो यथा, प्रथम संवत् १४६१ श्रीसागरचंद्राचार्य, श्रीजिनराजसरिजीके पट्टे श्रीजिनवर्द्धनमरिजीको स्थापनकीएथे, तिके एकदा जेशलमेरगढमें श्रीचिंतामणिपार्श्वनाथजीके पासमेंरही क्षेत्रपालकीमूर्ति देखके खामीसेवक का बरावर बेठना अयुक्तहै, एसा विचारकरके क्षेत्रपालकी
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Achar
५११ मूर्तिकों उठायके दरबजेकेपास स्थापनकरी, तब क्रोधायमानभया, क्षेत्रपाल पीछाउहांहि बैठा तब आचार्य तीन दिनकवाद वाहिर स्थिरकीया तीनप्रभूकी मूर्तियां स्थिरकरी बावनदेहरिकी १४७३ के साल प्रतिष्ठाकरी वाद क्षेत्रपाल जहांतहां गुरुमहाराजका चतुर्थव्रत भंगपणा दिखलाने लगा, इसीतरे एकदा गुरुमहाराजचित्रकूट विषे गए, उहांवि देवतानें वैसी तरहसें करा, तब सर्व श्रावक चतुर्थव्रतका भंग जाणके यहपूज्यपदके योग्य नहिंहै, ऐसा विचार करा क्रमसेंवर्द्धनसूरिजीव्यन्तर प्रयोगसे ग्रथलीभूत भए पिप्पलक ग्राममें जाके रहै, कितनेक शिष्यपासमें रहै, तब सागरचन्द्राचार्य प्रमुखसमस्तसाधुवर्ग एकत्र होके, गछकी स्थिति रखणेवास्ते, नवीन आचार्य स्थापना करना, ऐसाविचार करा, तब नवीन गोरानाम क्षेत्रपालकों आराधनकरके, और सर्वदेशके खरतरगच्छीयसंघकी अनुमतिहस्ताक्षर मंगवाके सर्वसाधुमंडली एकट्ठीकरके भाणसोंल ग्राम आए, तिहां श्रीजिनराजसूरिजीनें एक अपणे शिष्यको वाचक शीलचंद्र गणिकेपास पढणेकेवास्ते रक्खाथा सो समत्तशास्त्रका पारगामीभया, भणसालीगोत्रीय, भादोमूलनाम, संवत् १४६१ दीक्षाग्रहणकरी, अनुक्रमे पचवीस वर्षकेभए, तब तिनकों योग्यजाणके श्रीसागरचंद्राचार्ये सातभकाराक्षरमिलायके संवत् १४७५ माघसुदि १५ पूर्णमासीके दिन, भणशाली नाल्हासाहने सवालक्ष रुपये खरचके नंदी महोत्सवसहितम्ररिपदमें स्थापन किये, सातभकार लिखे है ? भाणसोल नगर, २ भणशालिक गोत्रीय, ३ भादोनाम, ४ भरणी नक्षत्र, ५ भद्राकरण, ६ भहारकपद, ७ जिनभद्रसरि, ॥ इसमाफक
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१ जैसलमेरादि नगरोमें अनेक ज्ञान भंडारकर्ता, २ भंडारीगोत्रनाडोल नगरमें १४७८ में प्रतिबोध कर्ता, ३ भद्रादि प्रतिमाओंके ज्ञाता, ४ भद्रकरणहार, इग्यारे भकारभि होतें हैं, इसमाफक बड़े प्रभावीक श्रीजिनभद्रसूरिजी विचरतेथके, आबूजी, शत्रुजयजी, गिरनारजी, शंखेसरजी, जेशलमेर प्रमुखठिकाणोंके विषेबिस्थापना तथा नवीनबिंबोंकी तथा नवीनचैत्योंकी प्रतिष्ठा तथा तीर्थयात्रादिकरते भए, ठिकाणे ठिकाणे पुस्तकोंके भंडार स्थापनकिये, इत्यादि अनेक तरेसें सम्यकदर्शनादि तथा दानादि ४ प्रकारके धर्मकी वृद्धिकरते भए, इसतरे श्रीवीरशासनकी चिरकालतक प्रभाबनाकरके अंतमे सर्वायु ६९ वर्षका पालके, अणशण आराधना पूर्वक संवत् १५१४ मिगशरवदि ९ नवमीकेदिन कुंभलमेरु नगरमें समाधिसे काल धर्मपायके देवलोककों प्राप्त भए, इनोकेवारे संवत् १४७४ श्रीजिनवर्द्धनसरिजीसें, पिप्पलक खरतरशाखा निकली, यह पांचमागछ भेदभया, ॥५६ ॥ उससमय श्रीजिनकीर्तिरत्नसूरिजी महाप्रभावकस्थविरभए, वह संखवालगोत्रीय, साहदीपचंद्रपिता, देवलदेवी माता, डेलाऐसा मूलनाम, वाद १४ बरसकी उंबरमें जानसजके पाणी ग्रहणको जाते मार्गमें खीमस्थलमें जान उतरीथी उहां खेजडीका बृक्षथा तब कोइ ठाकुर बोला इस समीके ऊपरसे वरछी निकाले उसकुँ मेरी पुत्री देउं तब एक डेलेका सेवक उठके बरछी खेजडी ऊपरसे निकाली उसीवक्त जो ताकत लगी उस्से प्राण निकलगया डेलेने विचारा स्त्रीके वास्ते इसका प्राणगया स्त्रीका पाणिग्रहण अनर्थको हेतुहै वाद सद्गुरुके वचनसे प्रति
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वोधपायके, श्रीनेमिनाथस्वामी राजीमतिके समान सर्वऋद्धि आदिकका त्यागकरके, आबालशुद्ध ब्रह्मचर्यपणेमेंहि संवत् १४६३ में श्रीजिनवर्द्धनसरिजीके हाथसें, आषाढवदि (११) इग्यारसको दीक्षा ग्रहण करी उत्कृष्ट ज्ञान गर्भित त्याग वैराग्य करके, उत्कृष्ट भावसें संजमतपादिकसे कर्मोकी निरजरा करते ऐसे एकादश (११) अंगादिकके ज्ञाता भए, तिसवखते श्रीजिनराजसूरिजीके पट्ट उपर दोय आचार्य कारणपर भये, यह वृत्तान्त श्रीजिनभद्रसूरिजीके संबंधसें जाणना, संवत् १४७० गणिपूर्वक वाचकपदप्राप्त भए, संवत् १४८० में उपाध्याय पद प्राप्त भए, उससमय आप श्रीनगर महेवामे विराजमानाथे, तव श्रीजिनवर्द्धनसूरिजी, तथा श्रीजिनभद्रसूरिजी इण दोनुं पूज्योंका पत्र आया कि उसमे श्रीजिनवर्द्धनसरिजीने लिखा तुम हमारे पास मालवे चित्रकूट, पिप्पलीये आवो ओर श्रीजिनभद्रसूरिजीने लिखा मारवाड जेशलमेर आवो, इसतरे दोनुं पत्रोंका मतलब जाणके, आपश्रीके मनमें विचार उत्पन्न भया, जिससे अपने कुलगोत्रके संसारीयोंको बुलायके पूछा ओर श्रीसंघसेविपूछा, कि इससमय श्रीखरतरगच्छमें दोय आचार्य हवेहैं, दोनुं पूज्यों में अपणे पास बुलाणेके लिये पत्र भेजाहै, वहपत्र हमकों एकहि वखतमें मिलें हैं, इसलिये हमकों पहिले किसतरफजाना ठीक है, तब आपश्रीको श्रीसंघने तथा महाराजके संसारिक पक्षवालोंने कहा, आप बहुश्रुत गीतार्थहैं, इसलिये आपहि विचारके, देखों कि उदय किसतरफ है, आपश्रीने उपयोग देके, विचारके कहा, उदयतो नवीन आचार्य श्रीजिनभद्रसरिजीका है, इनकी सेवामें रहेगा सो
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विशेष उदय पावेगा, श्रीजिनवर्द्धनसूरिजीके तरफ रहेगा उसकाविशेष उदय नहिं है, यह सुनकर श्रीसंघादिक वृद्धलोक बोले कि हे भगवन् ऐसा है तो आपश्री, श्रीजिनभद्रसूरिजीके पास जेसलमेर जावों, वादमे जेसलमेर श्रीजिनभद्रसरिजीकेपासगए, तब श्रीजिनभद्रसूरिजी महाराजने योग्य जाणके संवत् १४९७ में अपणे हाथसें सूरिपद दिया, उसीवक्त श्रीसंभवनाथजीके मंदिरकी प्रतिष्ठा तथा ज्ञानभंडारभया बादमें श्रीजिनकीतिरत्नसरिजी इस नामसें प्रसिद्ध भए,
बहुत वर्ष तक शुद्धचारित्र पालके, अनेक जीवोंको प्रतिबोध देके, धर्ममें स्थिरकरके याने सम्यक्वादिधर्म अनेक प्राणियोंको ग्रहण कराके, अपणें आत्माको उत्कृष्टपणे संयम तपादिकसें भावनकरते हुवे, अंतसमे अणशण आराधनापूर्वक संवत् १५२५ केसालमें नगरमहेवामे वैशाख शुद्धि पंचमीको समाधिसे कालधर्म प्राप्त होकर, ईशानदेव लोकमें महर्द्धिक देवपणे उत्पन्नहूए, अर्थात् स्वर्गगए, देवलोकसें चक्के मुक्ति जानेका संभव है, इसलिए महा प्रभावीक आचार्य हवे हैं, श्रीखरतर गच्छमें इन समर्थ आचार्य श्रीके नामसे शाखा हालमेभि प्रसिद्ध है, इन आचार्य श्रीका जन्म संवत् चवदेसै उगणपचास १४४९ की सालका है, सर्वायु ७६ वर्षका है, यह आचार्य श्रीदेवलोकगये वाद हालतक अपणे भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करतें हैं, मूलचरण स्थापना वीरमपुर नगर महेवामें है और बीकानेर जेसलमेर जोधपुर थाणा सुरत आबु खंभायत राजनगरादि अनेक स्थले चरण स्थापना है, इनोंका विशेष हालवडे चरित्रसें जाणना, ग्रन्थगौरवमयादसाभिरिह न लिखितमिति, पूर्वोक्त
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भावगम्भित उदाहरण तरीके एकगुरुगुणस्तुतिदीजावे है, तथाहि श्रीजिनकीरतिरतनसरि बंदीये, मूलमहेवे थान, संयमीयां सिरसेहरो शंखवाल कुलभांण, ॥१॥ श्री०कीर, संवत् चवदे ऊपरे, उगुणपचा सैजास, जनमथयोदीपाघरे, देवलदे उल्लास, श्री० की० ॥॥२॥ डेल्ह कुंमर हिवनेमज्युं, मुकी निजघरवास, तेसढे संयमलीयो, श्री० जिनवर्द्धनररिपास, ॥३॥ श्री० की०॥ वाचक पदवीसित्तरे, असीये पाठकसार, आचारिज सत्ताणमें जेसलमेर मझार, श्रीजिनकी०॥, ॥४॥ सुरनरकिन्नरकामिनी, गुणगावे सुविसाल, साधुगुणे करिसोभता, हारविचे जिमलाल,श्रीजिनकी०॥५॥ पगला अरबुदगिरिभला, योधपुरे जयकार, राजनगर राजेसदा, धुंभ सकल सुखकार, श्रीजिनकी०, ॥६॥अमीयभरे भललोयणे, तुं मुझदेदीदार, पाठक ललित कीरतिकहै, दिन प्रति जय जयकार, श्रीजिनकीरतिरतनसूरिवंदीये, ॥ ७ ॥ इति श्रीजिनकीरतिरतनसूरिस्तुति इत्यादि उत्पत्ति भक्तिभाव गुणवरणनादि नवनवभावगभित नवनवरागादियुक्त अनेक कविरचित अनेक स्तवनादिक है, सो अलगहि संग्रहकरके सज्जनोंके करकमलोंमे सादर उपस्थित करदीया जावेगा ५७ तदनंतर तत्पट्टपरंपरायां क्रमात् श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी भए है तिके गामचामूकेवासी, वाँफणागोत्रीय, साहमेघरथ पिता, अमरादेवी माता, संवत् १९१३ का जन्म, संवत् १९३६ में दीक्षा, संवत् १९७२ पोषशुदि १५ के दिन हिन्दनिवासी समस्तजैनसंघने नंदीमहोत्सवादि आचार्यपदोत्सव किया, श्रीजिनचारित्रसरिजीनें सरिमंत्र देके, पदस्थापना करी, मोहमयी पचनमें, फेर
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१९७३ का चोमासाभी श्रीसंघके विशेष आग्रहसें लालबाग ममाईमें करा, वादमें ममाईसें सुविहित विहारसैं कौंकण लाट गुर्जर मालव मेदपाट गोडादि देशोंमे विचरतेभए, बुहारी सुरत बडोदा रतलाम ईन्दौर मनसोर उदयपुर इत्यादि नगरोंमें चतुर्मास करके श्रीवीरशासनोन्नति करते हुवे क्रमसें मरुधरादि देशोंमें सुखसे विचरतें हैं, इनोंका विशेष अधिकार बृहत्चरित्रकी प्रस्तावनाकी ८ मी पृष्टसें जाणना ॥५६॥ ॥५७मा श्रीजिनभद्रसूरिजीके पाटऊपर श्रीजिनचन्द्रसूरिजीभए, तिके जैशलमेरवासी, चम्मगोत्रीय साहवछराज पिता वाल्हादेवी माता, संवत् १४४७ जन्म, संवत् १४९२ दीक्षा, संवत् १५१४ वैशाखवदि २ द्वितीयाके दिन कुंभलमेरु रहेवासी कूकड चोपडागोत्रीय साह समरसिंहनें नंदीमहोछव किया, श्रीजिनकीर्तिरत्नसरिजीने पद स्थापना करी, बादमें विचरतेथके, अर्बुदाचल ऊपर नवफणापार्श्वनाथजीकी प्रतिष्ठाकारक, श्रीधमरत्नसूरिजी, गुणरत्नसूरिजी प्रमुख अनेक मंडलाचार्य पदस्थापक श्रीजिनचंद्रसूरिजी विक्रम संवत् १५३० जेशलमेर नगरमें देवलोकको प्राप्तभए, ॥ ५७ ॥ इनोंके चारेवि संवत् १५०८ अहमदाबादमें लोंके लेखकनें जिनप्रतिमा उत्थापनकरी, वहलोका जिनप्रतिमा उत्थापनादि अनेक उत्सूत्रप्ररूपणा कारक, और गुरुपरंपरा तथा परंपरागतवेष, और परंपरागत शुद्धदेशसर्व-रूप-आचरणा, परंपरागत शुद्ध सर्वसिद्धान्ताधिकारादिकका त्यागकर सर्व सिद्धान्तोंका अनादरकर सर्वसिद्धान्तोंकी पंचागीका त्यागकर, मनमानेसूत्रोंको प्रमाणकर, श्रीपार्श्वचंद्रसे सूत्रोंका
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बार्थ प्राप्तहोकर, अनेक संप्रदायागत सत्यार्थवातोंका त्यागकर, कषायवससे गृहस्थके लिंगको प्रमाणकर, उसीमे रहकर किंचित् मनमाने सूत्रोंके, मनमानेटवार्थका आधारलेकर एकान्त जिनाज्ञा विरुद्ध अर्थका प्ररूपक कुत्सितपुरुष श्वेताम्बर जैनशासनमें उत्पन्नभया, वाद संवत् १५२४ अथवा ३१ में लुंपकमत प्रचलितभया, यह लैपकमत स्वछंदाचारी ४५ पुरुषोंने मिलकर प्रथम प्रचलितकराहै, इसढुंपकमतकी यहशब्दव्युत्पत्तिहै, लुपति श्रीजिनप्रतिमादि सत्यार्थ, इति लुपकः, इत्यादि सत्यार्थ शब्दव्युत्पत्ति इसमतकीहै इसतरे लुंपकमत उत्पन्नहोकर प्रचलितभया, इनमें स्वयंबुद्धाभिमानको धारण करके, मनोकल्पित प्रथम वेषधारक संवत् १५३३ में भानाथा भूणा रिषिभया, इनकी उत्पत्ति ऐसीहै, अहमदाबादमें दशा श्रीमालीलोकानामें एकलेखकथा, सो जतियांक पुस्तकां लिखताथा, एकदा तपगछका ज्ञानजी जतिके पुस्तकलिखी, जिसमें बहुतहि खोट रहगई, तब ज्ञानजी कुछकठोर वचनबोले, जबलोंका लडनें लगा, तब धक्कादेके लोकाकों निकाल दिया, पीछे वहलोंका नींबडी जायके राजकारभारी लखमसी नामक वाणियेंके सामने कूका, तब लखमसीने हकीकत पूछी, लोंकेनें कहा, सच्चाधर्म कहेता तपाजतियांने मास्यो,तब लखमसी बोला इहांतुथारो मतचलाव, में तेरा पक्षहुं सुनकर लोकाखुसी हुवा, और अपणे मनमें रागद्वेषके प्रभावसें सोचनेलगा, अहोतीर्थंकर गणधर सामान्यकेवली श्रुतकेवली वगेरेका तो आज अभावहै, तो फेर इनजतिआदिकके पराधीन रहकर आजीविका करने में मुझको क्या सुख है, इसलिये में स्वतंत्र होकर अपणी मरजीप्रमाणे धर्मप्ररू
३४ दत्तसुरि०
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पणा करुंगा, तो स्वतंत्र और सुखी होवुगा यह लखमसी राजकारभारी मेरे सहायहै, में बाणियाहूं इसलिये मेरा जाति वगेरामे भी बहुतसा संबंध प्रसंगादिकहै, जतिआदिक तो मूर्तिपूजन मंदिरादिक बनाने में और द्रव्य खरचकरणेमे धर्म कहेहै, परन्तुमें इनके विरुद्धधर्म कहुंगा, तो साधारणस्थितिवाले दुखीदरिद्री गरीब वगेरे सर्व लोक मेरा कहाहुवा धर्म मानेगा, इसलिये जति आदिकके पराधीनताका जो लेखकपणेंका कार्य आजसे हि छोडकर स्वतंत्र धर्मोपदेशकरणाहि ठीक है, परन्तुमें तो पढाहि नहिं शास्त्र तो संस्कृत प्राकृतादिक भाषामे है, इसलिये सरलस्वभावी किसी विद्वानका आश्रय लेकर यह अपणा मनोरथ पूर्ण करूंगा इत्यादि विचार करके वाद लोंका लखमसी राजकारभारीसें बोलाकि आप अपणी जबानपर पके रहोगे तो में आपको सच्चाधर्म कहुंगा, और बोला कि में मेरा लेखकपणेंका धंधा आजहिसे छोडदेता हूं, आपकों सच्चाधर्मवतलानेके लिये, शास्त्रदेखकर तपास करताहूं वादमें आपको सच्चाधर्म कहूंगा, ऐसा कहकर अपणे ठिकाणे चलागया, और जाकर लोंकाने विचार कराके में राजकारभारीको जवानदेकर आयाहूं, इसलिये मुझे यह कार्य करनाहि पडेगा, अन्यथा शिक्षाहोजावेगा, और झूठा ठेरुंगा इसलिये अबतो अपणा वचन पालनाहि ठीकहै, यह विचार कर अपणा मनोरथ पूर्ण करणेंके लिये घरसे निकला और घूमता हुवा एक सरल स्वभावीतपगच्छीय यति पार्श्वचंद्र नामक विद्वान्से मिला, और उसकी कुछ अभिलाषापूर्वक सेवा करने लगा, बादमें कितनेक दिन सेवा
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करतां हुवे, तब एक दिनके समय वह पार्थचन्द्रयति उसलोंके वणियेकी कुछ अभिलाषापूर्वक सेवा जाणकर पंडितपावचन्द्रयति लोंकासें इसतरे बोला, हे लेखक तें मेरी इतनी सेवा किसवास्ते करता है, तब दुष्ट अध्यवसायि लोंका वाणिया मायावृत्तिसें बोला कि, हे गुरो मेरेको प्राकृत भाषा संस्कृत भाषादिकका बोध नहिं है, और सामान्य लोक भाषाका मेरेको बोध है, इसलिये आप मेरेको सूत्रोंका बालावबोध याने सूत्रोंका अक्षरार्थटवा बनादेवो, जिसकरके में सुबोधहोजाबुंगा वादमें आपको श्रीपूजवनादेवंगा, और में आपका खास वजीर होजावंगा, वादमें आप और में दोनोंजने स्वतंत्र और श्रीपूजोंकी तरह आडंबर बनाकर अपणेभि पूजे माने जावेगें, लोकमें, इसलिये आप विद्वान् हैं मेरेको सूत्रोंका टवार्थ लिखदेवे, यह मेरा अभिप्राय है, इसतरेका मायावी लोंके लेखक वाणियका वचन सुनकर उसकी सेवासें हर्पित होकर, और आगे पीछे नफे नुकसांणका तो विचार किया नहिं, और लोभमें आयके पंडित पार्थचन्द्रयतिने लोंकेको सूत्रोंपर वृत्ति अनुसार टबार्थ लिखदिया, बादमे वह सूत्रोंका टवार्थ स्वतंत्र लिखलिया, इसतरे सूत्रोंका टवार्थ हाथ आनेपर लोंकाके पगमें जोर आगया, अर्थात् बलिष्ठहो गया, वादमें पंडित पार्थचंद्रयतिकों भी धोखादेकर, सूत्रादिकका टवार्थ लेकर, लोंका लेखक लखमसी राजकारभारीकेपास नींबडी चलागया, पंडितपार्श्वचन्द्रयतितो उभयतरफसें भ्रष्टभया, वादमें लखमसीके सहायसे धर्मकहना सरुकिया परन्तु जब काल प्रभावसे श्रद्धाहीन धनहीन हुवे जीवोंको जाणकर, और बहुत
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लोकोंको कृपणदरिद्री होतेहुवे जाणके, उनोको अपणा मत ग्रहण कराणेंके लिये, सिद्धान्तसम्मत श्रीजिनमंदिर, श्रीजिनप्रतिमा दिकका उत्थापनकिया, मनमें आयेसो ग्रन्थमाने, बत्तीस सूत्रोंको सच्चा मान्या, परन्तु उनमें पंचांगी प्रमाणका तथा श्रीजिनप्रतिमा पूजनका अधिकारोंकों झूठा मान्या, इससें मनोमति हूवा, २५ वर्ष गृहस्थपणे लुंपकमतकी प्ररूपणा करी, पीछे लोंकेके उपदेशसें एक भाणा नामकवाणियेके बेटेने अपणे आपहि मनोकल्पित वेषधारण किया, उसका भृणारिषि नामहूवा, पीछे परिवारवधतां इस लुंपक मतमें तीनगादी हुई, नागोरी, गुजराति, उत्तरादि, इत्यादि लुंपकमतकी इससमय शाखा बहुतहै, इसका विशेषनिर्णय साम्प्रदायिक गुरुमुखसें जाणना, और लुपक लेखकके पहिलेका मिलायाहूवा, सत्तावीसपाट इसतरे है १ श्रीवीरगौतमसुधर्म, २ जंबु, ३ प्रभव, ४ सय्यंभव, ५ यशोभद्र, ६ संभूति विजय, ७ भद्रबाहू, ८ स्थूलीभद्र, ९ महागिरि, १० सुहस्ति, ११ सुप्रतिबुद्ध, १२ इन्द्रदिन्न, १३ आर्यदिन, १४वयर, १५ वज्रसेन, १६ आर्यरोह, १७ पूसगिरि, १८ फल्गुमित्र,१९ धरणीधर,२० शिवभूति,२१ आर्यभद्र,२२ आर्यनक्षत्र, २३ आर्यरक्षित, २४ आर्यनाग,२५ जेहिल, विष्णु, २६ सढील,२७ देवर्द्धिगणि, लोंका लेखकके पीछेकी उत्सूत्रपरंपरा इसतरह है, १ भाणारिषि, २ भीदारिषि, ३ न्युनारिषि, ४ भीमारिषि, ५ जगमालरिषि, ६ सरवारिषि, ७ रूपरिषि, ८ जीवारिषि, ९ कुंवरजीरिषि, १० श्रीमल्लजीरिषि, ११ रत्नसिंहरिषि, १२ केशवरिषि, १३ शिवरिषि, १४ संघराजरिषि, १५ सुखमलरिषि, १६ भागचन्द्र, १७ वालचन्द्र,
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१८ माणेकचन्द्र, १९ मूलचन्द्र, २० जगतचन्द्र, २१ रत्नचन्द्र, २२ नृपचंद्र, इसतरे कुंवरजीके पक्षकी परंपराहै गुजराति छोटे पक्षकी परंपरा इसतरेहै, जीवाजी, १ वरसिंगजी २ यशवंतजी ३ रूपसंगजी ४ दामोदरजी ५ कर्मसिंहजी ६ केशवजी ७ तेजसिंहजी ८ कहानजी ९ तुलसीदासजी १० जगरूपजी ११ जगजीवनजी १२ मेघराजजी १३ सोमचंद १४ हरखचंद १५ जयचंद १६ कल्याणचंद १७ खूबचंद १८ इसतरे गुजराति लोंकोंकी परंपराहै कुंवरजीको पक्ष, गादी जामनगर कहै है, और केशवजी पक्षके पूज खूबचंद्रजीकी गादी वडोदरा, और धनराजजी पक्षके वजेराजजी पूजकी गादी जैतारण अजमेर है, इत्यादि लुंपक मतकी परंपरा है,
