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तत्वकों नमनकर, से, सद्गुरु पाय ॥ देवी भगवती सानिधे, वचन अमृतरसथाय ॥ १ ॥ चौरासीलक्षजोनिमें, जे रह्या जीव अनन्त, ॥ मोहमिथ्यात्वमें पड्या, पायो दुःख नही अन्त ॥ २॥ परमदेव परमातमा, चिदानन्द गुणचंग ॥ भव्यजीवके हितभणी, भेद कह्या सहु अंग ॥३॥ गणधर गौतमआदिसहु, रचियां अंग अनूप ॥ त्रिकरणहूं प्रणमुं सदा, ज्ञानआतम गुण भूप ॥४॥ आचारज उवझायमुनि, भगवन वचन उपेत ॥ भाष्यटीका नियुक्तिकर, प्रगट किया संकेत ॥५॥ भगवतीसूत्रमाह कह्या, आगमना पंचअंग ॥ सरधेजेभविप्राणिया, पामें नित उछरंग ॥६॥ जयवंता. वरतो सदा, सहु जगपंडवज्ञान ॥ पिणउपगारी भव्यकों, ए श्रुत ज्ञानप्रधान ।। ७ ।। दुष्टकर्म संयोगसें, चितबैठे नहीं ज्ञान, पिणजाणुं सुरतरुसमो, एहीजधर्मप्रधान ॥८॥ प्रबल भाग्यसंयोगसें, पारशदरसण पाय । पारश फरयां लोह सहु, गुण कंचन समथाय ॥९॥ पारस प्रभुके नामसें, सहु संकट मिट जाय, ईति उपद्रव भय टले, श्रीजयगुण प्रगटाय ॥ १० ॥ जिनदरसण मुझमनवस्यो, जे प्रगटे चित आय ॥ कर्म शत्रुदलजीपके, शिवरमणी वरुं जाय ॥ ११ ॥ शिवपुर जोवा कारणे, समकित दृढ हेत ॥ बालअज्ञ श्रीजयभणी, श्रीपितामह गुणदेत ॥ १२ ॥ जबलगमेरुअडिग्ग हैं, जबलग शशिअर सूर । तबलग यह पुस्तकसदा, रहजो गुण भरपूर ॥ १३॥ पोथीप्यारी प्राणथी, गलेहियाकोहार ।। बहुत यतनकर राखज्यो, पोथीसेतीप्यार ॥ ऐसी हमारी आशा सफलकरज्योसही ॥ १४ ॥ अथ लेखकः संक्षिप्तरीत्या स्वकुलं दर्शयति, विकहीमाहरोकुल
३७ दत्तसूरि०
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