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धारलदेवीमाता, संवत् १३७५ जन्म, समरो ऐसामूलनाम, संवत् १४१५ आषाढसुदि २ दूजके दिन, स्तंभनतीर्थके विषे लूणीया गोत्रीय साहजेशलकृत नंदीमहोत्सव करके श्रीतरुणप्रभाचार्य पदस्थापनाकरी, तहां स्तंभनतीर्थक विषे श्रीअजितनाथजीके मंदिरकी प्रतिष्ठाकरी, तथा शचुंजयकी यात्राकरके उहां पांच प्रतिष्ठाकरी, इसमाफक धार्मिककृत्योंको उपदेशद्वारा साधते हुवे, सम्यक्साध्याचारको पालते हुवे, और पांचतिथिमें निरंतर उपवास करनेवाले भये, फेर १२ बारे गामकेविष अमारिपडहवजडानेवाले २८ अठावीस साधुवोंके परवारकरके, अनेकदेशोंमें विहारकरके, श्रीजिनोदयसरिजी संवत् १४३२ भादवावदि ११ एकादशीके रोज अणशण आराधना पूर्वकसमाधिसें पाटणनगरमें स्वर्ग गए ॥ तिनोंके बारे संवत् १४२२ के शालमें वेगडखरतरशाखानिकली ॥ ५४॥ श्रीजिनोदयसूरिके पट्टे ५५ मा श्रीजिनराजमूरिजीभए, तिके संवत् १४३२ फागुण वदि ६ छटके दिन, पाटणनगमें साह धरणने नंदी महोत्सव किया सूरिपदकों प्राप्तभए, तब गुरुमहाराज सवालक्ष प्रमाणे न्यायग्रन्थ पढे, और सर्वसिद्धान्तके पारंगामी भए, ऐसेगुरुमहाराज संवत् १४६१ देवलवाडानगरमें स्वर्ग गए ॥ ५५ ॥ तत्पट्टे ५६ मा श्रीजिनभद्रसूरिजी युगप्रधानभए, तत्प्रबंधो यथा, प्रथम संवत् १४६१ श्रीसागरचंद्राचार्य, श्रीजिनराजसरिजीके पट्टे श्रीजिनवर्द्धनमरिजीको स्थापनकीएथे, तिके एकदा जेशलमेरगढमें श्रीचिंतामणिपार्श्वनाथजीके पासमेंरही क्षेत्रपालकीमूर्ति देखके खामीसेवक का बरावर बेठना अयुक्तहै, एसा विचारकरके क्षेत्रपालकी
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