और इसमतकी विशेषसमीक्षा परिशिष्टाधिकारमें करेंगे सो वहांसे जाणलेना, इहांपर विशेष लिखनेका अवसर नहोनेसें विराम करतें हैं, इति संक्षिप्त लुपकमतोत्पत्तिः स्वरूपं च परिकथितमिति ॥ नमोस्तु भगवते श्रीवर्द्धमानाय, ५८ श्रीजिनचन्द्रसरिजीके पाट ऊपर, श्रीजिनसमुद्रसूरिजी युगप्रधान भए, तिके वाहडमेरनिवासी, पारख गोत्रीय देकोसाह पिता, देवलदेवी माता, संवत् १५०६ जन्म, संवत् १५२१ दीक्षा, संवत् १५३० माघ सुदि १३ तेरसके दिन जेशलमेरकेवासी संघपति सोनपालने नंदी महोच्छच किया, श्रीजिनचन्द्रसरिजीनें खहस्तसें पद स्थापना करी, फेर विहार करते हूवे, सिंधुदेसगए, वहां पंचनंदी सेलयपर्वतवासी खोडीया क्षेत्रपाल सोमयक्ष माणिभद्रादि साधक भये, और देशकालानुमाने परम चारित्रवंत, ऐसे श्रीजिनसमुद्रसरिजी विक्रमार्क संवत् १५५५ में
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अणशण आराधना करके, समाधिपूर्वक अहमदावादनगर में देवलोक गए, ५८ ॥ ५९ मा श्री जिनसमुद्रसूरिजी के पाठ ऊपर, श्रीजिनहंससूरिजी भए, तिके सेवावा नगर वासी, चोपडा गोत्रीय, साहमेघराज पिता, कमलदेवी माता, संवत् १५२४ जन्म संवत् १५५६ वैशाख सुदि ३ के दिन रोहिणी नक्षत्रे श्रीवीकानेर नगरमें करमसी मंत्रीश्वरें लक्षद्रव्य खरचकरके, आचार्य पदका उच्छव किया, तथा भांडारजी के मंदिर के पास, श्रीनमिनाथजीका बिम्ब चैत्य की प्रतिष्ठा कराई, पीछे एकदा आगरा नगरमें रहनेवाले सं० डुंगरसीजी, मेघराजजी, सोमदत्त प्रमुख संघनें बहुत आग्रह करके, वीनती भेजके महाराजकों बुलाया, तत्र श्रीगुरुमहाराजभी वहांगए, तब वादशाह हाथी घोडा पालखी वाजत्र चामरादि आडंबर करके सहित श्री. गुरुमहाराजका प्रवेशमहोच्छवकरा, तिहां संघनें गुरुभक्ति संघभक्त्यादिक में दो लाख रुपिया खरच करा, पीछे फेर कोई चुगलखोरके चुगली करनें सें वादसाहनें फेर गुरु महाराजकों बुलवाए, धवलपुर में रखे, तब देवसहायसें गुरुमहाराज बादशाह के चितकों चमत्कारवताके प्रसन्नकरके, ५०० पांचसो केदीयोंको छोडायके, अमारिपटह वजवायके, उपासरे आए, तब समस्तसंघ बहुत हर्षित भया, फेर गुरुमहाराज अतिशय सौभाग्यधारक, तीन नगर के विषे तीन प्रतिष्ठाकारक, अनेक संघपतिप्रमुखपद स्थापक, पाटणनगरमें तीनदिनका अणशण आराधना करके समाधि संवत् १५८२ सीमें स्वर्गगए, तिस वखतमें संवत् १५६४ वर्षे मरुदेशके विषे आचार्य शान्तिसागरसें बृहद् आचार्यखरतरशाखा
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निकली, यह छट्टागछ भेदभया, तथा इनोंहिके वखतमें, संवत् १५६२ कडुआमत हूवा, संवत् १५७० में लंकामतसें, अर्थात् श्रीरूपऋषिके परिवार से निकलके बीजा नामक वेषधरनें बीजामत निकाला, पहिला लुंका हूवा दूसरा यह हूवा, तब लोक इसमतको बीजामत कहने लगे, लंकेने श्रीजिनप्रतिमाका मानना पूजना उत्थापनकरा, इसबीजामतिनें श्री जिनप्रतिभाका पूजना मानना शुरु किया, प्रतिष्ठा वगेरे दिगंबर जैसी करणे लगा इतना विशेषहै, संवत् १५७२ नागोरी तपाशाखामेसें निकलके, पण्डितपार्श्वचन्द्रजीयतिनें अपने नाम से पार्श्वचन्द्र मत निकाला, इसका स्वरूप इसतरे है, तथाहि श्रीमान् साधुरत्नसूरिजी के अंतेवासी प्रथम पंडितावस्था में यतिपर्णे देशाटणकररहेथे, तिससमें मायावीलोंका पंडितपार्श्व चंदजीसें आकर मिला और बहुतहि भाव भक्तिसेवा इनोंकी करने लगा वादमें जो वृत्तान्तं हूवा सो लंपक मताधिकार में लिखा है, इसलिये यहांपर नहिं लिखा है, बाद में पंडितपार्श्वचन्द्रजीनें सोचा कि कसूरतो अपने हाथसें हूवा है, अब चलो गुरुजीकेपास अरज करें, यह विचारके श्री साधुरत्नसूरिजी के पास आकर अरजकरी कि, मेने यह दवार्थसूत्रोंपर करा है, कैसा है दिखलाया, तब सूरिवोले कि तेंने बनायासो टीकानुसार होनेसें ठीक है, परन्तु आगे पीछे के परिणामको विचारा नहिं, यहटवार्थ प्रथम वार ने लिखा है, अब इसको प्रसिद्ध नहिं करना, ऐसा कहकर वादमें कुछ मनमें विचार करके, उपाध्यायपददेके, अपर्णेपास रक्खे परन्तु दगा न सगा किसीका इसलिये कितनेक काल बाद लुंपकमतकी सुलसुलाट भई, तब तपास करतां पंडितपार्श्वचंद्रकृत् टबाके आधारसें
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५२४ इसढुंपक मतका उत्थान हूवाहै, वादमें गछाधिपतिने श्रीसाधुरत्नमरि ऊपर समाचार लिखे तब श्रीसाधुरत्नसूरिजीने श्रीपार्श्वचन्द्रजीसै नाराज होकर जब उपालंभदिया, तब श्रीसाधुरत्नसूरिजीके समीपसें कुछ मानसिक विचारकर निकला निकलके पृथक विचरणें लगा तिस अवसरमें प्रायश्चित्त निमित्त विशेष गछपति और गुरुने दबाणकरा, मारवाड जोधपुरका शरणालिया, वादमें इनोंको गुरु और गछपतिने अपनें गछबाहिर करदिया तब किसीने इनोंका संग्रह नहि किया, वादमें खरतरगछवालोंने स्वाभाविक दयालुतासै सहायताकरी, वादमें फेर इनोंके दो शिष्यगुप्तपणे भगके पढणेंके निमित्त दक्षणदेशमें गए, वहांपर भाग्यसंयोगसे खरतरगछाचार्य उसदेशमें विचरते हुवे मिले, उनोंकेपास गुप्तपणे रहै, न्यायव्याकरणादिक पढलिखकर हूसियार हूवे, जब अपणे देशमें आणेके लिये तइयार हूवे, तब आचार्यश्रीने पुन्यप्रकृति विनयादिक गुणदेखकर महिरवान होकर सूरिमंत्र दिया, वादमें विनयपूर्वक आचार्यमहाराजको नमस्कारकर अपने देशकों चले, मार्गमें मांडवगढ आया वहांपर महामहोछव पूर्वक प्रसिद्धमे सूरिपदारूढ हूवे, वादमें अपने गुरुकेपासमें आकर मिले, प्रथम श्रीपार्श्वचन्द्रजीको सूरिपदमें स्थापे, वादमें वन्दनाकरी, १ श्रीपार्श्व चन्द्रसरि श्रीविजयदेवसूरि ब्रह्मसूरि इत्यादि परंपरा चली, और वृद्धतो ऐसा कहेहै कि श्रीपार्श्वचंद्रजीको गच्छबाहिरकिये तब वीकानेर आकर पंचायति श्रीचिंतामणजीके मंदिरमें दर्शनकरते हूवे खरतरगच्छाधिपति श्रीसूरिजीके चरणका सरणालिया इत्यादि स्वरूप देखकर परमदयालु आचार्यश्रीबोले कि तुमारी
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क्या इच्छा है सोकहो तब श्रीपार्श्वचन्द्रजीने कहा हे परमदयालो आपका हाथ और वासक्षेप मेरे मस्तकपर होना चाहिये, वादमें उसीतरे करदिया, तब श्रीपार्श्वचन्द्रसूरि हुवे, इसलिये परंपरागत उपगार निमित्त श्रीवीकानेरमें पायचन्द्रिया वडेउपासरेके अनुयायि रहे है, अर्थात् वडेउपासरेवाला करेसो मंजूर होवे है, और नहि, हालमेंभी पायचन्दियांकी मूलगादी वीकानेरही है, मन्तव्य प्ररूपणा समाचारी वगेराका फेरफारकरा वहस्वरूप इहां नहिं लिखा, ग्रंथगौरवके भयसें, विशेष वृद्धानुग सम्प्रदायादिकसे जाणना, इति पार्श्वचन्द्रमूलमतोत्पत्तिः तत्वं पुन: तत्वविदो विदन्ति, वा केवलिनः मयातु साम्प्रदायात् यथा ज्ञातम् तथा लिखितम् , ५९ ॥ तत्पट्टे ६० मा श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी भए, तिके कूकड चोपडा गोत्रीय, साहजीवराजपिता, पनादेवी माता, संवत् १५४९ जन्म, संवत् १५६० दीक्षा, संवत् १५८२ भाद्रवावदि ९ नवमीके दिन साहदेवराजने नंदीमहोच्छव किया, श्रीजिनहंससूरिजीयें अपणे हाथ करके पदस्थापना करी, फेर गुर्जरदेश सिंधुदेशादिकमें विहारकारक, पंचनदी साधक, श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी कितनेक वर्षतक जेशलमेर रहे, तिहांमुनि कितनेक शिथलाचारी होगए, प्रतिमा उत्थापकका मत बहोत फेला तब वीकानेरकेवासी वच्छावत संग्रामसिंह मंत्री गच्छस्थिति रखणे वास्ते, श्रीगुरुमहाराजकों बुलवाए, तब भावसें क्रियोद्धार करके, श्रीगुरुमहाराजने विचारा कि पहले देराउर नगरमें श्रीजिनकुशलमूरिजी महाराजकी यात्रा करके पीछे सर्वपरिग्रहत्यागके विचरूंगा, इसवास्ते गुरुमहा
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राज यात्रा के वास्ते देराउर गए, तिहां गुरुदर्शन करके जेशलमेर पीछा आते वखतमें गुरुमहाराजकों मार्ग में जलाभावसें तृषापरिषह बोहोत उत्पन्न भया, परन्तु जल रातको मिला नहिं लिया, उसी ठिकाणें तृषापरिषह अछीतरे सहके अणशणआराधना करके: सुकृतकी अनुमोदना दुष्कृतकी निंदा करते हुवे, सर्व संवर चारित्र तपादिकका ध्यान करते हूवे, परमसमता समाधिपूर्वक शुभध्यानध्याते हूवे श्रीगुरुमहाराज संवत् १६१२ आषाढसुदि पंचमी के दिन कालधर्म प्राप्त होकर स्वर्ग गए, ॥ ६० ॥ इति श्रीमजिनकीर्त्ति - रत्नसूरिशाखायां तत्परम्परायां च क्रमात्, श्रीमज्जिन कीर्त्तिरि ऊर्फे श्रीमञ्जिनकृपाचन्द्रसूरिशिष्यपंडित शिरोमणि श्रीमदानंद मुनिसंकलिते लोकभापोपनिबद्धेच, तल्लघुगुरुभ्रातृउपाध्याय श्रीजयसागरगणिना संस्कारिते युगप्रधान श्रीमजिनदत्तसूरिचरिते श्रीमजिनचन्द्रसूर्यादिश्रीमजिन माणिक्यसूरिपर्यवसानश्रीमज्जिनदत्तनूरिसन्तानप्रासंगिकमतादिखरूपवर्णनो नामसप्तमः सर्गः ॥
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युगप्रधान श्रीमजिनचंद्रसूरीश्वरजी महाराज ( चोथा ).
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जन्म संवत् दीक्षा संवत् आचार्यपद सं. स्वर्ग संवत १५९५. १६०४ १६१२.
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॥ अथाष्टमः सर्गः ॥ नमोऽस्तु भगवते श्रीपार्श्वनाथाय समस्त विनव्यूहान्धकारहरणतर्णये नमोऽस्तु भगवते श्रीवर्द्धमानाय स्पर्द्धमानायकर्मणा । तज्जयावाप्तमोक्षाय, सचिदानंदरूपाय श्रीसिद्धाय नमः॥ आकार्यगुर्जरदिशोवरलाभपुया श्रीसाहिना गुरुगुणानिपुणानिरीक्ष । सन्मानिता युगवरप्रवरावदाता जाता वशीकृतसुरा जिनचन्द्रपूज्याः ॥९॥ अथ तत्पट्टे ६१ मायुगप्रधानपदभृत्, अकबर असुरस्त्राणप्रतिबोधक, चतुर्थदादासाहेब नाम प्रसिद्धिभाक्, श्रीमजिनचन्द्रसूरिजी हुए, तिणों का संक्षिप्त चरित्रलेश इस माफकहै, तिके वडली गामवासी रीहड गोत्रीय, साहश्रीवंतपिता, सिरियादेवीमाता, संवत १५९५ का जन्म, संवत् १६०४ दीक्षा, संवत् १६१२ भादवासुदि ९ नवमीकेदिन जेशलमेर नगरमें राउल मालदेवकारित नंदीमहोछव करके सरिपदमे प्राप्तभए, तिसहीज रात्रिके विषे श्रीजिनमाणिक्य सूरिजी प्रगटहोके सेवाकी पोथीमें रहा आम्नायसहित सूरिमंत्रपत्र श्रीजिन चन्द्र सूरिजीकों दिया, फेरसंयम तपादिककेविषे विशेष उद्यम करना इत्यादि कहकर अदृश्यभये, फेरश्रीजिन चन्द्रमूरिजी अत्यंत संवेगरंगमें वासितचित्तभयेथके, गच्छकेविषे शिथिलपणादेखके, सर्व परिग्रहका त्याग करके, वछावत मंत्रिसंग्रामसिंहकापुत्र श्रीकर्मचन्द्र मंत्रिके आग्रहकरके, वीकानेर नगरमें गए, तिहां प्राचीन उ. पाश्रयकों यतिलोकोंकरके रोकाभयादेखके मंत्रीश्वरनें अपणी अश्वशाला महाराजको उतरणेंकों दीवी, ओरभी बहुत गुरुकी भक्ति
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५२८ करी, गुरुमहाराज तिहां क्रियोद्धारकरके सुविहित साधुमार्ग अंगीकारकरा, अपणेंसमान साध्वाचार पालनेवाले गुणवान १६ साधुवोंके साथ विहारकरतेहुवे, ठिकाणे ठिकाणे प्रतिमा उत्थापक मतकाखंडनकरतेहुवे, अपणी सिद्धान्तीय समाचारीकों दृढकरते. हूवे अस्खलितविहार सर्वत्र करतेहूवे, अखंडित आज्ञासहित अनुक्रमसें विचरतेहूवे गुर्जरदेशमें गए, तिहां अहमदाबाद नगरमें, मतिराकाकडी खडबुजादिक फलका व्यापारकरके आजीवका कारताहूवा, मिथ्याधर्मनिष्ठ पोरवाल कुलोत्पन्न सिवाजी ( सदा) सोमजीनामें दो भाईयोंके एक नवीन वस्त्र ऊपर वासक्षेपकरा और कहा फलादि व्यापार वस्तु ऊपर इसवस्त्रको ढकना, इसी तरेकरा, अनर्गलऋद्धिसमृद्धिवाले भये, विशेष गुरुमुखसें जाणना, वादमें प्रतिबोधदेके सर्व कुटुंब सहितमहर्द्धिक श्रावककिये, पोरवालज्ञातीय महाधनवंत श्रावकभये, पोरवालवंश प्रतिबोधक उपकेशगछीय खयंप्रभसूरि वादमें यशोभद्रसूरिवगेरा बहुतसें सुविहित खरतराचार्योंने पोरवालवंशकीवृद्धि करीहै, आखरसंवतसोलेसें तक पोरवालवनायेगयेहैं, इसलिये पोरवाल एक गछके नहिंहै, उपकेशगच्छ, खरतरतपा आंचलादि अनेक समाचारीबालेहैं, इसलिये प्रस्तुत पोरवालजातिय श्रावक खरतरसमाचारीकारक-भये, फेरजिणोंने संघनिकालने पूर्वक श्रीसेर्बुजयकी यात्राकरके सर्वदेशोंके जैन श्रावकोंको एकैकमहोर, एकैक थालकी लहांणी दीनी इत्यादि बहुतसा विशेषचरित्रहै, सोछपाहूवागणधर सार्धशतकान्तर गत श्रीचारित्रसिंहगणि उद्धृत प्रकरण वृत्तिके भाषान्तरसें जाणना तथा पाटण
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अकबर सलेम प्रतिबोधक श्रीमजिनचंद्रसूरीश्वरजी महाराज (चोथा).
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चित्र परिचय. जंगम युगप्रधान भट्टारक अंजिनचंद्रसूरीश्वरजी शिप्योसहित अकबर के निमंत्रण को बीकार कर संवत् १६.१ में लाहोर पधारे. मिलनका दृश्य अपूर्व और चमक रिक घटनाओंसे पूर्ण था.
१) गुरुमहाराज शाही दरबार में प्रवेश करत है. बादशाह स्वागतार्थ सन्मुख आता है और बधाकर स्वागत ) पूर्वक निश्चयानुसार बैठन की प्रार्थना करता है. किन्तु गुरुमहाराज कहते है यहांपर जीव हैं इसलिये बैठना नियम विरुद्ध है. बादशाहने कहा कितने जाव है. गुरुमहाराजने कहा : जाव है. काजी प्रसन्न हो गुहाने से जीव निकालता है किंतु तीनही निकलते हैं. कारण सगर्भा बकरी श्री. अतः भूमिके संसर्ग से दो बच्चे होगये थे.
(२) काजीने ईर्षा से गुरुमहाराज का मानभंग करने के लिये मंत्रबल से अपनी टोपी आकाश में उड़ाई. गुरुमहाराजने रजाहरणगे नाड़ित कराते हुवे पुन: काजी के सिरपर रखादी. यह चमत्कारिक दृश्य देख अकबर मंत्रमुग्धसा होगया.
(३) आहार के लिये परिभ्रमण करते हुवे गुरुमहाराज के एक शिष्य की एक गृहस्थ के यहां राज्यकर्मचारी मुल्लाजी मौलवी से भेट हो गई. उसके तिथि पूछनेपर अमावस्या थी किन्तु मतिभ्रम के कारण पूर्णिमा कह दी. पश्चात आके गुरुमहाराज से साद्योपांत ह ल कहा. गुरुमहाराजने एक गृहस्थ से स्वर्णथाल मंगवाया और मंत्रितकर आकाश में उड़ा दिया. चन्द्रवत् प्रकाश देख बादशाहने बारा बारा कोसतक सवार दोडाये किन्तु सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश देख बादशाह को खबर दी. सुनकर बादशाह अत्यंत प्रसन्न हुवा और गुरुमहाराजपर विशेष श्रद्धाभक्ति रखने लगा.
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. ५२९ नगरमें एकदा धर्मसागरपरपक्षिने लोकोंके आगै ऐसा कहाकि श्रीअभयदेव सूरिजी नवांगवृत्तिकार श्रीखरतरगच्छमें नहिं हुवा तब गुरु पाटण पधारके चोरासी गच्छीय सर्व आचार्य उपाध्यायसाधुवगेरेके समक्ष परपक्षियोंका पराजयकीया तब साने नवांगवृत्तिकारक जयतिहुअण पंचाशकादि प्रकरण को श्रीअभयदेव सरिजीखरतर गच्छमें भरा ऐसा अंगीकार किया सवोने सहियाकरी और धर्मसागरके बनाये भये कुमतिकुद्दालादिग्रंथ अशुद्ध ठहराये, और श्रीफलोधिपार्श्वनाथजीके मंदिरमें परपक्षियोने ( तपगच्छीयोने) दरवाजेपर ताला दिया तब आचार्यश्रीने मंत्रबलसे ताला उघाड दियाथा वाद एकदा मंत्री कर्मचंदके मुखसे श्रीगुरु माहाराजकी प्रशंसा और महत्वपणा सुनके पातसाहने दर्शन करणेकों बोलाये वीनति कराइ तव श्रीगुरुवर्य लाहोरनगर पधारे अकब्बरको प्रतिबोधके सबदेशोंमें फरमाण भेजाके पर्युषणादि अट्टाहि योंमे अमारि पालनकराया तथा खंभाततीर्थके पास समुद्रमे १ वरस पर्यंत मच्छोंकों अभय दान दिराया, और श्रीगुरु माहाराजका अतिशय देखके पातसाहने युगप्रधान पद दिया, याने इसवक्त जैनमें ऐसे आचार्ययुगप्रधान और नहिंसंभवे इसलिये यहयुगप्रधानहैइति उसी अवसरमेंहि श्रीअकब्बर पादसाहके आग्रहसैं श्रीगुरुने श्रीजिनसिंह सूरिजीकुं अपणे हाथसै आचार्यपद दीया तब अत्यंत प्रमुदित होके मंत्री कर्मचंदने बहोत द्रव्यखरचके महोत्सव करा उसमे नवगाव नवहाथी पांचसै घोडा ५०० और भूषण वस्त्रादि याचकोकों दिये इस प्रकारसे सवाक्रोड द्रव्य खरचके श्रीखरतर
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गच्छका बहुत महिमाउद्योत कीया तथा सं० १६५२ में श्रीगुरु महाराजने पंचनदी साधी उहांपांचपर मानभद्रयक्ष खोडियाक्षेत्र वालवगेरे देवोंको स्वाधीनकीये भूमंडलपर विचरते भव्य उपगार करते एकदा सं० १६६२में श्रीसलेमपातशाहने श्रीगुरु माहाराजको विशेष गुणवान सुणके वोलाके अपणे सेवाकरता हुवा गुरुकुं विशेष आग्रहकरके रक्खे वाद गुर्जरदेशमें विहारकीया तब एकतपगच्छीय यतिको अपनीस्त्रीके साथस्नेहकी एकांतमें वार्ताकरणावगेरें अनाचार देखके नाराजहोके कहा मेरे सब देशोमें जितने दर्शनि है उनुकुं स्त्रीयांदेदेवो स्त्रीको नलेवे उसकुं देशसे बाहिर करणा तब डरे भये षटमतके सन्याशी वगेरे केइक समुद्रकुं उल्लंघके द्वीपांतरे गये केइ भूमीघरमें छिपके रहै कितनेक जहां तहां रहै वहां आपत्तिपाइ तव श्रीजिन चंद्रमूरिजीमाहाराज पाटणसै विहारकर आगरा नगर आये बादसाह श्रीगुरुका दरसण करनेकों बहुत आदरसे बोलाए तब श्रीगुरुने बहोत चमत्कार बताके पहले जो दरसनियों के वास्ते आज्ञादीथी वहहुकम पीच्छा फिरवादिया सर्वत्र फुरमाणा भेजवाके यतिवगेरेको अपणे अपणे ठिकाणे पोहचाये सत्कार बादसाहने करा इस प्रकारसै श्रीजिनशासनकी बहुत प्रकारसै उन्नतिकरके विचरते भये, और श्रीगुरुके समयराज ( सकलचंद ) १ महिमराज २ धर्मनिधान ३ रत्ननिधान ४ ज्ञानविमल ५ ये पांच पांडव जैसे इनोकों आदिलेके पञ्चाणवें ९५ शिष्य भये.
