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राज यात्रा के वास्ते देराउर गए, तिहां गुरुदर्शन करके जेशलमेर पीछा आते वखतमें गुरुमहाराजकों मार्ग में जलाभावसें तृषापरिषह बोहोत उत्पन्न भया, परन्तु जल रातको मिला नहिं लिया, उसी ठिकाणें तृषापरिषह अछीतरे सहके अणशणआराधना करके: सुकृतकी अनुमोदना दुष्कृतकी निंदा करते हुवे, सर्व संवर चारित्र तपादिकका ध्यान करते हूवे, परमसमता समाधिपूर्वक शुभध्यानध्याते हूवे श्रीगुरुमहाराज संवत् १६१२ आषाढसुदि पंचमी के दिन कालधर्म प्राप्त होकर स्वर्ग गए, ॥ ६० ॥ इति श्रीमजिनकीर्त्ति - रत्नसूरिशाखायां तत्परम्परायां च क्रमात्, श्रीमज्जिन कीर्त्तिरि ऊर्फे श्रीमञ्जिनकृपाचन्द्रसूरिशिष्यपंडित शिरोमणि श्रीमदानंद मुनिसंकलिते लोकभापोपनिबद्धेच, तल्लघुगुरुभ्रातृउपाध्याय श्रीजयसागरगणिना संस्कारिते युगप्रधान श्रीमजिनदत्तसूरिचरिते श्रीमजिनचन्द्रसूर्यादिश्रीमजिन माणिक्यसूरिपर्यवसानश्रीमज्जिनदत्तनूरिसन्तानप्रासंगिकमतादिखरूपवर्णनो नामसप्तमः सर्गः ॥
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