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होनेपर हि एक्यता कहिजावे एकशट्टस प्ररूपणादि होनेपर क्या विसंवादका कारण है, सो मालूम होना चाहिये और मैत्री मध्यस्थ भावना होकर कहता हूं सत्संप्रदायपूर्वक सत्यासत्यका विचार करण चाहिये गच्छादिककी अशुद्ध प्रवृत्ति प्ररूपणा कदाग्रहका त्यागकर, गच्छोंकी मर्यादा शुद्धाचरणा करणी चाहिये, यहहि गच्छोंकी भक्ति बहुमानकहेलाता है, इसीतरे करणा यह खास गच्छवासीयोंका कर्त्तव्य है, इसीतरे करणेवाले श्रीउद्योतन सूरिजी के संतानीय चतुरशीतिगच्छोंके गुण विशिष्ट शुद्ध प्ररूपक स हि गच्छवासी आचार्यमहाराजों को मेरा नमस्कार है, परन्तु अशुद्ध प्ररूपणा करनेवाले और अशुद्ध प्ररूपणाकों सर्वत्र फेलाणेवाले तपोटमतियां तो सदाही दूर रहेणा श्रेयकारीहै, इत्याशासहे और इसविषयमें बोलादिकभी इसतरे है, गृहस्थ प्रतिष्ठितचैत्य चांदवा योग्यनहिं १ कदाच साधु प्रतिष्ठित चैत्य होय तो वांदीशकाय २ पचाश वर्ष पहिलां पंन्यासपद आपको नहिं ३ पट्टधराचार्यनी आज्ञामां चतुर्विधसंघ रहे ४ पट्टधराचार्यनी आज्ञाविना कोई भी विशेष धर्मकृत्य थइ शके नहिं ५ गीतार्थाचार्य विना चउकरणी अथवा अष्टकरणी भवालोयणादिक देह शके नहिं ६ प्रतिष्ठा अंजनशलाकादिक आचार्यकरे ७ सिद्धान्ताध्ययन योगोपधानं प्रायश्चित्तादिक आचार्यादि गीतार्थ करावे ८ मिध्यादृष्टि गृहस्थ श्रमणोपाशक संन्यास्यादिकथी भणवो नहिं ९ खस्ववर्गमां स्त्रीपुरुषे धर्म देशना - करवी १० अविनीत विगई प्रतिबद्ध उत्कटकषायी अगीतार्थादिकनें गच्छनो भार या संघाडानो भार आपको नहिं ११ आगमाचरणा
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