ऐसे महाप्रभाविक युगप्रधानश्रीजिनचन्द्रमरिजी महाराज, सर्वायु ७५ पचत्तर वर्षको पालकरके, अणशण आराधन पूर्वक
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समाधि कालधर्म प्राप्त होकर, संवत् १६७० आसोजवदि २ दूजकेदिन बेनातट में (बीलाडामे) स्वर्ग प्राप्त भए, तिस वखतमें संवत् १६२१ भावहर्ख उपाध्यायसें भावहखय खरतर शाखा निकली, यह सातमा गच्छ भेद भया, फेर इणोंके समय लुंपक श्रीजीवराज - र्षिपूजका शिष्यकों को कारणसें लुंपकमतरों बाहिर किया, तब तपा गच्छीय श्री विजयदान स्वरिका वासक्षेपलेकर शिष्यभया, धर्मसागर इसनाम से प्रसिद्ध भया, वादमें परिश्रमादिकयोगसें संस्कृत प्राकृत पढके विद्वान भया, तब योग्यसमजके श्रीविजयदानसूरिजीनें वाचकपदस्थ किया, श्रीधर्मसागरगणि इसनामसें प्रसिद्ध होके, अलस्वतंत्र विहार धर्मदेशनादिक करणेंलगे, इसतरे प्रवृत्तिकरतां थकां निशंकनिर्भय होणेंसें जमालिआदिकके जैसा उत्सूत्रप्ररूपणाकरणे लगा उसका कारण ऐसा प्रथमभी लंपकमतमें जबथा तब उहांबि जिदकरता हुवा एकान्त हठवादकदाग्रहकी प्रकृतिसै लंपक सम्प्रदायसै बाहिरकीयाथा जाणाजावे है वाद तपाविरुदालंकृत श्री चित्रवगच्छक सम्प्रदाय मिली, तबतो बंदरथा और विच्छू खाया ऐसा भया, वाद क्रमसे श्रीगुरुकीकृपासे पदस्थादिकउच्चावस्थाकों प्राप्त होके, पूर्वकी स्वाभाविकप्रकृतिका क्रमक्रमसै असरभया उसलिये उत्सूत्रादिकका व्यसनभया, इसकारणसें श्रीविजयदानमूरिजी के, और परगच्छादिकके अप्रीतिके भाजन होगये, और प्रथम बहुतवार मिच्छामिदुक्कड आलोयणा प्रायश्चित्त देते रहे, ऐसे करता जब उत्सूत्रकंदकुदाल, कुमतिकंदकुद्दाल, नामें नवीन ग्रन्थवनाया, इसतरे बहुत प्रकार से धर्मसागरका मदोद्धृतपणा उससे
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फेलति हूइ उत्सूत्र प्ररूपणादिकविशेषपरिणति जाणके मरुभूमिमेंरहे हूवे युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसरिजी विहारक्रमसें विचरते हुवे गुर्जर देश अणहिल्लपुरपाटण नगरमें पधारे, तब पूर्वोक्त प्रकारसें, धर्मसागरगणिका दियाहूवा, कूडाकलंक, उत्सूत्रादिकदोष दे. खके, सभासमक्ष शास्त्रार्थ धर्मसागरगणिसें किया, और उसको शास्त्रार्थमें जीता, निर्णयार्थ अन्तिमसभामे धर्मसागरकों बुलाया, तब आया नहिं, जब धर्मसागर निर्णयार्थ अंतिम सभामें नहिं आया, तब सर्व गच्छवासी और मतवासीयोंनें, सहीकरीकि शास्त्रदेखतां श्रीजिनचन्द्रसरिजीका कहनासत्यहै, और उ० धर्मसागरगणिकाकहे ना झूठाहै, इसतरे निर्णयहूवा सहीपट्टक समाचारीशतकग्रन्थमें और जेशलमेरादिज्ञानभंडारोंमे हाल मोजूद है, वादमें इसतरेका निर्णयहूवा देखके, तपगच्छाधीश श्रीविजयदानसरिजीये पण अपणे गच्छकी सुस्थितप्ररूपणादिक मर्यादा रखणेकेवास्ते, उत्सूत्रकंदकुहाल कुमतिकंदकुद्दालादिकग्रन्थ जलशरण किये, और विजयदानसूरिजीनें उत्सूत्रवादी निन्हवजाणके, धर्मसागरकों अपणे गच्छबाहिरकिया, प्रथम बहुतवेर नर्म गर्म होके, खानगी आचार्यश्रीनें इनकों समजायाथा, परन्तु नहिं माना, और उद्धताईसें उत्सूत्रादि प्रवृत्ति करते रहे, जिस्का आखिरमें यह परिणाम आया, कि गच्छबाहिर होनापडा, और तीनपीढीतक गच्छबाहिररहै, अर्थात् विजयदान सूरिजी १ विजयहीरसरिजी २ विजयसेनसरि ३ तक गच्छ बाहिर रहै, फेरखरतरगच्छमे प्रवेश करणे केलिये, नाइवगेरा उपाय बहुतसे किये, परन्तु खरतरगच्छवालोंने अपनें गच्छमे लिया नहिं,
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जब किसी गच्छवासीयोंने उनका संग्रह नहिं किया, तब सर्व गच्छमतवासीयोंके ऊपर विशेषतः नाराज होकर, खंडननिमित्त प्रच्छन्नपणे, प्रवचनपरीक्षा, अपरनाम कुपक्षकोशिकादित्य, कल्पकिरणावली, सर्वज्ञसिद्धिशतकादिक ग्रन्थ बनाये, और लिखवाकर प्रच्छन्नपणेरखे, और धीरेधीरे जीर्ण ग्रन्थोंकी भान्तिसें ज्ञान भंडारोमें प्रवेश करादिया तब तपगच्छनायक श्री विजयदानसरि आदिकनें उत्सूत्र निषेधकरणेके लिये सातबोल, नवबोल १२ बोल, १३ बोलादिक करके, सुस्थित गच्छमर्यादा करी, अर्थात् धर्मसागरादिकके बनाये हुवे ग्रन्थोंसें उद्धृतार्थ ग्रन्थोंकरके हमारे गच्छकी मर्यादा न बिगडे, समाचारी प्ररूपणा वगेरा स्थिति बरावर साक्षर प्रमाणसें बनीरहे, जिनाज्ञावत् सर्वगच्छोंके साथ संपवनारहै, कभी किसीके साथ विरोध या विरोधका बीज न उत्पन्न होवे, सरलता पूर्वक सदाकाल धर्म आराधाजावे, इसतरहकी दीर्घदृष्टिसें ऊपरकहे बोलोंका फरमाण किया, और इसतरहकी गच्छ व्यवस्था करके निश्चितभये, यह मर्यादा श्रीविजयसेनसरिजीतक खास करके रही, वादमें श्रीविजयसेनसूरिजीके पट्टधर शिष्य श्रीविजयदेवसूरिजीने निन्हवधर्मसागरजीका पक्ष ग्रहण किया, गुरुआज्ञालोपक भये, मामा भाणेजके संबन्धसें, तिसकारणसें एकहि तपागच्छके आणन्दसूर, देवमूर, सागर, वह तीन टूकडे होगये, और अव्यवस्थित प्ररूपणादिक गच्छमर्यादा भई और तपोटमतकी विशेष उत्पत्ति भई, वड, चित्रवाल तपागच्छका शुद्ध प्ररूपणादिक गच्छ मर्यादा आगमानुसार गुरुपरंपरायातमार्ग नष्टप्राय भया, और तपोटमति
३५ दत्तसूरि.
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Anh
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बांकी कालप्रभावसें विशेषवृद्धिभइ, और इससमयभी तपागच्छकी तो विशेष प्रवृत्ति नहिं देखीजावेहै, किन्तु तपोटमतियांकी बा ऋषिमतियांकी विशेष प्रवृत्ति वा वृद्धि देखीजावेहै, यह कालहीका विशेषतासें प्रभाव समजाजावेहै, जिनाज्ञानुकूल शुद्ध प्ररूपक गच्छवासी मुनितो अल्पहिहै, अविच्छिन्नसम्प्रदाय तथा तपगछके शुद्ध प्ररूपक पुरुषोंके लिखित इतिहासादिकसें स्पष्ट मालूम होवेहै, कि तत्कालाश्रित तपागच्छवासीयोंके और देवसूर धर्मसागरा. श्रिततपोटमतियोंके वा ऋषिमतियोंके परस्पर प्ररूपणा, सिद्धान्तीय समाचारीमे वा आचरित समाचार्यादिकमें बहुतहि भेदहै इसके साक्षिक श्रीयशोविजयोपाध्यायसंग्रहीत धर्मसागराश्रित आगमविरुद्धअष्टोत्तरशतवोलसंग्रह १ खरतरतपाआगमाचरणाश्रित षष्टिबोलसंग्रह २ श्रीरनचन्द्रगणिसंग्रहीत कुमतिविषाहिजांगुलि ३ श्रीसोहम्मकुलरत्नपट्टावलिरास श्रीदीपविजयकविरचितहै ४ श्रीदर्शनविजयकविरचित श्रीविजयतिलकसरिरास ५ सागर विजयका विखवाद ६ उपाधिमतसज्झाय वगेरा अनेक ग्रन्थ इस. विषयके साखीहैं, और इसका तखार्थ ये है किश्रीविजयतिलक सूरिजीतत्पट्टे श्रीविजयआनन्दसूरिजीसें तपागच्छकी संप्रदाय चालुरहि, वर्तमानमे यह खास तपागच्छकी संप्रदायतो अल्पहि देखिजावेहै,
और धर्मसागरका प्ररूपणादिक पक्षग्रहणकरणेंसें तथा गुर्वाज्ञा लोपणेसें, गच्छकी मर्यादा भंगकरणेंसें, श्रीधर्मसागराश्रित श्रीविज. यदेवसूरिसें, नवीन तपोटमत उत्पन्न भया, इसमतकी प्ररूपणादिक पहिले देखायाहिहै, इसमतके अनेक नामहै, तपोटमत, ऋषिमत उ
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चिष्ट चांडालिकमत, तपोष्ट्रिकमत, उपाधिमत, गुर्वाज्ञालोपक, गच्छमर्यादालोपक, उत्सूत्रमत, दैवसूरमत, सागरमत इत्यादि अनेक नाम है यहमत संवत् १६०० आसरे में उत्पन्नहूवा है, इसमतके उत्पादक प्रथम धर्मसागरजी भये वाद देवसूरिजी सहायकभये है, इसमतकेसाथ सिद्धान्तीय पूर्वसूरिप्रणीत पंचांगी अनुसारिविधिप्ररूपक खरतरोंका सदाही विषमवाद देखाजावे है, और पंचमआरारूप दुःखमाकाल के प्रभावसें इंढकतेरेपंथी तपोटवगेरोंकी इसमे जादा तर प्रवृत्ति देखिजावे है, शुद्धप्ररूपक सुविहित गच्छवासी मुनितो अल्प देखे जावेंहैं, आगमाचरणा शुद्ध प्ररूपक सुविहित गच्छवासी सब हिमुनियोंके साथ खरतर गच्छ खरतर मुनियोंका किसीतरेका विसंवाद विरोध भाव वगेरा जराभी नहिं है, तो श्रीउद्योतन सूरिजी के शिष्य सर्वदेवसूरिजी या पद्मचन्द्रसूरिजी के संतानीय तपागच्छीय मुनियोंके साथ क्या असमंजस होनेका संभव है, अपितु कदापि नहिं, परन्तुसत्भावकोंतो सत् पणें कहणाहि होवे है, असत्प्ररूपणातो करि जावेनहिं, यदि कदाचित् छद्मस्थपणेंसें होभीजावेतो आगमाचरणादिक पुष्ट प्रमाणोंसे भिन्नभिन्न गच्छके सुविहित गीतार्थोके द्वारा अक्षर प्रमाण अर्थादिक तपासकर मिटाणा चाहेतो मिटभीजावे, परन्तु ममखभावसे या पक्षपातसें उसीवातको पकडके रक्खे खींचाकरेतो सदाही विसंवादादिक रहेणेंका संभव है, उणों के कर्मगतिके प्रभाव से, ऐसा होणा ज्ञानिमहाराज देखा है तो होवे उसका क्या कियाजावे और देखोकि श्रीविजयतिलक मूरिजी के रासके आदिमें निरीक्षण तथा राससार दिया है, जिसमें उत्सूत्रप्ररूपणा
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५३६ अपवादादिकका बहुतसा वचाव कियाहै, गुर्वाज्ञालोप, गच्छमर्यादा भंगादिककाभी बचाव कियाहै, परन्तु ऐसे कुत्सितपुरुषोंका अपवाद उत्सूत्रप्ररूपणादिकका ढकणा. या पक्षपात करणा क्याबुद्धिमान् आत्महितैषीका कामहै, अपितु कदापि नहिं, और विजयप्रशस्तिसारादिकमें लेखकने जो खंडण दियाहै प्रायें मिथ्याहीहै, कारणके पूर्वोक्त कुत्सित पुरुषोंने तथातदाश्रितपुरुषोंने श्रीमान् विजयदानसरिजी, श्रीमान् विजयहीरसूरिजी श्रीमान् विजयसेन सरिजीके नामसे या गुणवर्णन या चरित्रवर्णन या उत्सूत्रआगमाचरणाविरुद्ध पक्षपोषणके मिससें, यामहिमावर्णन, या पक्षपात स्थित्यादिक पोषणेके लिये, उण महान् पुरुषोंका नाम शाखसंशोधन रचनास्त्री. कारजीर्णोधृतादिमिसके द्वारा अपना पक्ष याने व्यसन पोषण कियाहै, अर्थात्, प्रश्नोत्तर वृत्ति प्रकरण चरित्र काव्य रास बोलादिक नवीनवनायेगये, और अपनी तथा नवीन बनायेहुवे ग्रन्थोंकी प्रमाणिकता प्रतिष्ठा प्राप्तकरनेकेलिये, उनमहान् पुरुषोंके परोक्षकालमें या विद्यमानकालमें यथासंभव संवत्सरादि युक्तकर श्रीविजयदानसूरिजी श्रीविजयहीरसरिजी श्रीविजयसेनसूरिजी आज्ञांकितनाम शाखसंशोधन रचना स्वीकारजीर्णग्रंथोद्धृतादि विशेपण देके, प्रच्छन्न याने गुप्तपणे संग्रहकरके, रख्खे और मायावृत्तिसें धीरे धीरे सर्वत्र जीर्णज्ञानभंडारादिकमें उत्सूत्रमतपोषक ग्रन्थादिकका प्रचार करदिया वादमें कालपायके पुष्ट होगये, और पूर्वोक्त प्रकारके ग्रन्थोंका आधार लेके, फिर विशेषपणे उत्सूत्र प्ररूपणादिक करनेलगे, तबसें निषेधविधानरूपविचार खरतरतपोटमतियांका स
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५३७ दाहीके लिये होगया, सो अभीतक चालुहै, बडाहि खेदजनकहै कि, नजाणे इस महान् कदाग्रहका कब अंत आवेगा यहतो ज्ञानी महाराजहिजाणेहै और तपागच्छकी आगमाचरणायुक्त शुद्ध समाचारीकों अस्तव्यस्तकरनेवाले खासतपोटमतिहिहै, और इस समय उनहि तपोटमतियोंने खास तपागच्छके नामका ठेका लेरक्खाहै, और असली खरतरतपांका कोई विरोध नहींहै, संवत् तेरेसैमें श्राद्ध विधिकर्त्ताने आंचलके देखादेखीसें सामायिक विधिमें प्रथम इरियावही लिखदीवीहै वादमें संवत् १६१३में धर्मसागरआश्रित अनेक विषमवाद प्ररूपणा भइहै, जैसेकि अभयदेवसूरि नवांगवृत्ति कर्ता खरतरगच्छमे नहिं हुवे १ पर्वतिथी घटेवधे नहिं २ अधिक मासकी गिणती नहिं ३ अधिक मासमे पयूषण पर्व हूवे नहिं ४ चतुर्दशीका क्षय होणेसें १३ का क्षय करणा ५ पर्वतिथीकी वृद्धि होणेसे पहली ६० घडी तिथीको छोडके । दूसरीमें ब्रत पचक्खाण उपवासादिकरणा ६ पर्व तिथीकी वृद्धि होणेसें आसपासकी तिथी, अपर्वतिथी, दोकरणा ७ पर्वतिथी का क्षय होणेसे पहिलेकी अपर्व तिथीका क्षय करणा ८ तरुणस्त्री मूलबिंबकी पूजाकरे अच्छेरा कल्याणक नहिं ९ गर्भापहार गर्भसंक्रमण कल्याणक नहिं १० सामायिकमें प्रथम इरियावही करणा ११ इरियावही करके प्रतिदिन सामायिककापारणा १२ अपर्वतिथीमें पौषधचतुर्विध समायिक सहित होवे १३ पौषधमें पांचवार देववंदन करणा १४ तिविहार पञ्चक्खाणमें कच्चा जलपानकरण १५ सांगरीकादि विदल नहि १६ आचाम्लमें दोद्रव्यकी संख्या नहि, लवणादि अनेक द्रव्योंका
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ग्रहण होवे ऐसी प्ररूपणा १७ दुविहार एकाशणो होवे नहिं १८ दुविहारका पचक्खाण करके कच्चे जल सिवाय अनेकखादिमद्रव्योंका रात्रिमें विनाकारण ग्रहणकरणा १९ केवलीके शरीरसें जीवहिंसा होवे नहिं २० आंबिलका पञ्चक्खाणकरके छासादिकका ग्रहण करणा २१ निवीका पच्चक्खाण करके उत्कृष्ट निवीआयतों का ग्रहणकरणा २२ दुर्लभराजसभासमक्ष १०८० आसरेमें अणहिपाटणमें श्रीजिनेश्वरसूरिजीको खरतर बिरुद नहिं मिला २३, १२०४ मे खरतर हूवे २४ इत्यादि आगमाचरणाश्रित अनेक प्रकारका विसंवाद उत्सूत्रप्ररूपणा भया है कहांतक लिखें, इस वि पयका उत्थान उत्सूत्र बोलादिककी सूचना संख्या प्रथमहि करी है असली तपगच्छकी संप्रदायतो प्राये नष्टप्रायहि देखी जावे है, यानें अल्पसंभवें और खरतरविरुदधारक संप्रदायका तथा तपाविरुदधारक संप्रदायका आपसमें शास्त्रोंकी एकसम्मति परम हा हिं देखाजावे है इसीतरे शेष रहे मूल संप्रदायतो इसीतरे संभवे है जे सैकि एक सामायिक विषय दृष्टान्त है श्राद्ध दिनकृत्य वृत्ति १८००० में श्रीमदेवेन्द्रसूरिजी योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति १२००० में श्रीमद्हेमचन्द्रसूरिजी नवपद प्रकरण वृत्ति में श्रीमद्देवगुप्तमूरिजी नवांगवृत्तिकर्त्ता श्री अभयदेवसूरिजी पंचाशक वृत्तिमे, धर्मविधिप्रकरण वृत्ति में श्रीमद्यशोदेवसूरिजी वगेरा भिन्न भिन्न गच्छोद्भवाचार्य महाराजसामायिक उच्चयांके बादमे इरियावही करणाक है है, इसीतरे मूलसिद्धान्त भी है, इसलिये सबही की एकसम्मत्ति देखीजावे है एक गुरु एकसमाचारी एकशट्टस सिद्धान्तमन्तव्यता एक संवत्सरी
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होनेपर हि एक्यता कहिजावे एकशट्टस प्ररूपणादि होनेपर क्या विसंवादका कारण है, सो मालूम होना चाहिये और मैत्री मध्यस्थ भावना होकर कहता हूं सत्संप्रदायपूर्वक सत्यासत्यका विचार करण चाहिये गच्छादिककी अशुद्ध प्रवृत्ति प्ररूपणा कदाग्रहका त्यागकर, गच्छोंकी मर्यादा शुद्धाचरणा करणी चाहिये, यहहि गच्छोंकी भक्ति बहुमानकहेलाता है, इसीतरे करणा यह खास गच्छवासीयोंका कर्त्तव्य है, इसीतरे करणेवाले श्रीउद्योतन सूरिजी के संतानीय चतुरशीतिगच्छोंके गुण विशिष्ट शुद्ध प्ररूपक स हि गच्छवासी आचार्यमहाराजों को मेरा नमस्कार है, परन्तु अशुद्ध प्ररूपणा करनेवाले और अशुद्ध प्ररूपणाकों सर्वत्र फेलाणेवाले तपोटमतियां तो सदाही दूर रहेणा श्रेयकारीहै, इत्याशासहे और इसविषयमें बोलादिकभी इसतरे है, गृहस्थ प्रतिष्ठितचैत्य चांदवा योग्यनहिं १ कदाच साधु प्रतिष्ठित चैत्य होय तो वांदीशकाय २ पचाश वर्ष पहिलां पंन्यासपद आपको नहिं ३ पट्टधराचार्यनी आज्ञामां चतुर्विधसंघ रहे ४ पट्टधराचार्यनी आज्ञाविना कोई भी विशेष धर्मकृत्य थइ शके नहिं ५ गीतार्थाचार्य विना चउकरणी अथवा अष्टकरणी भवालोयणादिक देह शके नहिं ६ प्रतिष्ठा अंजनशलाकादिक आचार्यकरे ७ सिद्धान्ताध्ययन योगोपधानं प्रायश्चित्तादिक आचार्यादि गीतार्थ करावे ८ मिध्यादृष्टि गृहस्थ श्रमणोपाशक संन्यास्यादिकथी भणवो नहिं ९ खस्ववर्गमां स्त्रीपुरुषे धर्म देशना - करवी १० अविनीत विगई प्रतिबद्ध उत्कटकषायी अगीतार्थादिकनें गच्छनो भार या संघाडानो भार आपको नहिं ११ आगमाचरणा
