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लखमी वर देकर, श्रावककुल सोधे ॥ ज० ॥२॥ विद्यापुस्तक घर कर सद्गुरू, मुगलपूत तारे । वस कर जोगनी चौसठ, पांच पीर सारे ॥ ज० ॥३॥ बीजपडती वारी सद्गुरू, समंदर जहाज तारी । वीर किये बस बावन, प्रगटे अवतारी ॥ ज० ॥४॥ जिनदत्त जिनचंद कुशल सूरि गुरू, खरतरगच्छ राजा । चोरासी गच्छ पूजे, मन वांछित ताजा ॥ ज० ॥५॥ मन शुद्ध आरती कष्टनिवारण, सद्गुरुकी कीजे । जो मांगे सो पावे, जगमें जस लीजे ॥ ज० ॥ ६ ॥ विक्रमपुरमें भगत तुमारो, मंत्र कलाधारी । नित उठ ध्यान लगावत, मनवांछित फळ पावत, राम ऋद्धिसारी ॥ ज० ॥७॥ इति पदम् ॥
"अथ शुद्धलोकोत्तरधर्मस्य खरूपं प्रश्नोत्तरैर्निरूप्यते
यं प्राप्य सकर्माजीवाः मुच्यते ॥" प्रश्न:-जैनधर्म कबसे प्रसिद्ध हवा, उत्तर-जैनधर्म अनादिकालसें प्रसिद्ध है, प्रश्न: जैनलोक जगत्का स्वरूप किसतरे मानते हैं,
उत्तर-द्रव्यार्थिकनयके मतसें जैनलोक जगत्का स्वरूप शा. श्वता, हमेशां प्रवाहसें ऐसाही मानते हैं, अनादिकालसें भरत ऐरवत क्षेत्रापेक्ष उत्कृष्ट हीनकालमुजब चढाव उतार स्वरूप चला आता है, अपर क्षेत्रापेक्षसदृश चलता है, कोई इस संसारकी सृष्टिकी रचना करनेवालेकों जैनी लोक नहीं मानते हैं,
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