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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३२ फेलति हूइ उत्सूत्र प्ररूपणादिकविशेषपरिणति जाणके मरुभूमिमेंरहे हूवे युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसरिजी विहारक्रमसें विचरते हुवे गुर्जर देश अणहिल्लपुरपाटण नगरमें पधारे, तब पूर्वोक्त प्रकारसें, धर्मसागरगणिका दियाहूवा, कूडाकलंक, उत्सूत्रादिकदोष दे. खके, सभासमक्ष शास्त्रार्थ धर्मसागरगणिसें किया, और उसको शास्त्रार्थमें जीता, निर्णयार्थ अन्तिमसभामे धर्मसागरकों बुलाया, तब आया नहिं, जब धर्मसागर निर्णयार्थ अंतिम सभामें नहिं आया, तब सर्व गच्छवासी और मतवासीयोंनें, सहीकरीकि शास्त्रदेखतां श्रीजिनचन्द्रसरिजीका कहनासत्यहै, और उ० धर्मसागरगणिकाकहे ना झूठाहै, इसतरे निर्णयहूवा सहीपट्टक समाचारीशतकग्रन्थमें और जेशलमेरादिज्ञानभंडारोंमे हाल मोजूद है, वादमें इसतरेका निर्णयहूवा देखके, तपगच्छाधीश श्रीविजयदानसरिजीये पण अपणे गच्छकी सुस्थितप्ररूपणादिक मर्यादा रखणेकेवास्ते, उत्सूत्रकंदकुहाल कुमतिकंदकुद्दालादिकग्रन्थ जलशरण किये, और विजयदानसूरिजीनें उत्सूत्रवादी निन्हवजाणके, धर्मसागरकों अपणे गच्छबाहिरकिया, प्रथम बहुतवेर नर्म गर्म होके, खानगी आचार्यश्रीनें इनकों समजायाथा, परन्तु नहिं माना, और उद्धताईसें उत्सूत्रादि प्रवृत्ति करते रहे, जिस्का आखिरमें यह परिणाम आया, कि गच्छबाहिर होनापडा, और तीनपीढीतक गच्छबाहिररहै, अर्थात् विजयदान सूरिजी १ विजयहीरसरिजी २ विजयसेनसरि ३ तक गच्छ बाहिर रहै, फेरखरतरगच्छमे प्रवेश करणे केलिये, नाइवगेरा उपाय बहुतसे किये, परन्तु खरतरगच्छवालोंने अपनें गच्छमे लिया नहिं, For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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