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विरुद्ध प्ररूपकनें गच्छबाहिर करवो १२ सूर्यास्तपच्छी जिनमंदिर मां जावो नहिं १३ चतुर्विध श्रीसंघनी सभामा मुख्यपट्टधराचार्य धर्मदेशना करे १४ सूर्यास्तपच्छी साधुने उपासरेमा स्वीयें प्रवेशकखो नहिं १५ सूर्यास्त पच्छी साधवीने उपासरेमां पुरुषे प्रवेशकरवो नहिं १६ वधारे गृहस्थनो परिचय करवो नहिं १७ मिथ्यादृष्टिगृहस्थ संन्यासी पार्श्वस्थादिकथी परिचय करवो नहिं १८ पचाश दिवसे संवत्सरी प्रतिक्रमण करवो १९ श्रीवीरनो गर्भापहार कल्याणकरूप मानवो २० अछेरो कल्याणकरूप न होवे एम कहेवो नहिं २१ आवश्यकमते सामायिकउचखां पछी इरियावही कही छे ते मानवी सही छे २२ पर पक्षीने माडं लागे एवो वचन बोलबो नहिं २३ पर पक्षी पर पक्षना स्तवनस्तुत्यादिक कहे तो ना कहेवी नहिं २४ आगमाचरणाविरुद्ध प्ररूपणा करवी नहिं २५ चउरासीगछमां आगमाचरणा अनुसार प्ररूपणानो निषेध करवो नहिं २६ तपाखरतरना प्ररूपणामां सिद्धान्ताधारे भेद कहेवो नहिं मानवो नहिं २७ आगम, सर्व आचरणा, देश आचरणा, अविछिन्न संप्रदाय, अविछिन्न संप्रदायसें आगतसकलसिद्धान्त पंचांगी सहित सर्व गछवासी प्रमाण करहै तेहने विसंवादी कहेवा नहिं २८ गछनी गुरुनी सिद्धान्त सम्मत मर्यादा भंग करवी नहिं २९ उत्सूत्रकंदकुद्दालादिक जलसरण कियाहै अप्रमाणभूत अर्थ जे कोइ पोताना रचेला ग्रन्थमां लावस्से तेहने गछनायक मोटो ठबको आपसे ते ग्रन्थ अप्रमाणभूत मानवामां आवसे, गीतार्थ गछ नायकने शोधवाथी पछी गछमां ते ग्रन्थनी भणवा भणावानी प्रवृत्ति करवी ३० संविग्न भव
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५४१ मीरु ब्रह्मचर्यनिष्ठ शुद्ध प्ररूपकनें गीतार्थादिकनें गछादिकनो भार आपवो ३१ इत्यादिक अनेक शास्त्राधारे गछमर्यादा संरक्षक बोल परंपरा देखीजावेहै, इसलिये शास्त्राधारे खरतरतपा गछका विरोध नहिं संभवेंहै, यह तोतपोटमत का विसंवाद संभवेहै, इसलिये खरतरतपा परमस्नेही आपसमे संभवेहै, यहांपर कोइ कहेता हैं, कि जैसा आगम आचरणा संबंधि तपोट लुपक ढुंढक-बाईस टोला तेरापंथी वगेराका विसंवाद है, इसीतरे उपकेशगछ वडगछ चित्रवालगछ नागेन्द्रगछतपागछ वगेरेका खरतर गछके साथ प्ररूपणादिविसंवाद विरोधादिक कुछनकुछ किसीतरेका जरूरहि होना चाहिये अन्यथा अलग अलग गछौंका होना कैसा संभवे, तो फेरतपोटमत वा ऋषिमतियांकाहि विरोधविसंवादादिकहै, उद्योतन सरि संतानीय मूलगछ तत्सप्रदायका नहिं, यह कैसा संभवे, सत्यम्, हे
देवानुप्रिय यह अनुपासित गुरुका वचनहै, अथवा यथार्थ अज्ञात सिद्धान्तार्थ रहस्यहैं उनोंका यह कहेनाहै, औरोंका नहिं, क्युंकि इस विषयकी सूचनाऊपरहि करीहै भिन्न भिन्न गछौंका नाम और पाठ परंपरा होणेसें केवल नाममात्रहि भेदहै, परमार्थसे तो किसी तरेका भेद नहिंहै, और शास्त्रधार वगेरासेंभि कोइ भेद मालुम नहिं होवेहै, इसलिये हमारे श्रीउद्योतनसूरिजीके संप्रदायियोंका आपसमें प्रायें किसीतरेका विरोध विसंवाद ईर्षी मत्सर उत्सूत्र प्ररूपणाहीनाधिक प्ररूपणादि भेद नहिंहै, तो हमारे आपसमें भेदादिकका कारणहि कौनसाहै, सो बतलावें, जिससे हमारे आपसमें विरोध विसंवादादिक होवे, और हमनेश्रीसुधर्मोद्योतनसरि
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संबंधि सर्वगछविषयिएक्यतापरकसामायिकका दृष्टान्त प्रथम दियाहिहै, इसीवरे शेष विषयमेभी समजलेना चाहिये इसीतरे होनेसें सर्व दुरगुणोंका अभाव और धर्महानिका नाश, वृद्धिकासमयहै सर्वगछोंकी एक्यता होणेसें श्रीवीरशासनोमति अनेक प्राणि योको प्रतिबोध समय होवे, सबहि एक्यतासें परमलेहका समय देखाजावेहै, और सबहि सत्यहै सबहिजिनाज्ञाके आराधकहैं, इसीतरे वर्तना कल्याणकारीहै, और किसी एकादि व्यक्तिगत ईर्षादि विकारसें आगम आचरणाविरुद्ध उत्सूत्रादि दोषोंका गच्छनायकादि खीकार नहिं करे वह गछ दूषित न होवे, उसगच्छकों ईषोदिकसे दूषित कहे वही दूषितहै, और आगम आचरणादि पुष्टप्रमाणाक्षर देखाणे पर वा उपलब्ध होनेपर स्वीकार न करे वहही सदोषहै, उसका पक्षकरे वहमि सदोषहै, परन्तु गच्छादि दूषित नहि, पुष्टप्रमाणाक्षरादिकसें सत्यप्ररूपणादिक कों दूषित कहे वह सदोषहै 'जेसे सपोटादि' ऐसे और स्पष्टपुष्टससंवन्धपूर्वक प्रमाणाक्षर सहित सत्यवक्ता दूषित नहिं, और इसीतरे चोरासी वगेरेका कहेणा प्रमाण होवेहै' और मूलसूत्र नियुक्ति टीका भाष्य चूर्णी, अविछिन्न गुरुपरम्परा, और श्रुतवेष प्ररूपणादि आये हुवे प्रमाणभूत होवेहै, इसमर्यादासे विपरीत प्रमाण न होवे, और इहांपर विवेचन बहुतसा संभवेहै, तथापि फिर देखाजावेगा, और इहांपर तपोटादिवावदुक कहेहै, कि अहो सत्यपक्षका समुदाय कितनाहै देखो, और हमारा समुदाय कितना बडाहै फेर इसपक्षकों छोडदेवें तो यह सबहि तुमारा होजावें सो फेर व्यर्थ इतना सत्यका क्यों आग्रह करेहैं उचर इसीतरहै
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तावकीनं वचनं कुर्मः उत नु तीर्थकृतां, यदनायतनं सूत्रे, भणितं तद्रूमहे नियतं ॥ १ ॥ उत्सूत्र भाषणात् पुनरनन्तसंसारकारणात् बहुशः किं लोके न त्वगरोगिणो भवेत्, प्रचुरमक्षिकासंग ः ॥ २ ॥ अर्थ - हम तुमारा वचन अंगीकारकरें या श्रीतीर्थंकरोंका वचन अंगीकार करें, अनायतनादि शब्दों का जो अर्थ सूत्र में कहा है वोहि अर्थ निश्चय पूर्वक कहेंगे, उत्सूत्र भाषण करणेंसें अनेकवार अनन्तसंसार परिभ्रमण करणाहोवेहै, लोकमे क्या चर्मरोगी पुरुषोंके बहुतमाarrier संग कल्याणकारी होवे है, नहिं रोगवृद्धिकाहि कारण होवे है २ मै संस्था बहुपरिकरोजनो जगति पूज्यतां याति, येन बहुतनययुक्ताऽपि शुकरी गूथमश्नाति ॥ १ ॥
अर्थ - इसतरे नहिं मानना चाहिये के बहुत परिवारवाला पुरुषही जगतमें पूजने योग्यहोवे और पूजा जावेहै, कारणके घणे वचांवाली भुंडणी शूवरणी विष्टाहि भक्षण करेहै ॥ १ ॥ तपोटादिमतीयोकों यह वचन कानमें कडवा और दुःखदाई लगे, तोवि विचारके भले इसीतरे होवे परन्तु गुरुजनने तो सत्यहि कहेणा चाहिये, तथाहि
रूसउ वा परोमा वा विसंवा परियन्त्तर,
भासिअव्वाहि जा भासा, सपक्खगुणका रिया ॥ १ ॥ अर्थ- दूसरों कोइ ( परपक्षी वा खपक्षी ) नाराज होवे, अथवा न होवे अथवा विषरूप होवे तो पण अबाधित भाषा बोलणी चाहिये औरने वा भाषा स्वपक्ष याने अपर्णेपक्षकीतो गुणकारीहि
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होवे, इसतरे सिद्धान्तानुसारी वचन होणेसें कितनेक विवेकी प्राणियोंकोतो अवश्य रुचिकरहि होवेगा, इत्यादि संक्षिप्त प्रकारेण तपोट मतं निरूपतम् प्रसंगतः ॥ ६१ ॥
तत्पट्टे जिनसिंहमूरिसुगुरुजांतस्ततो धीमतां । मान्यः श्रीजिनराजसूरिमुनिपस्तत्पदृसूर्योपमः ॥ श्रीमच्छीजिनरत्नसूरिंगणभृत् श्रीजैनचन्द्रस्ततः । पूज्य श्रीजिनसौख्यसूरिरभवद्विद्यावतामुत्तमः ॥८॥
श्रीजिनचन्द्रसारिपट्टे ६२ मा श्रीजिनसिंहमूरिजी भय, तिके गणधर चोपडा गोत्रीय, साह चांपसी पिता, चतुरंगी देवी माता, संवत् १६१५ मिगशरसुदि १५ पूर्णमासीकेदिन खेतासर गाममें जन्म, मानसिंह मूलनाम, संवत् १६२३ मिगशरवदि ५ पंचमीके दिन वीकानेरमें दीक्षा, १६४० माघ सुदि ५ पंचमीके दिन जेशलमेरमें वाचक पद संवत् १६४९फागुण सुदि २ दूजके दिन लाहोर नगरमें, वीकानेर रहनेवाला वछाबत मंत्रीश्वर कर्मचन्द्रने सवाक्रोड' द्रव्य खरचके वादसाहके विशेष आग्रहसै श्रीजिनचंदमूरिजीनेपदप्रदानकीयाउस आचार्य पदका उछव किया, संवत् १६७०, वेनातट (वीलाडा भावी) में विशेष विधिसै सूरिपद, संवत् १६७४, पोषवदि १३ तेरसके दिन मेडता नगरमें स्वर्ग गए ।।६२॥ तत्पद्दे६३ मा श्रीजिनराज सूरिजी भए, तिके बोथरा गोत्रीय साह धर्मसीपिता, धारलदेवी माता, संवत् १६४७, वैशाख सुदि ७ सातमके दिन जन्म, संवत् १६५६, मिगशिर सुदि ३ तीजके दिन वीकानरमें दीक्षा, राजसमुद्र दीक्षाकानाम, संवत्
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१६६० आसाउलि पुरमें श्रीजिनचन्द्रसूरिये वाचकपद दीया, संवत् १६७४, फागुण सुदि ७ सातमके दिन मेडता नगरमें चोपडा गोत्रीय, साह आसकरणने महोछवकिया, सूरिपदकों प्राप्त भए, श्रीजिनराजसरि नाम हुवा, फेर श्रीजिनराजसूरिजी, लोद्रवपुर पत्तनके विषे श्रीजेशलमेरनिवासी, भणशालीथारूसाहनें जीर्णोद्धार कराया श्रीचिंतामणि पार्श्वनाथ वगेरे प्रतिमा ओर ६ चैत्यकी १६७५ मिगसर सुदि १२ को ओर १६९३ मे प्रतिष्ठा करी, तथा संवत् १६७५,गुजराती वैशाख सुदि १३ त्रयोदशी शुक्रवारके दिन श्रीराजनगरनिवासी पोरवालज्ञातीय संघपति सदा सोमजीका पुत्र रूपजीका परंपरागतनें बनवाया, श्रीशचंजय ऊपर चतुर्मुखदेवालयमें श्रीऋषभादि चोमुखजिनकों आदिलेके (५०१) पांचसे एक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करी, तथा फेर भानुवड ग्रामके विष साह चांपसीका बनाया हुवा देवघरमंडन अमृतश्रावी अमीझरा श्रीपार्श्वनाथ प्रमुख ८० अशीति विबोकी प्रतिष्ठा करी, तथा मेडता नगरमें गणधर चोपडा गोत्रीय संघपति श्रीआशकरण साहने करवाया श्रीशान्तिनाथस्वामीके चैत्यकी प्रतिष्ठा करी, एकदा राजनरमे व्याख्यान वांचते थे तक जेसलमेरमे थाहरुसाभणसालीकालकरके देवहोके वांदणेकों आया अदृश्यरूपसे, आचार्यने धर्मलाभ दिया इसतरेसें राजनगरादि अनेक नगरोंके विषे श्रीजिनचैत्योंकी प्रतिष्ठा करी, इसमाफक श्रीजिनशासनोन्नतिकारक, अंबिकाप्रदत्तवरधारक, युगवरपदभृत् तथा घंघाणी नगरमें चिरकालकी जमीनमें रही प्रतिमाकों प्रसस्तीका अक्षर देखके प्रगटकारक, इत्यादि अनेक प्रकारसें सद्धर्मोद्योतकर्ता, महाप्रतापी, समस्ततके, व्याकरण, छंद,
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अलंकार, कोश, काव्यादिक, विविध शास्त्रपारीण, नैषधकाव्यपर, जैनराजीटीका प्रमुख, अनेक ग्रन्थरचना करणेवाले, श्रीबृहत् खरवरगच्छनायक श्रीजिनराजसरि संवत् १६९९ आषाढ सुदि ९ नवमीके दिन पाटणमें खर्ग गए । इनोंकेवारे संवत् १६८६, जिनसागर सरिसे लघु आचार्य खरतरशाखा निकली, यह ८ मा गच्छमेद भया, ६३ तत्पट्टे ६४ मा श्रीजिनरत्नसरिजी भए, तिके सेरूणा गाम निवासी लूणीया गोत्रीय, साह तिलोकसी पिता, तारादेवी माता, रूपचन्द्र मूलनाम, निर्मलवैराग्यप्राप्तहोकर मातासहित दीक्षा ग्रहणकरी, फेर संवत् १६९९ आषाढ सुदि ७ सातमके दिन श्रीजिनराजसूरिजी महाराजनें स्वहस्तसें सूरिमंत्र दिया, मूरिपद प्राप्त होकर, फेर उत्कृष्ट शुद्ध चारित्र पात्र चूडामणि युगवर भये, और श्रीजिनरत्नभूरिजी संवत् १७११ श्रावण बदि ७ सातमके दिन आगरा नगरमें स्वर्ग गए ॥ ६४ ॥ संवत् १७०० में उपाध्याय श्रीरंगविजय गणिसें, रंगविजयखरतर शाखा निकली, यह ९ मा गच्छ भेदभया, फेर तिस वखतमें इसीहि शाखामांयसें, श्रीसारउपाध्यायसें, श्रीसारीय खरतरशाखा निकली, यह १० मा गच्छभेद भया ॥ तत्पट्टे ६५ मा श्रीजिनचन्द्रसूरिजी भए, तिके गणधरचोपडा गोत्रीय, साह सहसकरण पिता, सुपियारदेवी माता, हेमराज मूलनाम, हर्षलाभ दीक्षानाम, संवत् १७११ भाद्रवा सुदि १० दशमीके दिन, श्रीराजनगरमें, नाहट्टा गोत्रीय साह जयमल्ल तेजसी, माता-कस्तूरबाईने आचार्य पदका महोछव किया, पीछे श्रीगुरूमहाराज योधपुरवासी साह मनोहरदासने निकाला संघके साथ
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५४७ श्रीशत्रुजयकी यात्राकरी, तथा मंडोवर नगरमें संघपति साह मनोहरदासनें बनवाया, चैत्य श्रृंगार श्रीऋषभादि २४ चौवीस बिबोंकी प्रतिष्ठा करी, इसमाफक अनेक देशोंमें विहारकरनेवाले, सर्वसिद्धान्तपारगामी युगवरसम श्रीजिनचन्द्रसरिजी अणशण आराधना समाधिपूर्वक शुभध्यानसें संवत् १७६३, श्रीसूरत बंदर में स्वर्ग गए ॥ * ॥ इनोंकेवारे लुंपक मतके अन्दरसे ढूंढक मत प्रचलित भया, इस मूर्तिउत्थापक द्रव्य भाव श्रीजिनपूजाका द्वेषी उत्सूत्र प्ररूपक मतकी किंचित्संक्षिप्त उत्पत्तिदर्शाताहूं, सूरत नगरमें एक वोहरा वीरजी नामें दशाश्रीमाली भया, उसके फूला नामें बालविधवा बेटीथी, उसनें लवजी नामें एक पुत्रकों गोदलिया, सोलुपकोंके उपासरे पढनेकों जाताथा, लुपकोंकी संगतसें वैराग्य पायके वजरंगजीलोंकेपासे दिक्षालीवी, दो वर्षपीछे गुरुकों कहने लगाकि शास्त्रमुजब आचार क्युं नहिं पालतेहो, गुरुबोले इस कालमें उत्कृष्ट दया नहिं होवेहै, तव लवजी बोला तुम भ्रष्टाचारीहो में तुमरा मत छोडके जुदी दिक्षा लेसुं, एसा कहके दोजति भूणाजी, सुखजीकों, लेकरतीनजणां आपही भेषधारण किया, मुंहआडी मुहपत्तीबांधी, इनका नवीन मत देखकेकोई घरमें उतरण नदिया, तब बहुतदिन ग्रामनगरके वाहिर स्मशानकी शालामे या गाम नगरमें टूटे फूटे ढुंढमकानमें रहे इससे ढूंढिया नाम हुवा, उनोंने मत चलाने बावत बहुत कष्टकिया, तब वुगलेके माफक ऊपरकी छंछा फूफां देखके घणां लुपकपक्षी गुजराती वणियामानने लगे, क्युकिं अग्यानी लोक ऊपरकी फुफा देखते हैं, जिसमें गुजराती
गोद
कहने लगानिरजीलोंकेपासे माताथा, लुपको
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प्रायें हठग्राही ऐसे होते हैं, कि जिसका पक्ष करतें हैं, जो वात पकडलेते हैं, सो मुसकिसलसें छोडतें हैं, एसा जैनतत्वादर्शमें, पीताम्बरी मुनी आत्मारामजी लिखते हैं, ये ढुंढकमतकी उत्पत्ति कही, इसीतरे संवत् १८१५, बादमें दुंढकोंमेसें रुगनाथजीका शिष्य भीषमजी प्रमुख टुंढियोने मिलके जोधपुरमें तेरेपंथी मत निकाला, सो इनको उत्थापके आपका फिरका जमाने लगे, इसमेसें फेर १४ पंथी निकला, इत्यादि मनोमती मंदिरका प्रतिमाका तथा शास्त्रक उत्थापक मत हवा, ॥६५॥ * ॥ तत्प? ६६ मा श्रीजिनसुक्ख सूरिजी भए, तिके फोगपत्तननिवासी साहलेचा वोहरा गोत्रीय, साहरूपसीपिता, सुरूपामाता संवत् १७३९, मिगसरसुदि १५ पूर्णमासीके दिन जन्म, संवत् १७५१ माघ सुदि ५ पंचमीके दिन पुण्यपालसर गाममें दीक्षा, सुखकीर्त्तिदीक्षा नाम, संवत् १७६३ आषाढ सुदि ११ एकादशीके दिन सूरतवंदरमें रहवासी चोपडा गोत्रीय, पारख सामीदासनें इग्यारे ११००० हजार रुपिया खरच करके आचार्यपदमहोच्छव करा, फेर एकदा गोगावन्दरके विषे, नवखंडापार्श्वनाथ स्वामीकी यात्राको करके, श्रीगुरुमहाराजसंघके साथ स्तंभनकतीर्थ जानेके वास्ते जिहाज ऊपर चढे, तब मार्ग में समुद्रके मध्यभागमें जिहाजके नीचेका पाटिया टूट गया, तिहां जलसें जिहाज भरा हवा देखके, गुरुमहाराजनें इष्टदेवका सरण किया, तब दादाजी श्रीजिनकुशलमूरिजी महाराजके सहाय करके, अकस्मात नवीन जिहाज प्रगट होनेसें समुद्रकापार पहुंचे, बाद जिहाज अदृश्य होगया, फेर स्तंभनापार्श्वनाथ
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खामीकी तथा श्रीशत्रुजयप्रमुखकी यात्रा करी, सकल शास्त्रपारंगामी, अनेक वादीयोंकों जीतनेवाले, श्रीगुरूमहाराज तीनदिन अणशण करके आराधना समाधिपूर्वक संवत् १७८०, जेष्ठयदि १० दशमीके दिन युगप्रधानपदभृत् श्रीमजिनसुक्खमूरिजी श्रीरिणीनगरमें स्वर्गकों प्राप्तभए, उसी रात्रिमें देवतावोंने अदृश्य बाजित्रबजाया, उसनगरके राजादिक सर्वलोक वाजिनध्वनि करके आश्वयेवंतभये ॥५५॥ ॥ॐ॥
तत्पद्रोदयशैलभास्करनिभस्तेजस्विनामग्रणीः श्रीमच्छ्रीजिनभक्तिसूरिसुगुरुर्जज्ञे गणाधीश्वरः। तत्पादांबुजसेविनो युगवराः सद्भूतयोगीश्वरा,
जाताः श्रीजिनलाभसूरिसुगुरवः प्रज्ञा गुणानुत्तराः॥९॥ : तत्पट्टे ६७ मा श्रीजिनभक्तिसूरिजी भए, तिके इन्द्रपालसरग्राम निवासी सेठगोत्रीय साह हरिचन्द्रपिता, हरिसुखदेवी माता, संवत् १७७०, जेष्ठसुदि २ द्वितीया दिनजन्म, भीमराज मूलनाम, १७७९ माघसुदि ७ सप्तमीकू दीक्षा, भक्तिक्षेम दीक्षानाम, संवत् १७४०, जेष्ठवदि ३ तृतीयादिन, रिणीपुरमें श्रीसंघकृत्महोत्सवसें, आचार्य पदको प्राप्त भए, फेर नाना देशमें विहार करनेवाले, सादडीनामा नगर विषे हस्तिचालनादि प्रकारकरके, प्रतिपक्षीयोंकों जीतके, विजयलक्ष्मीकों धारनेवाले, सर्वसिद्धान्तपारगामी, श्रीसिद्धाचलादि सकलमहातीर्थयात्रा करी, श्रीगूढानगरके विषे श्रीअजितजिनचैत्यप्रतिष्ठाकरी, महातेजस्वी, सकलविद्वजनसिरोमणि, श्रीराजसोम उपाध्याय, श्रीरामविजय उपाध्याय, श्रीक्षमाप्रमोद
३६ दत्तसूरि.
