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अन्निहिविगुणिहि संपुन्नतणु । दीणदुहिय उद्धरणु धर, जिणदत्तसूरि पर पल्ह भणु तत्तवंत सलहियइ धर ॥ ९ ॥ वक्खाणियइ न परमतत्तु जिणपाउपणासइ । आराहियइ न वीरनाहु कइपल्हुपयासइ धमु त दय संजत्तु जेण वरगइ पाविजइ । चाउ त अणखंडियउ जु वंदिणु सलहि ब्बइ । जइ ठाइ उत्तिममुणि वरह वि ॥ पवरवसहिं हो चउरनर । तिम सुगुरुसिरोमणि सूरिवर खरतर सिरिजिणदत्तवर ॥ १० ॥ इति श्री पट्टावली संवत् ११७१ वर्षे पत्तनमहानगरे श्रीजयसिंहदेवविजयिराज्ये श्रीखरतरगच्छे योगीन्द्रयुगप्रधानवसतिवासिश्रीजिनदत्तसूरीणां शिष्येण ब्रह्मचन्द्रगणिना लिखिता शुभं भवतु, श्रीमत्पार्श्वनाथाय नमः सिद्धिरस्तु ॥
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