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उपाध्यायकाः॥ श्रीसिद्धान्तसुपाठका मुनिवराः रत्नत्रयाराधकाः पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मंगलम् ॥१॥ यह नवीन काव्य बनाके उपदेशदिया, तबसमस्त जैनसंघ श्रीगुरुमहाराजको व्याख्यानसुनकरके बहोत प्रसन्नभए तिहां गुरुमहाराजकों बालधवलकूर्चालसरखती विरुद संघनेदीया, अन्यथा प्रथम पूर्वाचार्यरचित श्लोकका प्रायेंकरके मंगलाचरण व्याख्यान करतेथे, तथाहि सकलकुशलवल्ली पुष्करावर्त्तमेघो दुरिततिमिरभानुः कल्पवृक्षोपमानं भवजलनिधियोतः सर्वसंपत्तिहेतुः स भवतु सततं वः श्रेयसे पाश्वेदेवः, वादमें ऊपरोक्त श्लोकसें मंगलाचरण व्याख्यानका रिवाजभया। इसमाफक श्रीवीरशासन प्रभावक श्रीजिनपद्मसूरिजी संवत् १४०० वैशाख शुदि १४ चवदशके रोज अणसण आराधना पूर्वक समाधिसे कालधर्म प्राप्त होकर पाटण नगरमें स्वर्गगए ॥५१॥ तत्पट्टे ५२ मा श्रीजिनलब्धिसूरिजीभए, पाटण नगरके बसनेवाले, नवलखा गोत्रीय, साहईश्वरदास. नंदीमहोत्सवकरा, तरुणप्रभाचार्ये सरिमंत्रदिया, अनुक्रमें गुरुमहाराज सर्व सिद्धान्तसिरोमणि, अष्टविधान साधकभए, तिके संवत् १४०६ नागपुर नगरमें स्वर्ग गए ॥५२ ॥ तत्पट्टे ५३ मा श्रीजिनचन्द्रसूरिजिभए, तिकेसंवत् १४०६ माघसुदि १० दशमीके रोज नागपुरनिवासी श्रीमालसाह हाथीने नंदीमहोत्सवसहितपदस्थापनाकरी, तरुणप्रभाचार्य सूरिमंत्रदिया, ऐसे श्रीजिनचन्द्रसूरिजी संवत् १४१५ आषाढवदि १३ त्रयोदशीके रोज स्तंभनतीर्थविषे स्वर्ग गए ॥ ५३॥ तत्पट्टे ५४ मा श्रीजिनोदयसरिजी भए, तिके पाल्हनपुर वसनेवाले, मालूगोत्रीय, साहरूंदपालपिता,
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