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उपाध्यायादि संसेवितचरणकमल, ऐसे श्रीजिनभक्तिसूरिजी क च्छदेशमंडन श्रीमांडवी बंदरके विषे संवत् १८०४ जेष्ठ सुदि ४ चोथके दिन स्वर्गगए, उस रात्रिमें अग्निसंस्कार भूमिके विषे देवतानें दीपमाला करी, ऐसे प्रभावीक गुरुमहाराज भए ॥ ६७ ॥ तत्पट्टे ६८ मा श्रीजिनलाभसूरिजी भए, तिके वीकानेरके रहनेवाले, बोथरागोत्रीय, साहपचायणदास पिता, पद्मादेवी माता, संवत् १७७४, श्रावण सुदि ५ पंचमी के दिन, वायेउ गामके विषे जन्म, लालचन्द्र मूलनाम, संवत् १७८९, जेष्ठ सुदि ६ छट्टके दिन जेसलमेर में दीक्षा, लक्ष्मीलाभ दीक्षानाम, संवत् १८०४, जेष्ठ सुदि ५ पंचमी के दिन श्रीकच्छमांडवीबंदर में छाजेडगोत्रीय, साह भोजराजकृत नंदीमहोच्छव करके पदस्थापनभये, फेर जेसलमेर वीकानेर आदि अनेक नगरोंके विषे विहार करते हुवे संवत् १८१८ में जेठ वदि ५ ने ७५ साधुसहित श्रीगोडीपार्श्वनाथ यात्रा करी, तथा धूलेवा यात्रा करी, वाद सं० १८२१ फाल्गन शुक्ल प्रतिपदाको ८५ मुनि साथ श्री अर्बुदाचल यात्रा करी वाद घाणेराव सादडी नामके दो नगर में चोपडा वखतसाहादिकृत महोत्सवसे आके उप द्रवकरणको मिले परपक्षियोकों स्वज्ञानादि बलसै पराजय करके विजय वादिवजवायै तदनंतर उसी देशमें श्रीराणकपुरादि पंचarathi यात्रा करके वेनातट मेदनीतटरूप नगर जयपुर उदयपुरादि नगरोंमें विहार करते सं० १८२५ वैशाख पौर्णमासीकों ८८ साधुसाथ श्रीघुलेवागढमंडन श्रीऋषभदेवजीकेसरियानाथ' जीकी यात्रा करी वाद पान्थिका साचोर राधनपुरादिकमें विहार
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५५१ करते श्रीसंखेश्वरपार्श्वनाथस्वामीकी यात्राकरके सेठ गुलाबचंद सेठ भाइदाशादि श्रीसंघके आग्रहसै श्रीगुरुमहाराजसूरत बंदरगए, तिहां संवत् १८२७ वैशाख सुदि १२ द्वादशीके दिन, आदि गोत्रीयसाहनेमीदासपुत्र, भाईदासने बनवाया, नवीन चैत्यमंडन श्रीशीतलनाथ, सहसफणा पार्श्वनाथ, श्रीगोडी पार्श्वनाथ, आदि १८१, बिबोकी प्रतिष्ठाकरी, तथा संवत् १८२८, वैशाख सुदि १२ द्वादशीके दिन, उसीहि देवघरमें श्रीमहावीरादि ८२ बयांसी बिंबोकी प्रतिष्ठाकरी, प्रतिष्ठा तथा संघभक्तिमें ३६००० छत्तीसहजार रुपिया खरच करा, सीतलवाडी नामका उपासरा भाइदास नेमीदासने बनवाया उसमे श्रीआचार्य चौमासा रहै वह धर्मका मकान बृहत्खरतरगच्छीय उपास्रय प्रसिद्ध भया ॥ ६८ ॥ वाद श्रीमुनिसुव्रत स्वामीकी यात्रा वास्ते भरुछ आये उहां रात्रिमें रेवा (नर्मदा)के तटपर रहे योगिनीने जलवृष्टिका उपद्रव कीया तव सर्व सथवाडा व्याकुल भया स्वइष्टदेवस्मरणपूर्वक निराकुल कीया ततः राजनगर भावनगरादिकमें विहार करते गोगावंदर पधारे श्रीनवखंडापार्श्वनाथ स्वामीकी यात्रा करके पादलिप्तपुर (पालीताणा) पधारे सं० १८३० माघवदि५ ने ७५ मुनियोंके साथ श्रीशत्रुजयतीर्थराजकी यात्रा करी उहाँसै जुनेगड आये सं० १८३० फा० शु० ९ मी की १०५ साधुवोंके साथ श्रीगिरनार मंडन नेमिराथस्वामीकी यात्रा करके वेरावल पाटण मांगरोल बलेच पोरबंदर नवानगरादिकमे विचरते कछदेश मांडवीबंदरमे श्रीगुरुचरण कमलोंकू वांदके क्रमसै भद्रेसरयात्रा करी तथा रापुरमे श्रीचिंतामणि पार्श्वेशकी यात्रा
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कर सं० १८३३ चैत्र वदि २ द्वितीयाको श्रीगोडीपार्श्वनाथकी यात्रा करी ऐसे परमसोम्यता सोभाग्यादि सद्गुणश्रेणिधारक महोपकारी पं० क्षमाकल्याणादिमुनिगणसंसेवितचरणकमलजि[का तप संजमसै भावित आत्माजिणोंका भव्योका उपकारक ऐसे श्रीजिनलाभसूरीश्वरजी महाराज सं० १८३४ आश्विन वदि दशमीको गुडा नगरमे स्वर्ग गये ॥ ६८॥
संवद्वेदहुताशनाष्टवसुधासंख्ये शुभे चाश्विने, द्वादश्युत्तरवासरेऽसितगते श्रीमद्भुढाख्ये पुरे,। यैराप्तं पदमुत्तमं गुणगुरु श्रीसद्गुरोर्वाक्यतस्ते स्युः श्रीजिनचंद्रसूरिगुरवः संघस्य कामप्रदाः॥१०॥ तत्पट्टे ६९मा श्रीजिनचन्द्रसूरिजी भए, तिके वीकानेरवासी बछावत मुहता, रूपचन्द्रपिता, केशरदेवी माता, संवत् १८०९ कल्या. णसर गाममें जन्म, अनूपचन्द्र मूलनाम, संवत् १८२२ मंडोवरने दीक्षा, उदयसार दीक्षा नाम, संवत् १८३४ आसोजवदि १३ त्रयोदशीके दिन, शुभ लग्नमें, गूढा नगरके विपे, कूकडचोपडा गोत्रीय, दोसीलरका साहने महोछव करा, सूरिपदमें प्राप्त हुवे, ऐसे ६९ मा श्रीजिनचंद्रसूरिजी परमसौभाग्यधारि सकलजगत् मनोहारि सर्व सिद्धांतका अध्ययनकीया त्रिभुवनविक्षातकीर्ति ऐसे फेर अयोध्या, चन्द्रावती, पाडलिपुर, चंपा, मुर्शिदाबाद, समेतशिखर, पावापुरी, राजगृह, मिथिला, क्षत्रियकुंडग्राम, काकंदी, हस्तिनागपुर, आदितीर्थोकी यात्रा करी, कमसें लखणेऊ आए, उहां प्रतिमा उत्थापककामत बढनेंसें, राजा बछराजने आग्रहके
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साथ वीनतिकरके रका, चोमासा करवाया, तब उहां बहुतसा प्रतिमा उत्थापक मत खंडन किया, तब बहुत लोक सद्धर्मानुयायी हुवे, बहुतश्वेताम्बर जैन धर्मकी वृद्धि और प्रशंसा भइ, फेर तिस नगरके नजीक उद्यानमें राजा वछराजकों उपदेश देकर, श्रीजिन कुशलसूरिजी महाराजका थुंभ बनवाया सं० १८५२ में श्रीसिद्धाचलजीकी यात्रा करी उहां परपक्षियोंने उपद्रवकीया सो सांतिकरके यात्रा करते विचरते गुर्जरसै मालव देशमें विचरके दक्षणमे विचरे उहांसे विहार करके सर्वतीर्थोंकी यात्रा करते, दक्षिणदेशमें श्रीअंतरिक्षपार्श्वनाथ की यात्राकर, सुरत पधारे उहां श्रीजिनचन्द्रसूरिजी सुरत बंदर में, संवत् १८५६ जेठ सुदि ३ तीजकीं स्वर्ग गए ॥ ६९ ॥ श्रीसूरते श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः प्रदत्तपट्टाजित सर्वसूरिभिः ।
गुणान्वितारंजितभूरिसूरयो
जाताश्च ते श्रीजिनहर्षसूरयः ॥ ११ ॥
तत्पट्टे ७० मा श्रीजिनहर्ष सूरिभए, तिके बालेवा गामवासी, मीठडिया वोहरा गोत्रीय, साहतिलोकचंद्र पिता, तारादेवी माता, हीरचंद्र मूलनाम, संवत् १८४१ आउ गाममे दीक्षा, हितरंग दीक्षानाम, संवत् १८५६ जेठ सुदि १५ पूर्णमासीके दिन, श्रीसूरत बंदर में श्रीसंघका किया उच्छव सहित सूरिपदमें प्राप्त भए, तब तिसी नगरमें, श्रीसंघें श्रीअजितनाथ स्वामीका चैत्य बिंबोकी प्रतिष्ठा कराई, तथा संवत् १८६० अक्षयतृतीयाके दिन देवी कोटके श्रीसंघ बनवाया मंदर में १५० बिंबोंकी प्रतिष्ठा करी,
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तथा संवत् १८६६ चैत्र सुदि १५ पूर्णमासीके दिन, गडिया संघपति राजाराम, लूणीया साह श्रीतिलोकचंदनें. निकाला संघ सवालक्ष श्रावक, ११०० इग्यारेसें साधुवोंके साथ, श्रीसिद्धाचलजी गिरनारजीकी यात्रा करी, फेर गुरूमहाराज अनेक देशों में विचरते संवत् १८७० शम्मेतशिखरतीर्थराजकी यात्रा करी, फेर संवत् १८ : ५ श्रीसंघ के साथ शिखरजी की यात्रा करी, फेर दक्षिणदेश में अंतरीक पार्श्वनाथ, मगशी पार्श्वनाथ, धूलेवागढ, इत्यादि तीर्थोंकी यात्रा करते, संवत् १८८७ आषाढ सुदि १० दशमीके दिन, श्रीवीकानेर नगर में, श्रीसीमंधर स्वामी के मंदिर में ( २५ ) पचवीस चिंचकी प्रतिष्ठा करी, संवत् १८८९ माघ सुदि १० दशमी के दिन श्रीवीकानेर नगर में, सेठिया गोत्र साह अमीचंदनें वनवाया सहरके वाहिर श्रीगोडीपारसनाथजीके पासमें सम्मेतशिखरगिरी भाव विराजित सांवलिया पार्श्वनाथजी के मंदिरकी प्रतिष्ठा करी, तिस अवसर में, जेशलमेर निवासी, वाँफणा साहश्री बादरमलजी जोरावरमलजी, परिवार सहित जानलेके वीकानेर नगरमें चंदनमलजीका विवाहार्थ आये उहाँ महामहोत्सवसें गुरूमहाराजकों वंदना नमस्कार किया, सातक्षेत्र में बहुत द्रव्य खरच किया तब श्रीगुरुवर्य जिनहर्षरिजीनेने संघनिकालके यात्राका उपदेश दिया, फेर गुरूमहाराज श्रीसंघके साथ श्रीसिद्धाचलजीकी यात्राकरनें के विचा रसेवकानेर विहारकर मंडोवर नगर में चोमासा रहे, उहां संवत् १८९२ कार्त्तिक वदि ९ के रोज, चारप्रहरका अगशण करके देवलोक गए ॥ ७० ॥
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संवन्नेत्रनिधान सिद्धिवसुधासंख्ये सुलग्नोदये, सप्तम्यां सहमासके गुरुयुतौ पक्षे सिते येन वै,। श्रीमद्विक्रमपत्तने गुणनिधी प्राप्तं पदं चोत्तमं, जीव्यात श्रीजिनपूर्वगोयतिपतिः सौभाग्यसूरिगुरुः ।। . इस समय मंडोरिया खरतर शाखाभिन्न भई, इसमें श्रीजिनमहेन्द्रसूरिजी, महाराज हुवे, वादमें तत्पट्टे श्रीजिनमुक्तिसूरिः तत्पट्टे श्रीजिनचन्द्रमूरिः हुए यह ११ मा गछभेद भया इसतरे मूल कोटिकगछ खरतर विरुद कल्पवृक्षकी इग्यारे शाखा भई श्रीजिनहर्ष मूरिजीके पाट ऊपर ७१ मा श्रीजिनसौभाग्यसू रिजी भए, तिके मारवाडमें, वाईसेरडा गामवासी, कोठारी गोत्रीय, साह श्रीकर्मचन्द्र पिता, करुणादेवी माता, विक्रम संवत् १८६२ जन्म, सुरतराम मूलनाम, संवत् १८७७ सींधिया दोलतरावके लष्करमें दिक्षा ग्रहण करी, सौभाग्यविशाल दीक्षा नाम, संवत् १८९२ मि. गशर सुदि ७ सातमकों गुरुवार शुभ लग्नमें श्रीबीकानेर नगरमें आचार्य पदकों प्राप्त भए, खजानची साह लालचंद सालमसिंह बहुत द्रव्य खरचके नंदीमहोच्छव किया, जब श्रीजिनसौभाग्यसूरिजी ऐसा नाम स्थापन करा, इन महाराजने आचार्यपदकों प्राप्त होतेही जावजीव एकलठाणा करना, प्यादल विहार करना सरुकिया यानि पालखी परभिनहीवेठतेथे और परिग्रहकात्याग अंतरंगसैथा और बहोतसा असमंजस उदभट व्यवहार पंचप्रमादशिथलतापणा छोडके, आत्मकल्याण निमित्त कठिन आचार धारण किया, और अखंड ब्रह्मचर्य दयाको धारण करते हवे, आरंभादिकके त्याग करके शुद्ध प्ररूपक
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गुरु विचरते भये, इनका महात्मगुण देखके, वीकानेरका राजाधिराज श्रीरत्नसिंहजी तथा सिरदारसिंहजी महाराज प्रमुख बहुतसे भक्तिरागकों धारण करनेवाले भये सेवा करते थे तथा द्रव्य भाव सामग्री से चरणकमलोंकों पूजन करनेवाले भए, और क्रमसें सर्व गाम नगरोंमे विहार करते हूवे, मुर्शिदाबाद अजीमगंजनगर में आए, उहां श्रीसंघ के आग्रहसें चोमासे किये, श्रीनेमिनाथ स्वामीके मंदिरमें वित्रप्रतिष्ठा करी, फेर उहांसे दूगडबाबू प्रतापसिंहजी प्रमुख संघकी प्रेरणायें विहार करते कलकत्ते गए, जब बाबू प्रतापसिंह - जीनें महाराजकों दर्शन करानें निमित्त कातीमहोच्छवसे अधिक, श्री धर्मनाथस्वामीका समोसरण निकालके दादावाडी लेगए, उहाँ तीन दिन उच्छव रहा फेर सहरमें आए, धर्मका बहुतसा उद्योत हूवा, उहां कितनेक दिन रहकर, फेर मुर्शिदाबाद बालूचर आए, उहां दुगड बाबू इन्द्रचंदजीकों सिद्धगिरिजाके निनाणों यात्रा करनेका उपदेश दिया, तब इन्द्रचन्दजी पिण तत्काल संघनिकालके छहरी पालते थके गुरूमहाराज के साथ हुए, उहांसें बिहार करते चंपापुरी गए, उहां बीकानेरके संघने बनवाया भया, श्रीजिनमंदिरकी बडे उच्छव के साथ प्रतिष्ठा करी, फेर उहांसें बिहारकर के, शिखरजी पावापुरी राजग्रही बनारस प्रमुख सर्व तीर्थोंकी यात्रा करते हुए, जयपुर, कृष्णगढ, अजमेर, पाली गोढवालकी पंचतीर्थी मोटी तथा छोटी, आबूजी, केसरियानाथजी संखेश्वरापार्श्वनाथ, तारंगा, गिरनारजी प्रमुख यात्रा करते हूवे, संवत् १९०२ आषाढ मासमें श्रीसिद्धगिरीगए, उहां चौमासा रहके बाद चोमासा
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करके निनाणों यात्रा करी, फेर गोगा, भावनगर, अहमदाबाद, वगेरेमे यात्रा करके, वीकानेरका राजा श्रीरत्नसिंहजी महाराज प्रमुखने अमरचंद सुराणा २०० सवार वगेरे भेजके वीनति कराइ तव सर्व संघके आग्रहसें, संवत् १९०२ मिति फागण वद ७ के दिन वीकानेर आये, संवत् १९०४ मिति माघ सुद १० के दिन श्रीसंघका बनाया भया, श्रीसुपार्श्वनाथ स्वामीके मंदिरकी प्रतिष्ठा करी, संवत् १९०५ वैशाख सुद ५ के दिन श्रीचिंतामणजीके मंदिरमें श्रीजिनबिंबोकी प्रतिष्ठा करी, संवत् १९०६ मिगशर सुद १३ के दिन मंडोवर नगरमें खरतरगच्छ अधिष्ठायक गोरानाम क्षेत्रपालकों प्रसन्न किया, फेर संवत् १९१४ आषाढ सुद १ दिन श्रीवीकानेर नगरमें बिंच प्रतिष्ठा करी, संवत् १९१६ मिति वैशाख वद ६ के दिन नालगाम दादावाडीमें संघका बनाया नवीन मंदिरकी तथा जिनबिंबोकी प्रतिष्ठा करी सुरतगढ प्रतिष्ठा करणेको जाते मार्गमें गेरसर गांवमे अग्निका उपद्रव सांत किया इत्यादि बहुतकालतक श्रीवीरशासनकी प्रभावनाकारक परमोपगारी धर्मोद्योत कारक आचार्य गुणधारक ४५ आगमवीकानेरमे व्याख्यानमें वांच तेथेचंदपन्नत्ती सूरपन्नत्ती वांचताथा तब द्रव्यका वरसात भया ऐसे श्रीजिनसौभाग्यसरिः संवत् १९१७ माघ सुदि ३ रात्रिकों ४ प्रहरतक अणशण आराधना पूर्वक समाधिसें कालधर्म प्राप्त होकर, श्रीवीकानेर नगरमें देवलोककों प्राप्त भए ॥७१॥
अब्दे शैलधरांकरूपनिधने मासे सिते फाल्गुने, ऐशान्यां गुरुवासरे गुणनिधौ देशे च श्रीविक्रमे, .
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षट्त्रिंशत् गुणराजिते वरपदे स्थाप्यो हि योगीश्वरैः, जीव्याच्छ्रीजिनहंस सूरि सुगुरुर्मान्यः सदा वाग्मिनाम् ।। श्रीजिन सौभाग्यसूरिजीके पाटऊपर ७२ मा श्रीजिन हंससूरिजी भए, तिके कुजटी गामबासीय गोताणी गोत्र, साह मनसुख पिता, जयादेवी माता, संवत् १९०० जन्मः हिंमतराम जन्म नाम, संवत् १९१७ फागुण वदि ५ पंचमी के दिन बीकानेर नगर में दीक्षा लीनी, चोपडा कोठारी, गेवरचंदजीने दीक्षा महोच्छव करा, हितवल्लभदीक्षा नाम भया, संवत् १९१७ फागुण वदि ११ एकादशीके दिन आचार्य पदकों प्राप्त भये, तत्र वच्छावत अमरचन्दजी तथा झालरापाटणनिवासी, छाजेड भूरामलजी, तथा गोलच्छा ग्यानचंदादिकनें बहुत द्रव्य खरच करके, नंदी महोच्छव किया, तथा वीकानेरका महाराज श्रीसिरदारसिंहजीनें गुरुमहाराजका दरशण किया, गजनेरादिकमें गुरूमहाराजकी तथा सर्व साधुमंडलीकी बहुत भक्ति करी, फेर बीकानेरका सत्तावीस गाम नग
में, तथा देशणोंक, आगरा मिरजापुर, आदि नगर देशों में विहार करते मुर्शिदाबाद गए, उहां संवत् १९२४ मिति फागुण वद ४ चोथके दिन दूगड प्रतापचंदजीका पुत्र रायबहादुर लक्ष्मीपतिसिंह, धनपतिसिंहका कराया भया, श्री ऋषभ देव १ श्रीवासुपूज्य २ श्री नेमिनाथ ३ श्रीमहावीर ४ ये चार महाराजका चरणपादुका श्री सम्मेतशिखरजी पर्वतके ऊपर जूदा जूदा चार ठिकाणें प्रतिष्ठा करके, स्थापन किये, संवत् १९२६ मिति फागुण सुद ७ सातमके दिन, अजीम गंजका समस्त संघका बनाया हूवा रामबाग में श्री -
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अष्टापदजीका मंदिर, तथा जिनबिंबोकी प्रतिष्ठा करी, श्रीसंघनें बहुत खरच करके अठाई महोच्छव किया फेर क्रमसें दिल्ली, रिणी, राजगढ, चूरू इत्यादि क्षेत्रों में विहारकरते संवत् १९२९ मिति जेठ वद ९ नवमी दीन बीकानेर नगर में गए, संवत् १९३१ मिति जेठ सुद १० दशमी के दिन, माणकचोकमें उपाध्याय श्रीलक्ष्मी प्रधानजी गणीके उपदेश से बनवाया हुवा नवीन श्रीकुंथुनाथ स्वा मीका मंदिरकी प्रतिष्ठा करी, संवत् १९३२ श्रीचिंतामणजीके मंदिर में संघका किया उच्छवके साथ श्रीजिनबिंबोंकी प्रतिष्ठा करी, इत्यादि अनेक धर्मकृत्य करनेवाले सोम्यगुणधारक श्रीजिनहंससूरिजी संवत् १९३५ मितिकार्तिक वद १२ बारसकैदिन चारप्रहरका अणशण आराधना करके समाधिमें कालधर्म प्राप्त होकर स्वर्ग गए । ७२ ।।
संवत्सायकतिस्रअंकवसुधासंख्ये सुलग्नोदये धार्मिण्यां तपमासके शनियुते दुर्गे च श्रीविक्रमे ॥ श्रीमच्छ्री जिन हंससू रिसुगुरोः प्राप्तं पदं वाक्यत स्तेऽमी श्रीजिनचन्द्रसूरिगुरवो नन्दन्तु भट्टारकाः ॥ १४॥ तत्पट्टे ७३ मा श्री जिनचन्द्रसूरिजी भए, तिके गोलछा गोत्रीय, संवत् १९३५ मिति माघसुद ११ के दिन आचार्यपद प्राप्तहोकर विचरते भए, बहुतसा धर्मका उद्योत किया और सौम्यगुणधारी बहोत खेत्रो मे विहार करनेवाला भया, संवत् १९५६ काति वदि ५ को अणशण आराधना करके समाधि सें कालधर्म प्राप्त होकर स्वर्ग गए ॥ ७३ ॥ इनोंकेस मे श्रीकीर्त्तिसारजी सं० १९३६ आ
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षाढ शुदि १० को दीक्षित होते भये, और श्रीगुरुमहाराजके पारतंत्र्यमे रहकर विनय विवेक परिश्रमादिक योग्यतासें क्रमसें सर्व सिद्धान्त पारंगामी भये, तब गुर्वादिकके परोक्ष होनेपर सर्वकी आज्ञा लेकर त्याग वृत्ति धारण करते भये, क्रिया उद्धार किया और निर्मल चारित्र पालते भये, क्रमसें विचरते हुवे ममाई गए, चोमासा किया, तब चतुर्विधसंघके आग्रहसे श्रीजिनचारित्रमरिजी आचार्य सूरिमंत्रदेके मूरिपदमें स्थापे, तब श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिः, ऐसा नाम भया, अपरनाम श्रीजिनकीर्तिमूरिः ऐसाभि है, और इनोंका चरित्रलेश श्रीजिनदत्तसरिजीके चरित्रकी प्रस्तावनामें दीया है सो वहांसें जाणलेना, इसतरे सानाय शुद्ध प्ररूपक निर्मल संयमी शासनप्रभावक जं । यु । प्र। भ । श्रीमजिनकृपाचन्द्रसरिजी सोम्यगुणधारी वर्तमान कालमें विद्यमानपणे सुहस्तिपणे संयमतपसें आत्मा भावन करते हुवे विचरतें हैं सो चतुर्विध श्रीसंघ इन आचार्य महाराजकी आज्ञामें प्रवर्ति करता हूवा सदा जयवन्ता वत्तों, सदा कल्याण पावो, श्रीजिनचंदररिजीके पट्टपर ७४ मा श्रीजिनकीर्तिसरि भये एतेषां वर्णनवृत्तो यथा रसशरनिधिचन्द्रे विक्रमाब्दे सुमासे। असितशशिसुघने कार्तिके पंचमीशे ॥ सुगुणमुनिपवर्यः शर्मकृन्नित्यचर्यः। जयतु जिनसनाथः कीर्तिसूरीश्वरः सः॥१५॥
वै जोधपुरनिवासी भणसालिमुहता पन्नालाल पिता नाजुदे माता सं. १९३१ जन्म केसरिचंद मूलनाम दीक्षा सं. १९५६
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काति वदि ५ बीकानेर श्रीसंघकृत महोत्सवसें नंदी विधिपूर्वक आचार्यपद प्राप्त भये वाद मारवाड पूरव दक्षिणवगेरे देशो में विचरे श्री सिखरजी वगेरे यात्रा करी प्रतिष्ठावगेरे कितने शुभकार्य किये वाद सं. १९६७ कातिवदि अमावस्या दीवालिके दिन ३६ वर्षका आयु पालके समाधि परोक्ष भये सद्गति प्राप्त भये ७४ श्रीजिनकीर्त्ति सूरिजी के पट्टपर ७५ मा श्री जिनचारित्रसूरिजी विद्यमान है
वर्षे वर्ष गुहास्यनन्दवसुधासंख्ये शुभे मासके । माघे कृष्णसुघस्रपंचमिदिने प्राप्तं पदं चोत्तमं ॥ श्रीखरतरगणनायकः सुविहितानुष्ठानचर्यावरः । श्रीमजिनचारित्र सूरिः सुगुरुर्धीमान् सदा नन्दतु ॥ १६ ॥ वै मारवाड देशमें माडपुराग्राम निवासी बाजेडगोत्रीय साह पाबुदान पिता सोनादे माता सं. १९४२ वै० शु. ८ जन्म मूल नाम चूनिलाल दीक्षा बीकानेर में सं. १९६२ वैशाख शु. ३ दीक्षा नाम चारित्रसुंदर शास्त्रअभ्याश जैनसिद्धांत व्याकरणतर्क काव्यकोश मंत्रशास्त्र वगेरेका करके प्रगुण भये सं. १९६७ माघ कृष्ण ५ बीकानेर संघकृत नंदीमहोत्सव आचार्यपद प्राप्त भये देशविदेशमे विहारकरते चतुर्मास किये सिखरजी वगेरे तीर्थयात्रा करी मालवधरामे विचरे वदनावर गंगधार कोटा वगेरेमें श्रीगुरुमूर्त्तिचरणवगेरेकी प्रतिष्ठा करी कोंकण में मुंबईपत्तनमें विचरे आचार्यपद प्रदानक्रीया श्रीसिद्धाचलजी यात्रा वगेरे धर्मक्रिया करते विचरते है सांत गांभिर्यादिगुण विशेषभूषित मकसूदाबाद कलकता वगेरेमे व्याख्यानवाचस्पति प्रमुख बिरुद प्राप्तकीया ऐसे सूरवर विचरते
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चिरंजीवी रहो गुणयुक्तव्यक्ति दुर्लभ होवे इस ऊपरान्त ११ शाखाकी पट्टावली, उपकेस गच्छ पट्टावली, वडगच्छ तपागच्छादि पट्टावली, पं. श्रीसत्यविजयजी वंशावली, उ. श्रीयशोविजयजी पं. श्रीमणिविजयजीकास्वरूप, विमलसागरादि तपाशाखा पट्टावली, माणिभद्र क्षेत्रपालादि उत्पत्ति स्वरूप, श्रीआनन्दघनजी श्रीदेवचन्द्रजी प्रेमचन्द्रजी चिदानन्दजी वगेरेका स्वरूप, श्रीजिनप्रभसूरिजी, श्रीजिनकीर्तिरत्नसरिजी, श्रीज्ञानसारजी, श्रीक्षमाकल्याणजी वगेरेका स्वरूप, श्रीराजसागरजी ऋद्धिसागरादि स्वरूप, श्रीमोहनलालजी, मयाचन्दजी, शिवजीरामजी चिदानंदजी, श्रीकीर्तिसारजी वगेरेका स्वरूप, श्रीकर्मचन्द्रडोसी, श्रीकर्मचन्द्रमंत्री विशेषचरित्रस्वरूप, देशनादिस्वरूप अनागतकाल भाविभाव खरूप, पर्यन्त विषय इसग्रन्थमें देखाने योग्य है, ऐतिहासिकादिक प्रसंगसें, परन्तु तथाविधसामग्रीके अभावसें, और इस ग्रन्थके प्रे. रकवर्गकी आतुरताके सबबसें, केवल एकहि प्रतिका आधारमिला, विशेष आधार नहिं मिला, और विहारका समयथा, इसलिये अनियत समयहोनेसें, विशेष प्रयत्न नहि हूवा, विशेष विस्तार ऊपरोक्त विषयका विवेचन नहिं करसके, अब सामग्री मिलनेपर यथा शक्ति परिश्रमादिक करेंगे, एसी भावना है, और इस ग्रन्थ के लिखनेमे कालक्षेप जादा ह्वासो प्रेरकवर्ग क्षमा करेंगें, और परिपूर्ण विषय इस ग्रन्थमें एक साथ नहिं लिखा गया, भिन्न भिन्न विषयपर अलगहिं परिशिष्टाधिकारमें लिखेंगे, ऐसा दर्शाया है, इसकाभि प्रेरकवर्ग क्षमा करें, अल्पसमयमें परिपूर्ण विषयसहित पूर्णग्रन्थ
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Achan
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नहिं लिखसके, और यह ग्रन्थ खंड खंड करके पूर्णताको प्रसन्नताको प्राप्त भया, सो प्रेरकवर्ग क्षमा करेंगे,
नमः श्रीवर्धमानाय, श्रीमते च सुधर्मणे । सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यै सर्वविदस्तथा ॥१॥ अज्ञानतिमिरांधानां, ज्ञानांजनशलाकया। नेत्रमुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ २॥ षट्त्रिंशत् गुणरत्ननीरनिलयः श्रीशंखवालान्वयः। प्रस्फुल्लामलनीरसंभवगणाव्याकोशहंसोपमाः॥ क्षोणीनायकनम्रकमदलनादीपाख्यसाध्वंगजाः । शर्म श्रेणिकरा जयन्तु जगति श्रीकीतिरत्नाह्वयाः १७ अब्धिलब्धिकदंबकस्य तिलको निःशेषसूर्यावलेरापीडः प्रतिबोधनैपुणवताभग्रेसरो वाग्मिनां ॥ दृष्टान्तो गुरुभक्तिशालिमनसां मौलिस्तप:श्रीजुषां। सर्वाश्चर्यमयो महिष्ठसमयः श्रीगौतमः स्तान्मुदे ॥१८॥ दासानुदासा इव सर्वदेवा ।।
यदीयपादाब्जतले लुठन्ति ॥ मरुस्थलीकल्पतरुः स जीयात् ।
युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः॥१॥ चिंतामणिः कल्पतरुर्वराकः ।
कुर्वन्ति भव्याः किमुकामगव्या । प्रसीदतः श्रीजिनदत्तसूरेः। सर्वे पदाहस्ति पदे प्रविष्टाः ॥२॥
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नो योगी नच योगिनी नच नराधीशश्च,नो शाकिनी नो वेत्तालपिशाचराक्षसगणा नो रोगशोको भयं । नो मारी नच विग्रहप्रभृतयः प्रीत्या प्रणत्युच्चकैः। यस्ते श्रीजिनदत्तसूरिगुरवो नामाक्षरं ध्यायति ॥३॥
सिद्धान्तसिंधुर्जगदेकबन्धुः। __ युगप्रधानप्रभुतां दधानाः॥ कल्याणकोटीः प्रगटीकरोतु ।
सूरीश्वरः श्रीजिनभद्रसूरिः॥४॥ मंगलं भगवान् वीर , मंगलं गौतमप्रभुः। मंगलं थूलिभद्राद्या, जैनो धर्मोऽस्तु मंगलं ॥५॥ उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥ ६ ॥ सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥७॥
एवं समग्रतया संक्षिप्तप्रकारेण श्रीवर्धमानजिनपति मुख्यशिष्ययुगप्रधानपदभृत् श्रीइन्द्रभूति श्रीसुधर्मादि युगप्रधानसूरीणां शेषनरीणां च मुख्यपट्टधरतयाऽद्यावधिपर्यन्त यथामतिः प्रभुभक्त्या वंशो व्यावर्णितो मया शिवायते सन्तु, प्रथमोदये २० द्वितीयोदये २३ तृतीयोदये १५ एवं समभवन् समग्रतया युगप्रधान सूरयः अष्टपंचाशदिति, जिनचन्द्र जिनपत्यादि अष्टसप्तमे, जिनचन्द्र जिनसिंहादि मुनि अष्टमे, एवं भवंति अष्टपंचाशदिति, एवं श्रीसु. धर्म वंशोऽविछिन्नरीत्यादर्शितः, अथान्तिम मंगलाचरणम्, तीन
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तत्वकों नमनकर, से, सद्गुरु पाय ॥ देवी भगवती सानिधे, वचन अमृतरसथाय ॥ १ ॥ चौरासीलक्षजोनिमें, जे रह्या जीव अनन्त, ॥ मोहमिथ्यात्वमें पड्या, पायो दुःख नही अन्त ॥ २॥ परमदेव परमातमा, चिदानन्द गुणचंग ॥ भव्यजीवके हितभणी, भेद कह्या सहु अंग ॥३॥ गणधर गौतमआदिसहु, रचियां अंग अनूप ॥ त्रिकरणहूं प्रणमुं सदा, ज्ञानआतम गुण भूप ॥४॥ आचारज उवझायमुनि, भगवन वचन उपेत ॥ भाष्यटीका नियुक्तिकर, प्रगट किया संकेत ॥५॥ भगवतीसूत्रमाह कह्या, आगमना पंचअंग ॥ सरधेजेभविप्राणिया, पामें नित उछरंग ॥६॥ जयवंता. वरतो सदा, सहु जगपंडवज्ञान ॥ पिणउपगारी भव्यकों, ए श्रुत ज्ञानप्रधान ।। ७ ।। दुष्टकर्म संयोगसें, चितबैठे नहीं ज्ञान, पिणजाणुं सुरतरुसमो, एहीजधर्मप्रधान ॥८॥ प्रबल भाग्यसंयोगसें, पारशदरसण पाय । पारश फरयां लोह सहु, गुण कंचन समथाय ॥९॥ पारस प्रभुके नामसें, सहु संकट मिट जाय, ईति उपद्रव भय टले, श्रीजयगुण प्रगटाय ॥ १० ॥ जिनदरसण मुझमनवस्यो, जे प्रगटे चित आय ॥ कर्म शत्रुदलजीपके, शिवरमणी वरुं जाय ॥ ११ ॥ शिवपुर जोवा कारणे, समकित दृढ हेत ॥ बालअज्ञ श्रीजयभणी, श्रीपितामह गुणदेत ॥ १२ ॥ जबलगमेरुअडिग्ग हैं, जबलग शशिअर सूर । तबलग यह पुस्तकसदा, रहजो गुण भरपूर ॥ १३॥ पोथीप्यारी प्राणथी, गलेहियाकोहार ।। बहुत यतनकर राखज्यो, पोथीसेतीप्यार ॥ ऐसी हमारी आशा सफलकरज्योसही ॥ १४ ॥ अथ लेखकः संक्षिप्तरीत्या स्वकुलं दर्शयति, विकहीमाहरोकुल
३७ दत्तसूरि०
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प्रकासु, अहो भवियण तुमसुणो। गुरुगच्छकोटिक चन्द्रकुल अर वज्रशाखा चितमणो। गुणगण जिनेसर मरिगुज्जर विरुदपायो गुण करी ॥ सोजयउ खरतरगच्छ आणंद प्रगटसहु मविहितधरी १॥ गुरु गच्छ खरतर तेजदीपे विक्रमपुर सोहेसही ॥ जिनकीर्तिरतसूरीसरक्रमे पदकीर्तिसूरी जिनमही ॥ गणधार जयानन्द पाठक सागरमन उल्लासए ॥ बहु परिश्रमे संग्रह कियो सद्गुरु चरित्र विस्तारए २ ॥ सोधो बिबुधवर मनह उल्लासए, मालव इन्द्रपुरे बलि सुरत खासए रहीचोमासो हुवो प्रकाशए, चरित्रगुरुदेवनो मनहविलासए ३ ॥ शोधयन्तु धीधनाः मयि कृपां विधाय । यत्किचिदसिन् ग्रन्थे जिनवचोविरुद्धं गदितं मया मतिमोहतः तत् मिथ्या दुष्कृतं मेऽस्तु, बुद्धिमान्धादसंप्रदायादसदूहनादिह यत् विरुद्धं लिखितं मया तत् मिथ्या दुष्कृतं मेऽस्तु, इति श्रीकीर्तिरत्नखरिशाखायां तत्परम्परायां क्रमात्समुत्पन्नेन, जं. यु. प्र. भ. श्रीमजिनकृपाचन्द्रसूरीश्वराणां प्रधानशिष्येण विद्वच्छिरोमणिना श्रीमदानन्दमुनिना संकलिते लोकभाषोपनिबद्धे, तत् लघुभ्रात्रा उ. जयमुनिगणिना संस्कारिते युगप्रधान श्रीमजिनदत्तमरिचरिते ऐतिहासिकसंवादे युगप्रधान श्रीमजिनचन्दसूरि संक्षिप्तचरित्रवर्णनं तत्संतानसिंहसूर्यादिजिनचारित्रमरिपर्यवसानचरित्रवर्णनो नाम अष्टमः सर्गः समाप्तः ॥ समाप्तं श्रीमजिनदत्ताभिधान ऐतिहासिकचरितम् ॥
उत्तरार्ध समाप्तम् ॥
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॥ अथ मंगलाष्टकं लिख्यते ॥
श्रीमन्नम्रसुरासुरेन्द्र मुकुटप्रद्योतिरत्नप्रभा, भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनांमधी व्यवस्थायिनः । ये सर्वे जिनसिद्धसूरिगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगिजनैश्च पंचगुरवः कुर्वन्तु मे मंगलम् ॥ १ ॥ सम्यग्दर्शनबोधवृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं मुक्तिश्रीनगरायनं जिनपतेः खर्गापवर्गप्रदः । धर्मः सूक्तिसुधाश्च चैत्यमखिलं जैनालयं श्यालयं प्रोक्तं तत्रिविधं चतुर्विधममी कुर्वन्तु मे मंगलं ॥ २ ॥ नाभेयादिजिनाधिपास्त्रिभुवने ख्याताश्चतुर्विंशतिः श्रीमंतो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश, ये विष्णुप्रति विष्णुलांगलधराः सप्ताधिका विंशतिः । त्रैलोक्येऽभयदा त्रिषष्टिपुरुषाः कुर्वन्तु मे मंगलं ||३ || कैलासे वृषभस्य निर्वृतिमहावीरस्य पावापुरी, चंपायां वसुपूज्यसञ्जिनपतेः सम्मेवशैलेऽर्हतां, शेषाणामपि चोज्जयंतशिखरे नेमीश्वरस्यार्हतो, निर्वाणा विनयः प्रसिद्ध विभवाः कुर्वन्तु मे मंगलं ||४|| ज्योतिर्व्यन्तरभुवनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिता, जंबूशाल्मलिचैत्यशाखिषु तथा वक्षाररूप्यादिषु, इक्ष्वाकारगिरौ च कुंडलनगे द्वीपे च नंदीश्वरे, शैलेये मनुजोत्तरे जिनगृहाः कुर्वन्तु मे मगलं ॥ ५ ॥ यो गर्भावतरोपि जयत्य
जन्माभिषेकोत्सवे, यो जातः परिनिष्क्रमेवच भवो यः केवलज्ञानभाक्, यः कैवल्यपुरप्रवेशमहिमा संभावितः स्वर्गिभिः, कल्याणानि च तानि षट्पंच सततं कुर्वन्तु मे मंगलं ॥ ६ ॥ ये पंचोषधिद्धयः श्रुततपोॠद्धिं गताः पंच ये ये चाष्टांगमहानिमित्त कुशला येऽष्टौ विधा वारणाः । पंचज्ञानघराथ येऽपि वलिनो ये बुद्धिऋद्धीश्वराः सप्तैते सक
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लाश्च ते गणभृताः कुर्वन्तु मे मंगलं ॥७॥ देव्याश्चाष्टजयादिका द्विगुणिता विद्यादिका देवताः श्रीतीर्थकरमातृकाच जनका यक्षाश्च यक्षीश्वराः । द्वात्रिंशत्रिदशा ग्रहाः निधिसुराः दिकन्यकाश्चाष्टधा दिक्षालादश इत्यमी सुरगणाः कुर्वन्तु मे मंगलं ॥८॥ इत्थं श्रीजिनमंगलाष्टकमिदं कल्याणकालेऽर्हता पूर्वाग्लेपि महोत्सवेपि सततं श्रीसौख्यसंपत्करं । ये शृण्वन्ति पठन्ति तैश्च मनुजैर्द्धर्मार्थकामान्विता लक्ष्मीराश्रयते व्यपायरहिताः कुर्वन्तु मे मंगलं ॥ ९ ॥ इति मंगलाष्टकं संपूर्णम् ॥
॥अथ द्वितीयमंगलाष्टकं लिख्यते ॥ अर्हन्तः शरणं सन्तु, सिद्धाश्च शरणं मम, शरणं जिनधर्मों में, साधवः शरणं सदा ॥१॥ नमः श्रीस्थूलिभद्राय, कृतभद्राय तायिने, शीलसन्नाहमाविद् , यो जिगाय सरं रयात् ॥ २॥ गृहस्थ स्थापि यस्यासन् , शीललीला महत्तराः, नमः सुदर्शनायास्तु, दर्शनेन कृतश्रिये ॥३॥ धन्यास्ते कृतपुण्यास्ते, मुनयो जितमन्मथाः, आजन्मनिरतीचारं, ब्रह्मचर्य चरंति ये ॥४॥ निःसत्त्वो भूरिकर्मा हि, सर्वदाऽप्यजितेन्द्रियः, नैकाहमपि यः शक्तः, शीलमाधातुमुत्तमं ।।५।। संसार तव निस्तारपदवी न दवीयसी, अन्तरा दुस्तरा न स्युर्यदि रे मदिरेक्षणाः ॥६॥ अनृतं साहसं माया, मूर्खखमतिलोभिता, अशौचं निर्दयत्वं च, स्त्रीणांदोषाः स्वभावजाः ॥७॥ या रागिणि, विरागिण्य: स्त्रियस्ताः कामयेत का, सुधीस्तां कामयेन्मुक्तिं, या विरागिणि रागिणी ॥८॥ एवं ध्यायन भजेनिद्रा, स्वल्पं कालं समाधिमान् , भजेन्न मैथुनं धीमान् , धर्मपर्वसु कर्हिचित् ॥९॥ इतिरात्रौ निद्राभावे, शु.
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भचिंतनम् ॥ ततो गला मुनिस्थानमथवात्मनिकेतने, निजपापविशुद्ध्यर्थ, कुर्यादावश्यकं सुधीः ॥१॥रात्रिकं स्यादेवसिकं पाक्षिकं चातुर्मासिकम् , सांवत्सरं चेति सुधीः पंचधावश्यकं स्मृतम् ॥२॥ कृतावश्यककर्मा च, स्मृतपूर्वकुलक्रमः, प्रमोदमेदुरस्वान्तः, कीर्तयेन्मंगलस्तुतिम् ॥ ३॥ मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमः प्रभुः, मंगलं स्थूलिभद्राधा, जैनो धर्मोस्तु मंगलं ॥४॥ नाभेयाद्या जिनाः सर्वे, भरताद्याश्च चक्रिणः, कुर्वन्तु मंगलं सर्वे, विष्णवः प्रतिविणवः ॥५॥ नामिसिद्धार्थभूपाद्या, जिनानां पितरः समे, पालिताः खंडसाम्राज्याः, जनयन्तु जयं मम ॥ ६॥मरुदेवीत्रिशलाद्या, विख्याता जिनमातरः, त्रिजगजनितानन्दा, मंगलाय भवन्तु मे ॥७॥ श्रीपुंडरीकेन्द्रभूति, प्रमुखा गणधारिणः । श्रुतकेवलिनोऽपीह, मंगलानि दिशन्तु मे ॥ ८॥ ब्राह्मीचन्दनबालाद्या, महासत्यो महत्तराः। अखंडशीललीलाढ्या, यच्छन्तु मम मंगलम् ॥९॥ चक्रेश्वरी सिद्धा. यिका मुख्याः शासनदेवताः, सम्यग्दृशां विघ्नहरा, रचयन्तु जयश्रियम् ॥ १० ॥ कपर्दिमातंगमुख्या, यक्षा विख्यातविक्रमाः, जैनविघ्नहरा नित्यं, दिशन्तु मंगलानि मे ॥११॥ यो मंगलाष्टकमिदं, पटुधीरधीते, प्रातर्नरः, सुकृतभावितचित्तवृत्तिः । सौभाग्यभाग्यकलितो धुतसर्वविघ्नो, नित्यं स मंगलमलं लभते जगत्यां ॥ १२ ॥ इति द्वितीयमंगलाष्टकं संपूर्णम् ॥
॥अथ अहणादिपंचपरमेष्टिमहास्तोत्रं लिख्यते॥ .. अरिहाण नमो पूर्य, अरहंताणं रहस्स रहिआणं, पयओ परमेट्ठीणं, आरुहंताणं धुअरयाणं ॥१॥ निविअ अट्टकम्मिद्धणाण, वर
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नाणदंसणधराणं मुत्ताण नमो सिद्धाणं, परमपरमिद्विभूयाणं ॥२॥ आयारधराण नमो, पंचविहायारसुहिआणं च, नाणीणायरिआणं, आयारुवएसयाण सया॥३॥बारसविहअपुवं, दिताण सुअं नमो सुअ. हराणं, सययमुवज्झायाणं, सज्झायज्झाणजुत्ताणं ॥४॥ सवेसि साहूणं, नमो तिगुत्ताण सवलोएवि, तवनियमनाणदंसणजुत्ताणं बंब्भयारीणं ॥५॥ एसो परमिट्ठीणं, पंचन्हवि भावओ नमुक्कारो, सबस्स कीरमाणो, पावस्स पणासणो होई ॥६॥ भुवणेवि मंगलाणं, मणुयासुर अमरखयरमहियाणं, सवेसिमिमो पढमो, होइ महामंगलं पढमं ॥७॥ चत्तारिमंगलं मे हुंतु, अरहंता तहेव सिद्धा य, साहु अ सबकालं, धम्मोय तिलोअमंगलो ॥ ८॥ चत्तारिचेव ससुरासुरस्स लोगस्स उत्तमा हुंति, अरिहंतसिद्धसाहू, धम्मो जिणदेसिअमुआरो ॥९॥ चत्तारिवि अरहंते, सिद्धसाहू तहेवधम्म च, संसारघोररक्खस्स, भएण सरणं पवजामि ॥ १० ॥ अह अरहओ भगवओ, महइमहावीर बद्धमाणस्स, पणयसुरेसरसेहर, विअलिअकुसुमुच्चियकमस्स ॥११॥ जस्स वरधम्मचकं, दिणयरबिंबुद्ध भासुरच्छायं, तेएण पजलंत, गच्छइ पुरओ जिणिदस्स ॥ १२ ॥ आयासं पायालं, सयलं महिमंडलं पयासंतं,मिच्छत्तमोहतिमिरं हरेइ तिण्हपि लोआणं ॥१३॥ सयलमविजीअलोए, चिंतिअमित्तो करेइ सत्ताणं, रक्खं रक्खसडाइणि, पिसाय गहभूअ जक्खाणं ॥ १४ ॥ लहइ विवाएवाए, ववहारे भावओ सरंतोअ, जूएरणेअ राय, गणेश विजयं विसुद्धप्पा ॥ १५॥ पञ्चूसपओसेसु, सययं भवो जणो सुहज्झाणो, एअं झाएमाणो, मुक्खं पइसाहगो होइ ॥१६॥ वेआल रुद्ददाणव,
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५७१ मरिंदकोहंडि रेवईणं च, सवेसि सत्ताणं, पुरिसो अपराजिओ होई ॥ १७ ॥ विजुव पजलंती, सल्वेसुवि अरकरेसु मत्ताओ, पंचनमुकार पए इकिके उवरिमाजाव ॥ १८ ॥ ससिधवलसलिलनिम्मल, आयारसहं च वन्नियं विद्, जोअणसयप्पमाणं, जालासयसहस्सदिप्पंतं ॥ १९ ॥ सोलससु अक्खरेसु, इकिकं अक्खरं जगुजो, भवसयसहस्स महणो, जंमिडिओ पंचनवकारो ॥ २० ॥ जो गुणइ हुइ कमणो, भविओ भावेण पंचनमुक्कारं, सोगच्छइ सिवलोअं, उज्जो अंतो दसदिसाओ ॥ २१ ॥ तवनियमसंयमरहो, पंचनमोक्कारसारहि निउत्तो । नाणतुरंगमजुत्तो, नेइ फुडं परमनिवाणं ॥२२ ॥ सुद्धप्पा सुद्धमणा, पंचसुसमिईसु संजुअतिगुत्ता, जे तम्मि रहे लग्गा, सिग्धं गच्छंति सिवलोअं ॥२३॥ थंभेई जलं जलणं, चिंतिअमित्तो वि पंचनवकारो, अरिमारिचोरराउल, घोरुवसग्गं पणासेइ ॥ २४ ॥ अटेवय अट्ठसयं, अट्ठसहस्सं च (अट्ठलरकंच) अट्ठकोडीओ, रक्खंतु मे सरीरं देवासुरपणमिआ सिद्धा ॥२५॥ णमो अरिहंताणं, तिलोअ पुजोत्र संथुओ भयवं, अमरनररायमहिओ, अणाईनिहणो सिवं दिशउ ॥ २६ ॥ निद्वविअ अट्टकम्मो, सिवसुहभूओ निरंजणो सिद्धो, अमरनररायमहिओ, अणाइनिहणो सिवं दिशउ ॥२७॥ सवे पओस मच्छर, आहिवाहि अ पणासमुवयंति, दुगुणीकय धणुसई सोउंपि महाधणुसहस्सं ॥ २८ ॥ इय तिहुअणप्पमाणं, सोलसपत्तंजलंत दित्तसरं, अट्ठार अद्धवलयं, पंचनमुक्कारचक्कमिणं ॥ २९ ॥ सय. लुजोइअ भुवणं, विद्दावि असेससत्तुसंघायं, नासिअ मिच्छत्ततम, विलियमोहं गयतमोहं ॥३०॥ एयस्स य मझत्थो, सम्म
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दिट्ठी विसुद्धचारित्तो, नाणीपवयणभत्तो, गुरुजणसुस्सूसणा परमों ॥३१॥ जो पंचनमुक्कारं, परमो पुरिसो पराइभत्तीए, परियत्नेह पइदिणं, पयओ सुद्धपओगप्पा ॥ ३२ ॥ अडेवय अहसयं, अट्ठसहस्सं च उभयकालंमि, अहेव य कोडीओ, सो तइय भवे लहइ सिद्धि ॥ ३३ ॥ एसो परमो मंतो, परमरहस्सं परंपरं तत्तं, नाणं परमं णेअं, शुद्धं झाणं परं झेअं ॥ ३४ ॥ एयंकवयमभेअं, खाइय मच्छंपरा भुवणरक्खा, जोईसुन्नं बिंदु, नाओतारालवोमत्तो ॥ ३५ ॥ सोलसपरमक्खरबीअ, बिंदुगम्भोजगुत्तमो जोओ, सुअवारसंगसायर, महत्थपुवोत्थ परमत्थो॥३६॥ नासेई चोरसावय, विसहर जल जलणवंधणसयाई चिंतिजंतोरक्खस्स, रणरायभयाइं भावेण ॥ ३७॥ इति अरहणादिमहास्तोत्रम् ॥
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॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ अथ श्रीदादासाहेबकी पूजा
अथ पहली थापना स्थापन करके
आह्वाहनका श्लोक पढे। सकलगुणगरिष्ठान् सत्तपोभिर्वरिष्ठान् । शमदमकजुष्टांश्चारुचारित्रनिष्ठान् । निखिलजगति पीठे दर्शितात्मप्रभावान् ।
मुनिपकुशलसूरीन् स्थापयाम्यत्र पीठे ॥१॥ ओ ही श्री श्रीजिनदत्त श्रीजिनकुशल श्रीजिनचन्द्रसूरिगुरो अत्रावतरावतर स्वाहा ॥ २ ॥ ओ ही श्री श्रीजिनदत्त अत्र तिष्ठ २ उठाठः स्वाहा इति प्रतिष्ठापनम् ॥ ॐ ही श्री श्रीजिनदत्तमरिगुरो अत्र मम संनिहितो भव वषट् इति संनिधीकरणम् ॥३॥ अथ जलका कलश लेके स्नानकर्ता शुचि होके खडारहे ॥
अथ स्तुतिप्रारम्भः। दोहा-ईश्वर जग चिंतामणी, कर परमेष्ठीध्यान । गणधर पद गुण वर्णना, पूजन करो सुजान ॥१॥ सौधो मुनिपति प्रगट, वीर जिनेश्वर पाट । मिथ्यामततमहरणको, भव्य दिखावन वाट ॥२॥ सुस्थित सुप्रतिबद्ध गुरु, सूरिमंत्रको जाप । कोटि कियो
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जब ध्यान धर, कोटिकगच्छ सुथाप || ३ || दश पूर्वी श्रुतकेवली, भये वज्रवर स्वाम । तादिनतें गुरुगच्छको, वज्रशाख भयो नाम | ४ || चंद्रसूरि भये चंद्रसम, अतिही बुद्धि निधान | चंद्रकुली सब जगतमें, पसर्यो बहुविज्ञान || ५ || वर्द्धमानके पाट पद, सूरि जिनेश्वरमा । चैत्यवासिकुं जीतकर, सुविहित पक्ष प्रकाश || ६ || अणहिलपुर पाटणसभा, लोक मिले तिहाँ लक्ष | खरतर विरुद सुधानिधि, दुर्लभराजसमक्ष ॥ ७ ॥ अभयदेवसूरि भये, नवअंगटीकाकार | थंभणपारस प्रगटकर, कुष्ठ मिटावनहार, || ८ || श्रीजिनवल्लभरि गुरू, रचना शास्त्रअनेक | प्रतिबोधे श्रावकबहुत, ताके पट्टविशेष ॥ ९ ॥ हुंबड श्रावक वाघडीअठ्ठारे हजार, जैन दयाधर्मी किये, वरते जैजैकार || १० || दादा नाम विख्यात जस, सुर नर सेवक जास । दत्तसूरि गुरु पूजतां, आनंद हर्ष उल्लास ॥ ११ ॥ दिल्लीमें पतसाहने, हुकम उठाया शीस । मणिधारी जिनचंद गुरु, पूजो बिसवावीस ।। १२ ।। ताके पट्ट परंपरा, श्रीजिनकुशलसूरिंद । अकबरकुं परचा दिया, दादा श्रीजिनचंद || १३ || ऐसे दादाच्यारकूं, पूजो चित्त लगाय | जल चंदन कुसुमादि कर, ध्वज सौगंध चढाय ॥ १४ ॥ चाल दादा चिरंजीवो ए दशी ॥
गुरुराजतणी कर पूजन भवि सुखकर मिलसी लछि धणी एअकणी गुरु दत्तमूरिंद जग सुखकारी, गुरु सेवकने सानिधकारी, गुरु चरणकमलनी बलिहारी गुरु० ॥ १ ॥ संवत इग्यारे बारशशी, बत्तीसे जनम्यां शुभ दिवसी, श्रावककुल हुंबडनें हुलसी ॥ गु० ॥
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||२|| जसु बाछिगसा पितुनाम भणे, बाहङ दे माता हर्ष घणे, इकताली से दीक्षापभणे || गु० || ३ || गुणहतरे वल्लभ पाटधरी, गुरु मायाबीजनो जापकरी, गुरु जगमें प्रगट्या तरणतरी ॥ गु० ॥ ४ ॥ मणिधारी जिनचंद उपकारी, जिनदत्तसूरिंदके पटधारी, भये दादा दूजा सुखकारी ॥ गु० || ५ || राशल पितु देल्हणदे माता, श्रीमाळगोत्र बोधन साता, दिल्ली पतसाह सुगुण गाता ॥ गु० ॥ || ६ || जसु चौथे पाट उद्योतकरी, जिन कुशलसूरिंद अतिहर्षभरी तेरेसे तीसे जनमधरी ॥ गु० ॥ ७ ॥ जसु जिल्ला जनक जगत्र जियो, वर जैतसिरी शुभ वपन लियो, गुरु छाजेडगोत्र उद्धार कियो || गु० ||८|| घन सैंतालीसे दीक्षा धरी, जिन चंद्रसूरीश्वर पाटवरी, गुणहतरे सूरिमंत्र जापकरी ॥ गु० ॥ ९ ॥ सेवामें बावनवीर खरा, जोगणियां चौसठ हुकम धरा, गुरु जगमें कई उपकारकरा ॥ गु० ॥ १० ॥ माणक सूरीश्वर पद छाजे, जिनचंद्रसूरी जगमें गाजे, भये दादा चोथा सुखकाजे ॥ गु० ॥ ११ ॥ जिण चांद उगायो उजियारो, अम्मावसकी पूनमवालो, सब श्रावक मिल पूजन चालो ॥ गु० ॥ १२ ॥ जिण अकबरकूं परचा दीना, काजीकी टोपी वश कीना । चकरीका भेद कह्या तीना ॥ गु० || १३ || गंधोदक सुरभिकलशभरी, प्रक्षालन सद्गुरु चरण परी, या पूजन कवि ऋद्धिसार करी ॥ गु० ॥ १४ ॥
श्लोकः । सुरनन्दीजलनिर्मलधारकैः प्रबलदुष्कृतदाघनिवारकैः । सकलमङ्गलवाञ्छितदायको कुशलसूरिगुरोश्चरणौ बजे ॥ १ ॥
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ओ ही श्री परमपुरुषाय परमगुरुदेवाय भगवते श्रीजिनशासनोद्दीपकाय श्रीजिनदत्तसूरीश्वराय मणिमण्डितभालस्थलाय श्रीजिनचन्द्रसूरीश्वराय श्रीजिनकुशलसूरीश्वराय अकबर असुत्राणप्रतिबोधकाय श्रीजिनचन्द्रसूरीश्वराय जलं निर्विपामिते स्वाहा ॥१॥
अथ द्वितीय केशरचंदनपूजाप्रारंभः । दोहा-केशर चंदन मृगमदा, कर धनसार मिलाप । परचा जिनदतरिका, पूज्यां तूटे पाप ॥१॥
चाल वीण बाजेकी. दीनके दयाल राज सार (२) तूं।
आंकणी । आये भरुअच्छ नगर धाम धूम धृ २ बाजते निशान ठोर हर्ष रंग हूं ह० दी० ॥१॥ मुसलमान मुगलपूत फौज मौजमू । फोत मोत होगया हायकारम् हा० दी० ॥२॥ सन विघ्न देख आप हुक्म दीन यूं । लावो मेरे पास आस जीवदान दूं जी. ॥३॥ दी. मृतक पूत मंत्रसे उठाय दीन तूं, देखके अचंभ रंग दास खासळू दासखासळू ॥४॥ दी० करत सेव भावपूर तुरक राज जूं । छोडके अभक्ष्य खान हाजरी भरूं हा० ॥५॥ दी० बीज खीजके पडी प्रतिक्रमणके मूं। हाथसे उठाय पात्र ढांक दीन छ ढा० ॥६॥ दी. दामनी अमोल बोल सिद्धराज तूं । देउं वर दान छोड बंदकीन क्यूं बंधकीन क्यूंबं० ॥७॥ दत्त नाम जपत जाप करत नांह चूं । फेर में पहूंगी नांह छोड दीन फूं छो० दी०॥८॥ करोगे निहाल आप पाव पलक, रामऋद्धिसार दास चरण छांह लूं न० ॥९॥ श्लोक-मलयचन्दनकेशरवारिणा निखिलजाड्यरु
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जातपहारिणा । सकल० ॥ओ ही श्री श्रीजिनदत्त केशरचन्दनं निर्विपामि ते वाहा ॥२॥
अथ तिजी पुष्पपूजा. दोहा-चंपा चमेली मालती, मरुवा अरु मचकुंद । जो चाढे गुरुचरणपर, नित घर होय आनंद ॥१॥ नींदतो गई वादीला मारी. ए चाल-राग मांड । गुरु परतिख सुरतरूरुप सुगुरुसम दूजो तो नहीं । दुजो तो नहीं रे सुमतिजन दूजो तो नहीं । गुरुप० सु० सुगुरुने पूजो तो सही । ए आंकणी । चितोडनगरी वज्रथंभमें, विद्यापोथी रहीरे सु० वि० हेजी मंत्र जंत्र विद्यासेपूरी, गुरु निजहाथग्रही गु० गुरुपर० ॥१॥ पुरउज्जयिनी महाकालके, मंदिर थंभ कहिरे सुम० हेजी सिद्धसेन दिनकरको पोथी, विद्या सरब लही रे सु० वि० गुरुप० ॥ २ ॥ उज्जयिनी व्याख्यानबीचमें, श्राविका रूपग्रहीरे सु० श्रा० हेजी जोगनियां छलनेकुं आई, सबको खील दई ॥ गु० ॥३॥ दीन होय जोगणीयां चोसठ, गुरुकी दाश भइरे सु० गु० हेजी सातदिया वरदानहरपसें, पसख्यो सुयश मही प० गु० ॥ ४ ॥ पुष्पमाल गुरुगुणकी गूंथी, चाढो चित्त चही रे सु० चा० हेजी कहे रामऋद्धिसार सुयशकी, बूटी आपदई बू० गु० ॥५॥ श्लोक-कमलचम्पककेतकीपुष्पकैः परिमलाहृतषट्पदवृन्दकैः ॥ सकल ॥ ओ ही श्री श्रीजिनदत्त० पुष्पं निर्चिपामि ते खाहा ॥३॥
___ अथ चोधी धूपपूजा. दोहा-धूप पूज कर सुगुरुकी, पसरे परिमल पूर । जस सुगंध जगमें बधे, चढे सवाया नूर ।
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.. राग सोरठ-कुवजाने जादू डारा ए चाल । अंबिका विरुद्ध बखाने गुरु तेरो अं० । तुमयुगप्रधान नहीं छाने गु० । ए आंकणी । गढ गिरनाररपै अंबड श्रावक, ऐसो नियम चित्त ठाने । युगप्रधान इस युगमें कोई, देखुं जन्मप्रमाणे ॥ गु० अं० ॥१॥ कर उपवास तीनदिनवीते, प्रकटी अंबा ज्ञाने गु०! प्रगट होय करमें लिखदीना, सुवरनअक्षरदाने ॥ गु० अं० ॥२॥ या गुणसंयुत अक्षर बांचे, ताको युगवर जाने ॥ गु० ॥ अंबड मुलक २ में फिरता, सूरि सकल पतवाने ॥ गु० ३ ॥ आया पास तुम्हारे सद्गुरु, कर पसार दिखलाने ॥ गु० ॥ वासक्षेप उन ऊपर डाला, चेला बांच सुनाने । गु० ॥ अं० ॥ ४ ॥ सर्वदेव हैं दास जिनोंके, मरुधर कल्पप्रमाणे ॥ युगप्रधान जिनदत्त सूरीश्वर, अंबड शीश झुकाने ॥ गु० ॥५॥ उद्योतनसूरीने निजहाथे, चौरासी गच्छ ठाने ॥ सो सब तुम्हरी सेवा सारे, चौरासी गछ माने ॥ गु० ॥६॥ जो मिथ्यात्वी तुमको न पूजे, सो नहीं तत्त्वपिछाने | भद्रबाहुखामी तुम कीर्तन, कीनी ग्रंथप्रमाणे ॥ गु० ॥ ७ ॥ युगप्रधान परिकीए गंडिका, गणधरपदवृत्ति माने । कहे रामरिदिशार गुरुकुं, पूजा धूपकराने ॥ गु० ॥ ८॥ श्लोक अगरचन्दनधूपदशाङ्गजैः प्रसरिताखिलदिक्षु सुधमकैः । सकलमं ४ ओ ही श्री पर० धूपं निर्विपामि ते स्वाहा ॥ ४ ॥
अथ पांचमी दीपपूजा. दोहा-दीप पूजकर सुगण नर, नितनित मंगळहोत । उजियाला जममें जुगत, रहे अखंडित जोत ॥१॥
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fare स्यालकी।
पूजन कीज्योजी नर नारी गुरु महाराजका हो ॥ पू० ॥ सिंधुदेश में पंचनदीपर, साधे पांचो पीर । लोईऊपर पुरुषतिराये, ऐसे गुरु सधीर ॥ ० ॥ १ ॥ प्रगटहोयके पांचपीरने, सात दीया वरदान | सिंधुदेश में खरतरश्रावक, होवेगा धनवान ॥ ५० ॥ २ ॥ सिंधुदेश मुलताननगर में बडामहोच्छव देख | अंबड और गच्छका श्रावक, गुरुसे कीना द्वेष || पू० ॥ ३ ॥ अणहिलपुर पत्तनमें आवो, तो मैं जानुं सच्चा । बडे महोत्सव आवेगें तूं, निर्धन होगा कच्चा ॥ पू० ॥ ४ ॥ पत्तनबीच पधारे दादा, सनमुख निर्वन आया । गुरु बतलाया क्योंरे अंबड, अहंकारफल पाया । पू० ॥ ५ ॥ मनमें कपट किया अंबडने, खरतर महिमा धारी । जहर दीया उन अशनपानमें, गुरु विधिजाणी सारी ॥ पू० ॥ ६ ॥ भणशाली मुखवर श्रावकसें, निर्विष मुद्रा मंगाई । जहर उतारा तब लोकोंमें, अंबड निंदा पाई ।। पू० ।। ७ ।। मरके व्यंतर हुआ वो अंबड रजोहरण हर लीना । भणसाली व्यंतर वचनोंसे, गोत्रउतारा कीना ॥ पू० ॥ ८ ॥ सज्जहोय गुरु ओघालेके, गोत्र वचाया सारा । ऋद्धिसार महिमा सदगुरुको, दीपकका उजियारा ॥ पू० ॥ ९ ॥ श्लोक - अतिसुदीप्तिमयैः खलु दीपकैर्विमलकांचनभाजनसं स्थितैः । सकल० ओ ही श्री पर० दीपं निर्व्वपामि ते खाहा ॥ ५॥ अथ छठी अक्षतपूजा.
दोहा - अक्षतपूजा गुरुतणी, करो महाशय रंग । क्षती न होवे अंगमें, जीते रण में जंग ॥ १ ॥ राग आसावरी - अवधू सो योगी
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गुरु मेरा ए चाल, रतनअमोलक पायो सुगुरु सम रतन अमोलकपायो । गुरु संकट सबही मिटायों सु० ए आंकणी । विक्रमपुरनगरी लोकनकू, हैजारोग संतायो । बहुतउपायकिया शांतिकका, जरा फरक नहीं आयो ॥ सु० र० ॥ १ ॥ योगी जंगम ब्रह्म संन्यासी, देवी देव मनायो । फरक नहीं किनहीने कीनो, हाहाकार मचायो । सु० र० ॥२॥ रतन चिंतामणि सरिखो साहित्र, विक्रम पुरमें आयो । जैनसंघको कष्ट दुरकर, जयजयकार वरतायो ॥ सु० २० ॥३॥ महिमा सुनमाहेश्वरि ब्राह्मण, सवही शीश नमायो । जीवतदान करो महाराजा, गुरु तब यों फरमायो ॥ सु० २०॥४॥ जो तुम समकित व्रतको धारो, अवही कर, उपायो । तहत वचन कर रोग मिटायो, आनंद हर्ष बधायो ॥ सु० २०॥५॥ जो कोई श्रावक व्रत नहीं धाखो, पुत्री पुत्र चढायो ॥ साधु पांचसे दीक्षित कीना, साधवियां समुदायो ॥ सु० र० ॥ ६ ॥ मंत्र कला गुरु अतिशय धारी, ऐसो धर्म दीपायो ॥ ऋद्धिसार पर किरपा कीनी, साचो इलम बतलायो ॥ सु० २०॥ ७॥
श्लोक-सरलतन्दुलकैरतिनिर्मलैः, प्रवरमौक्तिकपुंजवदुज्ज्वलैः । सकल० ओ ही श्री प० अक्षतान् निर्धपामि ते खाहा ॥ ३ ॥
अथ सातमी नैवेद्यपूजा. दोहा-नैवेद्य पूजा सातमी, करो भविक चित चाव । गुरुगुण अगणित कुण गिणे, गुरु भवतारण नाव ॥ १ ॥
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५८१ राग कल्याण-तेरीपूजाबनी है रसमें ए चाल. हो गुरु किया असुरकुं वशमें, ए आंकणी. बडनगरीमें आप पधारे, सांमेला धसमसमें, ब्राह्मणलोक बडे अभिमानी, मिलकर आया सुसमें ॥ गु० ॥१॥ हो गु०॥ महिमा देख शक्या नहीं गुरुकी, भरे मिथ्याली गुसमें । मृतक गऊ जिनमंदिर आगे, रखदी सनमुख चसमें ॥ हो० गु० ॥२॥ श्रावकदेख भये आकुलता, कहे गुरुसे कसमें । चिंतादुरकरीहै संघकी, गउ उठचाली डसमेंहो ॥ गुरु० ॥ ३ ॥ मरी गऊको जीतीकीनी, लोक रह्या सब हसमें । जाके गाय पडी रुद्रालय, संघभया सब खुसमें ॥ हो गु० ॥ ४ ॥ ब्राह्मण पायपडे सव गुरुके, देख तमासा इसमें ॥ हुकम उठावेंगे शिरऊपर, तुमसंततिकी दिशमें ॥ हो गु० ॥५॥ नमस्कार है चमत्कारको, कीनी पूजा रसमें । कहे रामऋद्धिसार गुरुकी, आनंद मंगल जसमें । हो० गु० ॥६॥
श्लोक-बहुविधैश्चरुभिर्वटकैर्यकैः प्रचुरसर्पिषि पकसुखञ्जकैः । सकल० ॥ ओ हीश्री प० नैवेद्यं निर्वपामिते वाहा ॥ ७॥
अथ आठमी फल पूजा. दोहा-फलपूजासे फल मिले, प्रगटे नवे निधान । चहुदिशि कीरति विस्तरे, पूजन करो सुजान ॥१॥ - रथ चढ यदुनंदन आवत हैं ए चाल-चालो संध सब पूजनको गुरु समस्यां सनमुख आवत है रे ॥ चा० गु० ए आंकणी । आनंदपुरपट्टनको राजा, गुरशोभा सुन पावत है रे ॥ चा० ॥१॥ भेजा निज परधान बुलाने, नृप अरदास सुनावत है रे ॥
३८ दत्तसूरि०
का
यदुनंदन आव
२॥ चा गु
चा .
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५८२.
chote che
Cheche
चा. लाभजान गुरू नगर पधारे ॥ भूपति आय बधावत है रे ॥ चा०॥२॥ राजकुमरको कुष्ठ मिटायो, अचरज तुरत दिखावत है रे ॥ चा० ॥ दश हजार कुटुम्ब संग नृपको, श्रावकधर्म धरावत है रे ॥ चा० ॥ ३॥ दयामूल आज्ञा जिनवरकी, बारा व्रत उचरावत है रे ॥ चा० ॥ ऐसे चार राज समकित धर, खरतर संघ बनावत है रे ॥ चा० ॥ ४॥ कुष्ठ जलंधर क्षय भगंदर, कइयक लोक जिवावत है रे ॥ चा० ॥ ब्राह्मण क्षत्री अरु माहेश्वर, ओसवंश पसरावत है रे ॥ चा० ॥५॥ तीसहजार एकलक्ष श्रावका महिमा अधिक रचावत है रे ॥ चा० ॥ कहत रामऋद्धिसार गुरुको, फलपूजा फल पावत है रे ॥ चा० ॥६॥ __ श्लोक-पनसमोचसदाफलकर्कटैः सुसुखदैः किल श्रीफलचिमैटैः ॥ सकल० ॥ ओ ही श्री प० फलं निर्वपामि ते स्वाहा ॥८॥
अथ नवमी वस्त्र अत्तर पूजा. दोहा-वस्त्र अतरगुरु पूजना, चौवा चंदन चंपेल । दुम्मन सब सज्जन हुए, करे सुरंगा खेल ॥१॥ __ मनडोकिमहीन वाजे हो कुथुजिन. ए चाल-लखमी लीला पावे रे सुंदर लखमी लीला पावे । जो गुरु वस्त्र चढावें रे ॥ सुं० ॥ सुजस अतर महकावे रे ॥ सुं० ॥ दुरजन शीश नमावेरे सुं० ए आंकणी । दरिया बीच जहाज श्रावककी, डूबन खतरे आवे । साचे मन समरे सद्गुरुकुं, दुखकी टेर सुनावेरे । सुं० ॥१ ॥ बाचंताव्याख्यानसूरीश्वर, पंखीरूपेथावे । जाय समुद्रमें ज्याज तिराई, फिर पीछा जब आवेरे ।। सुं ॥२॥ पूछे संघ अच
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रजमें भरिया, गुरु सब बात सुनावेरे ॥ सुं० || ऐसे दादा दत्त कुशल गुरु, परचा प्रगट दिखावेरे ॥ सुं० ॥ ३ ॥ बोथरा गूजरमल श्रावककी, दादा कुशल तिरावेरे ॥ सुं० ॥ सुखसूरि गुरु समयसुंदरकी, ज्याज अलोप दिखावे रे || सुं० ॥ ४ ॥ बारासै इग्यारे दत्तसूरि, अजमेर अणसण ठावे । उपज्या सोधर्मा देवलोके, सीमवर फुरमावेरे ॥ सुं० ॥ ५ ॥ इकअवतारी कारज सारी, मुक्ति नगरमें जावेरे ॥ सुं० ॥ कुशल सूरि देराउर नगरे, भुवनपती सुरथावेरे ॥ सु० || ६ || फागणवदि अम्मावस सीधा, पूनम दरशदिखावेरे ॥ सुं० ॥ मणिधारी दिल्लीमें पूज्यां संकट सुपने नावेरे ॥ सुं० ॥ ७ ॥ रथी उठी नहीं देख बादसा, चांही चरण पधरावे रे || सुं० ॥ वस्त्र अतर पूजा सद्गुरुकी, ऋद्धिसार मन भावे रे || सुं० ॥ ८ ॥
ु ँ
श्लोक- अखिलही शुभैर्नवचीरकैः प्रवरप्रावरणैः खलु गन्धतः ॥ सकल० || ओ ही श्री प० वस्त्रं चोवाचन्दनपुष्पसारं निर्वपामिते स्वाहा ।। ९ ।।
॥ अथ दशमी ध्वजपूजा. ॥
दोहा - ध्वजपूजा गुरुराजकी, लहके पवन प्रचार । तीन लोकके शिखरपर, पहुंचे सो नर नार ॥ १ ॥
चाल - जिनगुण गावत सुरसुंदरीरे ए चाल - ध्वजपूजन कर हरख भरीरे ॥ ६० ॥ सज सोले शिणगार सहेल्यां श्रीसद्गुरुके द्वार खरी रे ॥ ६० ॥ अपछर रूप सुतनु सुकलीनी, ठम २ पग झणकार करीरे ॥ ध० ॥ १ ॥ गावतमंगल देत प्रदक्षिणा, धन २ आनंद आज घरीरे
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५८४
॥ध० ॥ निर्धनको लखमी बकसावत, पुत्र विना जाके पुत्र करी रे ॥०॥२॥ जोजो परतिष परचा देख्या, सुनो भविक दिलबीच धरी रे॥ध० ॥ फतेमल्ल भडगतिया श्रावक, पहली संका जोर करीरे ॥ध० ॥३॥ परतिख देखू तब मै जाj, प्रगट्या ततखिण तरण तरीरे ॥ ध० ॥ पुष्पमाल शिर केशरटीको, अधर श्वेत पोशाककरीरे ॥ध० ॥४॥ मांग २ वर बोले वाणी, फरक बतावो गुरु मेघझरीरे ॥ ध० ॥ फरक उगायो दोय लाख पर, तेरी महिमा नित्त हरीरे ॥ध० ॥ ५॥ गैनचंद गोलेछाको तें। परतिख दीना दरस फरीरे ॥ध० ॥ विक्रमपुरमें धुंभ तुहमारा, चित्र करावत सुरसुंदरीरे ॥३०॥६॥ थानमल्ल लूण्यांपर किरपा, लखमी लीला सहजवरीरे । लखमीपति दुगडकी साहिब, हुंडीकी भुगतानकरीरे ॥ ५० ॥७॥ जो उपकार कया तै मेरा, दीनी सनमुख अमृत झरीरे ॥ध० ॥ तेरी कृपासे सिद्धी पाई, जागे जस अरु भाग भरीरे ॥ध०॥ ८॥ भूखा भोजन तिसिया पानी, भरत हाजरी देव परीरे ॥ ध० ॥ विखम बखत पर सहाय हमारे, ऋद्धिसारकी गरज सरीरे ॥ ३० ॥९॥ - श्लोक-मृदुमधुरध्वनिकिङ्किणीनादकै जविचित्रितविस्तृतवासकैः ॥ सकल० शिखरोपरि ध्वजां आरोपयामि स्वाहा ॥
दोहा-भट्टारक पदवी मिली, जीते वादी वृंद । कंठ विराजत सरखती, जगमें श्रीजिनचंद ॥ राग आसावरी-अथवा धनाश्री। पूजन जगसुखकारी सुगुरु तेरी पूजा । तेरे चरणकमल बलिहारी ॥ सु० ॥ साह सलेम दिल्लीको बादस्या, सुनके शोभ तिहा
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री । भट्ट हरायो चरचा करके, भट्टारकपद धारी ॥ सु० ॥१॥ अम्मावसकी पूनम कीनी, चंद उगायो भारी । चढके गगन करी है चरचा, सूरजसे तपधारी ॥ सु० ॥२॥ चौदासे उगणीस शालमें, लखनेउ नगरमझारी । गोरा फिरंगी टोपीवाला, दिलमें यह बात विचारी ॥ सु० ॥३॥ जैनसितांबरदेव जो सचा, पूरे मनसा हमारी । वाणी निकसी राज्य तुह्मारा, होकेगा अधिकारी ॥ सु० ॥४॥ अंधेकी खोली आंख सूरतमें, पूजे सब नरनारी । कहां लगे गुण बरगूं मै तेरा, तूं ईश्वर जयकारी ॥ स० ॥५॥ उगणीसे संवत्सर तेपन, मगसर मासमझारी । शुकल दूज जिनचंदसूरीश्वर, खरतरगच्छ आचारी ॥सु०॥६॥ कुशलसूरिके निजसंतानी, क्षेमकीर्ति मनुहारी । प्रतिबोध्या जिन क्षत्री पांचसें, जानसहित अणगारी ॥ सु० ॥ ७॥ क्षेमधाडशाखा जब प्रगटी, जगमें आनंदकारी । धर्मशील साधूगुणपूरे, कुशलनिधान उदारी ॥ सु० ॥ ८॥ या पूजन करतां सुख आनंद, अन धन लखमी सारी । कहत रामऋद्धिसार गुरूकी, जय २ शब्द उचारी ॥ सु० ॥९॥ इति श्रीसमस्तदादागुरुपूजा संपूर्णा ॥
॥अथ आरती लिख्यते ॥ जय जय गुरू देवा, आरति मंगल मेवा, आनंद सुख लेवा ॥ ज० ॥ आंकणी । इक ब्रत दुय व्रत तीन चार व्रत, पंच व्रतमें सोहे ॥ गु० ॥ जगतजीव निसतारण कारण, सुर नर मन मोहे ॥ ज०॥१॥ दुःख द्रोह सब हरकर सद्गुरू, राजन प्रतिबोधे । सुत
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लखमी वर देकर, श्रावककुल सोधे ॥ ज० ॥२॥ विद्यापुस्तक घर कर सद्गुरू, मुगलपूत तारे । वस कर जोगनी चौसठ, पांच पीर सारे ॥ ज० ॥३॥ बीजपडती वारी सद्गुरू, समंदर जहाज तारी । वीर किये बस बावन, प्रगटे अवतारी ॥ ज० ॥४॥ जिनदत्त जिनचंद कुशल सूरि गुरू, खरतरगच्छ राजा । चोरासी गच्छ पूजे, मन वांछित ताजा ॥ ज० ॥५॥ मन शुद्ध आरती कष्टनिवारण, सद्गुरुकी कीजे । जो मांगे सो पावे, जगमें जस लीजे ॥ ज० ॥ ६ ॥ विक्रमपुरमें भगत तुमारो, मंत्र कलाधारी । नित उठ ध्यान लगावत, मनवांछित फळ पावत, राम ऋद्धिसारी ॥ ज० ॥७॥ इति पदम् ॥
"अथ शुद्धलोकोत्तरधर्मस्य खरूपं प्रश्नोत्तरैर्निरूप्यते
यं प्राप्य सकर्माजीवाः मुच्यते ॥" प्रश्न:-जैनधर्म कबसे प्रसिद्ध हवा, उत्तर-जैनधर्म अनादिकालसें प्रसिद्ध है, प्रश्न: जैनलोक जगत्का स्वरूप किसतरे मानते हैं,
उत्तर-द्रव्यार्थिकनयके मतसें जैनलोक जगत्का स्वरूप शा. श्वता, हमेशां प्रवाहसें ऐसाही मानते हैं, अनादिकालसें भरत ऐरवत क्षेत्रापेक्ष उत्कृष्ट हीनकालमुजब चढाव उतार स्वरूप चला आता है, अपर क्षेत्रापेक्षसदृश चलता है, कोई इस संसारकी सृष्टिकी रचना करनेवालेकों जैनी लोक नहीं मानते हैं,
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प्रश्नः - अन्यमतवाले कहते है, कि जैनधर्मवाले सृष्टिकर्त्ता ईश्व रकों न मानते हैं, इससे नास्तिक है, सो जैनी लोक ईश्वर मानते हैं या नहिं,
—-
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जो जैनधर्मकों नास्तिककहतें हैं सो नास्तिक हो सक्ते हैं ( क्यूंकि ) सर्वमतवाले अन्य अन्य प्रमाणसें अन्य ईश्वरकृत लोकरचना कहेतें हैं, ( परन्तु ) सत्यप्रमाण से कोई ईश्वरकी करी सृष्टि सिद्ध नहिं हो सक्ती है ( विचारना चाहिये ) लोकरचना तो एक, (और) ब्रह्मा विष्णु महेश्वरादिक, ईश्वर रचनेवाले बहुत हुए, इससे एकेक मतसें, एकैका मत झूठा होतां, सब झूठे हुवे (और) यही बात अंत में सिद्ध हुई, कि जगतचना अनादि है, इससे जगत्कर्त्ता ईश्वर कोई नहिं (और) जो ईश्वर नाम धारके राग, द्वेषमें, मन होकर रातदिन जगत् विटंबणा में फस रहे हैं, आपस मे लडरहे हैं, (तथा) अठारे दूषणों करके सहित हैं, इसमाफक चरित्र करनेवालों कों जैनवाले देवगतिमें मानते हैं, (और) जो ईश्वर, अनन्त अपना आत्मगुणांमें मन हैं, तथा, शांतिस्वरूपधारक हैं, रागद्वेषादिक अठारे दूषणरहित हैं, लोकालोक त्रिकाल विषयपदार्थोंकों जाणनेवाले हैं, संसारमें आवागमनरहित, हमेशां सिद्धिस्थान में विराजमान हैं, ऐसा ईश्वरकों जैनधर्मवाले ईश्वर मानतें हैं,
प्रश्नः -- यदि जैनधर्मवाले ईश्वर मानते हैं, सो ईश्वर के कितने नाम हैं,
उत्तर - अनंतकाल में, अनंते तीर्थकर परमात्मगुण पायके सि
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। २४ नाम, रत्नसागर प्रणयुक्त नाम १०
૫૮૮ द्धिस्थानकको प्राप्त हुए हैं, इस अपेक्षायें तो अनंत नाम हैं, (परन्तु) सर्वके गुणकी तुल्यतापणे समुच्चय, सत्यार्थ गुणयुक्त नाम १००८ हैं, सो हजार नामको स्तोत्र, रत्नसागर प्रथमभागमें लिखा है, (फेर ) समुच्चय २४ नाम जैन ईश्वरका हेमकोशादिक ग्रंथमें प्रसिद्ध है ( यथा) अर्हन् १ जिना २ पारगत ३ स्त्रिकालवित् ४ क्षीणाष्टकर्मा ५ परमेष्ट्य ६ धीश्वरः ७ शंभुः ८ स्वयंभु ९ भंगवान् १० जगत्प्रभु ११ स्तीर्थंकर १२ स्तीर्थकर १३ जिनेश्वरः १४ ॥१॥ स्याद्वाद्य १५ भयदः १६ सर्वाः १७ सर्वज्ञः १८ सर्वदर्शि १९ कैवलीनौ २० देवाधिदेव २१ बोधिदः २२ पुरुषोत्तम २३ वीतराग २४ आप्ता ॥२॥
प्रश्न: जैनलोक अनादि अनन्तकालमें एक ईश्वर मानते हैं (वा) अनन्त ईश्वर मानते हैं,
उत्तर-एकभी मानते हैं (और) अनेक भी मानते हैं, प्रश्न:-एक केसें मानतें हैं,
उत्तर-रागद्वेषरहित, परमात्मगुण, अक्षयसुखसंपदा, भाव सबके तुल्य होनेसें एक ईश्वरगुणयुक्त नाम मानतें हैं,
प्रश्न:- अनेक केसें मानते हैं,
उत्तर-द्रव्य, क्षेत्र, कालभावकी, अपेक्षायें अनन्त सिद्ध भए, इससे अनन्त ईश्वर मानते हैं,
प्रश्न: जैनलोक कालचक्रका खरूप किसतरे मानते हैं,
उत्तर-कालचक्रका दो भेद मानते हैं, १ अवसर्पणी काल २ उत्सर्पणी काल,
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५८९ प्रश्न:-अवसर्पणी काल किसकों कहेते हैं (और) इसका क्या प्रमाण है, कितना भेद है,
उत्तर-दसक्रोडाकोड सागरोपमको अवसर्पणी काल होता है, इसका छ हिस्सा है, अर्थात्, जिसकों जैनी छ आरे कहते हैं इस कालके छ आरोंमें अच्छी वस्तुवोंकी दिनदिन हानी होती चली जाती हैं,
प्रश्नः-उत्सर्पिणी काल किसकों कहेतें हैं, (और) क्या स्वरूप है, कितना प्रमाण है,
उत्तर-दश क्रोडाक्रोडी सागरोपमका एक उत्सर्पिणी काल होता है इसकाभी छ आरा है, इस कालके छ हिस्सोंमें दिनदिन अच्छी वस्तुवोंकी वृद्धि होती है, (तथा) एक सागरोपममें असं. ख्याता वर्ष होता है, (जब) उत्सपेणी काल उतरे, तब अवसणी कालसरू होवे (और जब) अवसर्पणी काल उतरे तव उत्सर्पणी काल सरू होवे, ऐसें वीस क्रोडाक्रोड सागरोपम प्रमाणे एक कालचक्र होता है, अतीतकालमें, ऐसे कालचक्र अनंते व्यतीत होगए, (और) भविष्यतमें अनंते व्यतीस होवेंगें, (इसीमाफक) अनादि अनन्त कालतक इस जगत्रकी चढाव उतार व्यवस्था चलती रही ओर रहेगी,
प्रश्नः-अवसर्पणी उत्सर्पणी. कालके, ६ आरोंका क्या नाम हैं, (और) क्या स्वरूप है, कितना प्रमाण है,
उत्तर-अवसर्पणी कालमें पहला आरा, सुखमसुखमाचारक्रोडाक्रोडसागरोपमप्रमाण होता है, (इसकालमें) भरत
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५९०
क्षेत्रकी जमीन अत्यन्त सुन्दर बहुत रमणीक सोनेके थाल समान बराबर थी (और) इसमें मनुष्य तथा सर्व जीव जानवर बडे सरलखभावी अल्प काम क्रोध मोह राग द्वेषवाले होते थे (प्रायें) नीरोग सरीर सुंदर रूपवान होते थे, दश जातिके कल्पवृक्षोंसें, अपने खानेपीने वस्त्र घरादिकका सब मनोरथ पूरण करते थे, (और) एक लडका एक लडकी दोनुका युगल जन्मते थे (और युगल पुरुष स्त्रीरूपसे जन्मते थे वैसाहि उनोंके आपसमे संबंध होता था, और यह युगल धर्म अनादिसें हैं, इसलिये वह जब वे युवान अवस्थाकों प्राप्त होते थे (तब ) युगल जनमे हुवे, आपसमें स्त्री भरतारका संबंध करलेते थे, अर्थात् युगलियोमें साथमे जनमे हुवाका भाई बेनका संबन्ध न होणेसें, स्त्री पुरुषकाहि संबन्ध होता था, जैनमतके प्रमाणसें तीनकोस प्रमाण जिनोंका शरीर होता था (और) तीन पल्योपम प्रमाण आऊखा होता था, जिनोंके दोयसै छपन्न पृष्ट करंडके हाड होते थे, गुण पचासदिनतक अपना पुत्रादिककी पालना करते थे, जीवहिंसा, झूठ, चोरी आदिक पापकर्म विशेष नहिं करते थे, तीसरे दिन पीछे मटरकी दाल प्रमाण आहार करते थे, कल्पवृक्षोंहीमें सोरहते थे, युगल जोडे पिणगिणतीमें, (शेष) चतुस्पाद, पक्षी, पंचेंद्रियादि सर्व जातके जीव थे, परन्तु सर्व क्षुद्र नहीं थे, सरलस्वभावी थे, इक्षुप्रमुख सर्व रसाल वनोंमें आपसेंही उत्पन्न होते थे, (परन्तु ) मनुष्योंके भोगमें नहिं आते थे, (निकेवल) उस कालके मनुष्य कल्पवृक्षोंके दियेहुवे फल फूलोंका आहार करते थे, वस्त्र आभूषण पहनते थे, (इत्यादि) अवसर्पणी का
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५११
का पहेला और उत्सर्पिणीका छठा आराकी समान मर्यादा कही, अब दूसरो सुखमा नामें आरो, ये तीन क्रोडाक्रोड सागरोपम प्रमाणका था, इसमें मनुष्यतिर्यचका दो पल्योपमका आऊखा, (और) दो कोशका शरीर था, बोरप्रमाणें दोदिन पीछे आहार करे, १२८ पांसली थी, (और) ६४ दिनपर्यन्त अपना पुत्र युगलकी पालना करे, कल्पवृक्ष सब प्रकारका मनोरथ पूरण करे, अन्तमें मरके देवगति जावे, (यह ) अवसर्पणी कालका दूसरा आरा, (और) उत्सर्पणीका पांचमा आएकी मर्यादा कही ॥ २ ॥ तीसरो, सुखमदुखमानामें आरो, दो क्रोडाक्रोडसागरोपमप्र माणें ( इसमें ) मनुष्य तिर्यंचका एक पल्योपमका आयु, (तथा) एक कोशको शरीर होय, एकान्तरे आमलाप्रमाणे आहार करे, ६४ पांशुल हुवे ७९ दिनतक अपना युगल पुत्रादिककी पालना करे, कल्पवृक्ष सर्व मनोरथ पूरण करे, सरलपणासें मरके देवगतिकों प्राप्त होवे, (यह ) अवसर्पिणीका तीसरा आरा ( और ) उत्सर्पणीका चौथा आराकी मर्यादा कही ॥ ३ ॥ ( चोथा ) दुखम सुखमा नामें आरा, ४२ हजारवर्ष ऊणा, एक क्रोडाक्रोड सागरोपम प्रमाणें (इसमें ) मनुष्य, तिर्यचका, उत्कृष्टा एक पूर्व क्रोड वर्षका आयु, (तथा) पांच धनुष्यप्रमाणें शरीर होवे, नित्य भोजन करे, (इसमें ) युगलिया न होय, सर्व संसारी असिमसीकसी आजीवका कर्मका करनेवाला होय, ( इससे ) केई जीव, देवता मनुष्य तिर्यंच नारकी, ए चारुंहिगति जाणेंवाले होय, और केई जीव सर्व कर्म खपायके पांचमी मोक्षगतिकोंभी प्राप्त होवे, ( यहां )
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अवसर्पिणीका चोथा आरा (और) उत्सर्पणीका तीसरा आराकी मर्यादा कही || ४ || ( पांचमो ) दुःखमा आरो, इकवीस हजार वर्षप्रमाणें (इसमें ) मनुष्योंको उत्कृष्टो सात हाथप्रमाणें सरीर (और) १३० वर्षप्रमाणें आऊखो होय, (मरके) चारेइ गतिमें जावे (परंतु ) सर्वकर्म खपायके कोई मोक्ष न जावे, (यह ) अवसर्पिणी कालका पांचमा आरा, (और) उत्सर्पिणीका दूसरा आराकी मर्यादा कही ॥ ५ ॥ (छट्टो ) दुखमदुखमा नामें आरो, २१ हज्जार वर्षाप्रमाणें (इसमें ) मनुष्योंको उत्कृष्टो २० वर्षको आयु, ( तथा ) १ हाथको शरीर वैताढ्य पर्वतादिकका विलांमें रहनेवाले होय, धर्मकर्म करके रहित होय, सर्व, मनुष्य, क्रूरकर्मी, न्यायमार्गरहित, मरके प्रायै नरकनिगोदादि दुर्गतिमें जावे, यह, अवसपिंणी कालका छट्टा आरा (और) उत्सर्पिणीका पहेला आराकी मर्यादा कही || ६ || इसतरे अवसर्पणी उत्सर्पिणीका ६ आराकी मर्यादा जैन सिद्धान्तों में कही है,
--
प्रश्नः - ६ आरेरूप अवसर्पणी (वा) उत्सर्पणी कालमें, कितने २ परमात्मा ज्ञानगुणयुक्त, जैनधर्म में मुख्य, चतुर्विध संघ स्थापन करनेवाले तीर्थंकर होते हैं,
उत्तर- छ आरे रूप एकेक कालमे, २४ चौवीस तीर्थंकर भगवान् होते हैं,
प्रश्नः - अभी प्रचलित कौनसा काल तथा कौनसा आरा है, उत्तर - अभी अवसर्पिणी कालका पांचमा आरा है, प्रश्नः - ये अवसर्पणी कालका कौनसा आरातक युगलिया
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५९३ मनुष्य होता रहा (फेर) कौनसै प्रकारसें संसार संबन्धी नीति मर्यादा प्रवर्तन भई,
उत्तर-अवसर्पणी कालका तीसरा आरा, बहुतसा व्यतीत होनेतक तो, असिमसिकर्मादिक रहित युगलिया मनुष्य, तिर्यच होता रहा (इस उपरांत) दक्षण भरताध मध्यखंडमें, सातकुलकर एक वंशमें उत्पन्न भए, कुलकर उसको कहते हैं, (कि) जिणोंने तिस तिसकाल मुजब, मनुष्योंके वास्ते नीतिमर्यादा बान्धी है, (और) पाठा फेरसें सप्तमनु कहेतें हैं, जंबूद्वीप पन्नतीके मतसें १५ कुलकर भी कहे हैं, इनोंसे मनुष्योंकी राजनीति आदि कितनीक नीतियें मनुष्य योग्य सामान्य मर्यादा बान्धी गई है, विशेष मनुष्योंकी मर्यादा प्रथम तीर्थपतिके आधीन है, वैही सर्वदा कालमे प्रवर्तते है,
प्रश्नः-किस प्रकारसे कुलकर उत्पन्न भये, (और) क्या क्या नीतिमर्यादा प्रवर्तन भई,
उत्तर-तीसरे आरे उतरतां, दशजातिके कल्पवृक्ष हीयमान कालके सबब अल्प फल देनेवालें, रहगए, (तब) युगलक लोकोने अपनें अपनें वृक्षोंका ममत्वकर लिया, जो कोई युगल, दूसरेका कल्पवृक्षके पास फलादिक कुछ मांगे तो आपसमें क्लेश करे, (इसवास्ते) युगल पुरुषों के दिलमें विचार आया, (कि) कोई ऐसा पुरुष होय, सो सर्वका न्याय करे, इसीसमें एक युगलकों, एक बनके श्वेत हस्तीनें देखकर, अत्यंत प्रेमसें अपने स्कंधपर चढालिया (जब) युगल हाथीपर बैठा थका वनमें फिरने लगा, (तब) और युगल लोकोनें विचारा, यह युगल सर्वमें बड़ा है, सो हाथीपर
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चढा हुवा फिरता है, (इसवास्ते, इसकों अपना राजा न्यायाधीश बनाओ, ऐसा विचारके युगललोकोंने न्यायाधीशपणें स्थापन किया, इसका विमलवाहन नाम हूवा ( इसके ) चन्द्रयशा नामें भार्या हुई, ( इसनें ) सर्व युगल लोकोंकों, जूदा जूदा कल्पवृक्ष बांटके दे दीये (जब ) कोई संतोषरहित युगलिया, दूसरेके कल्पवृक्षसे कुछ मांगता तो दूसरा क्लेश करता हूवा उसको साथ लेके राजाके पास आता ( तब ) विमलवाहन (हा) तुमनें यह क्या काम किया, ऐसी हकारकी दंडनीति करता इससे अपराधी युगल डर जाता था ( सो फेर ) वैसा काम कभी न करता था इस प्रथम कुलकरका देहमान ९०० धनुषका हुवा (सो) युगल ( तथा ) हस्ती पिछले भवमें पश्चिममहाविदेहक्षेत्र में वाणियापणें दोनुं भाइ हुए थे, ( जिसमें ) एक तो सरल था (और) दूसरा कपटी था ( परन्तु ) आपस में स्नेह बहुतथा, कपटी जो कहेता (सो) सरल मानलेता था, अन्तमें सरल भाई मरके युगल मनुष्य हूवा (और) कपटी मरके हाथी हूवा ( इससे ) एकेक को देखनेंसें ईहापोह करतां जातिस्मरण ग्यानकों प्राप्त हुवा, ( तब ) स्नेहवस होकर हाथीनें भाईकों स्कंधेपर चढालिया, इसका विस्तारसंबन्ध आवश्यक सूत्र बृहद्वृत्तिसें जाणलेना, ( इति प्रथम कुलकर संबन्ध ) ॥ १ ॥ दूसरा कुलकर, विमलवाहनका पुत्र चक्षुस्मान् नामें कुलकर हूवा (तिसके) चन्द्रकांता नामे भार्या हूई (और) ८०० धनुषप्रमाण देहमान हूवा, इसके पिण पूर्ववत् हकारकी दंडनीति रही ॥ २ ॥ इति ॥ ( तीसरा ) यशोमान नामें कुलकर हूवा ( जिसके सरूपा
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नामें भार्या हुई) (और) ७०० धनुषका देहमान हुवा, इसके थोडे अपराधमें हकारकी, विशेष अपराधमें (मा) ऐसा काम मत करो, ऐसी दूसरी मकारकी दंडनीति हुई, इससे सर्व युगल बहुत डरने लगे ॥३॥ इति ॥ (चोंथा) अभिचन्द्रनामें कुलकर हूवा (जिसके) प्रतिरूपा नामें भार्या हुई (और) ६५० धनुषप्रमाण देहमान हूवा, इसके पिण हकार, मकार, की दंडनीति रही ॥ ४ ॥ इति ॥ (पांचमा) प्रशेनजित् नामें कुलकर हूवा, (जिसके ) चक्षुसती नामें भार्या हुई, (और) ६०० धनुषप्रमाण शरीर हूवा, इसके सामान्यपणासें हकार, मकारकी दंडनीति रही, (और) विशेष अपराधीको धिक्कारकी दंडनीति करी, जिसको धिक्कार कहे देता, सो युगल जाणता मेरा सर्वस्व हरलिया ॥५॥ इति ॥ छट्ठा मरुदेव नामें कुलकर हूवा, (इसके) श्रीकांता नामें भार्या हुई, इसका ५५० धनुषप्रमाणे शरीर हूवा, इसकी वखतमें तीनुं दंडनीति रही ॥६॥ इति ॥ सातमा नाभिनामें कुलकर हवा, ( इसके) मरुदेवी नामें भार्या हुई, इसका ५२५ धनुषका देहमान हूबा, इसकी वखतमें जघन्य अपराधीकों, हकार, कांइंक विशेष अपराधीकों, मकार, (और) उत्कृष्ट अपराधीकों, धिक्कार, इसीतरे तीनुं दंडनीति रही, (तथापि ) दिन दिन हीन कालके सबब असंतोषी युगल बहुत होने लगे, बहुतसे अपराध करने लगे, तीचं दंडनीतिका भय नहिं मानणें लगे, (इस वखतमें ) नाभिकुलकरके, मरुदेवी भार्याकी कूखसें, चवदे स्वम सूचित श्रीऋषभदेव कुमार पुत्रपणे उत्पन्न हूवे, (ये) श्रीऋषभ देवकुमर कोडों देवतावोंके पूजनीक हूवे, (और) युवान अवस्थामें राज्यपदकों धारण करके
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संपूर्ण पुरुष, स्त्रीयोंकी कला (तथा) राज्यनीति ! धर्मनीति आदिasों प्रवर्त्तन करनेवाले, प्रजापति, महादेव, ब्रह्मादि अनेक नामधारक, प्रथम ईश्वर, इसकाल में इस पृथिवीपर येही हवे हैं ( इसीतरे ) सातकुल कर हूवे,
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प्रश्नः - श्री ऋषभदेव स्वामी कहांसे आयके, मरुदेवी माता की कूखमें उत्पन्न भए (और) कोण प्रकारसे देवताओंके पूजनीक, संपूर्ण कलाकों (तथा) धर्मनीतिकों प्रवर्त्तन करनेवाले प्रथम ईश्वर भए || उत्तर - ५२ बोलगर्भित श्रीऋषभदेव स्वामी के अधिकारसें जाणना, वह श्री ऋषभदेव स्वामीका अधिकार इसी ग्रन्थके पूर्वार्ध में दीया है, सो वहांसे देखना, नमोस्तु भगवते श्रीपार्श्वनाथाय समस्तविमव्यूहखंडनाय नमो नमः श्रीस्तंभणपार्श्वनाथाय नमोस्तु भगवते श्रमणवर्द्धमान महावीराय कर्महस्तिविदारणे सिंघाय, नमोस्तु त्रिपद्ये द्वादशांगबीजरूपायै नमोस्तु श्रीसुधर्मादिसर्व अनुयोगधरेभ्यः, नमोस्तु श्रुताय नमोस्तु श्रुतदैवतायै नमोस्तु संघभट्टारकाय अपडिवाई गुणधारकाय, श्रमण संघाय नमः नमोस्तु सम्यक् दर्शनादिचतुष्केभ्यः, नमोस्तु विनयादि सर्वसद्गुणेभ्यः इति श्रीखरतर सबिरुदालंकृते कोटिकाख्ये गच्छे श्रीजिनकीर्त्तिरत्नसूरिशाखायां क्रमात् तत्परंपरायां वरीवर्त्तति श्रीमजिनकृपाचन्द्रसूरयस्तेषामंतेवासी ज्येष्ठः समभवत्, विद्वच्छिरोमणिः श्रीमदानंदमुनिः तत् संगृहीते तस्याऽनुजेन उपाध्यायश्रीजय सागरेण संस्का ते श्रीजंगमयुगप्रधान श्री मज्जिनदत्तसूरीश्वरचरिते श्रीमजिनचन्द्रसूलश्वरादितत्संतान चरित्रवर्णनो नाम नवमः सर्गः समाप्तः ॥
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