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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२४ इसढुंपक मतका उत्थान हूवाहै, वादमें गछाधिपतिने श्रीसाधुरत्नमरि ऊपर समाचार लिखे तब श्रीसाधुरत्नसूरिजीने श्रीपार्श्वचन्द्रजीसै नाराज होकर जब उपालंभदिया, तब श्रीसाधुरत्नसूरिजीके समीपसें कुछ मानसिक विचारकर निकला निकलके पृथक विचरणें लगा तिस अवसरमें प्रायश्चित्त निमित्त विशेष गछपति और गुरुने दबाणकरा, मारवाड जोधपुरका शरणालिया, वादमें इनोंको गुरु और गछपतिने अपनें गछबाहिर करदिया तब किसीने इनोंका संग्रह नहि किया, वादमें खरतरगछवालोंने स्वाभाविक दयालुतासै सहायताकरी, वादमें फेर इनोंके दो शिष्यगुप्तपणे भगके पढणेंके निमित्त दक्षणदेशमें गए, वहांपर भाग्यसंयोगसे खरतरगछाचार्य उसदेशमें विचरते हुवे मिले, उनोंकेपास गुप्तपणे रहै, न्यायव्याकरणादिक पढलिखकर हूसियार हूवे, जब अपणे देशमें आणेके लिये तइयार हूवे, तब आचार्यश्रीने पुन्यप्रकृति विनयादिक गुणदेखकर महिरवान होकर सूरिमंत्र दिया, वादमें विनयपूर्वक आचार्यमहाराजको नमस्कारकर अपने देशकों चले, मार्गमें मांडवगढ आया वहांपर महामहोछव पूर्वक प्रसिद्धमे सूरिपदारूढ हूवे, वादमें अपने गुरुकेपासमें आकर मिले, प्रथम श्रीपार्श्वचन्द्रजीको सूरिपदमें स्थापे, वादमें वन्दनाकरी, १ श्रीपार्श्व चन्द्रसरि श्रीविजयदेवसूरि ब्रह्मसूरि इत्यादि परंपरा चली, और वृद्धतो ऐसा कहेहै कि श्रीपार्श्वचंद्रजीको गच्छबाहिरकिये तब वीकानेर आकर पंचायति श्रीचिंतामणजीके मंदिरमें दर्शनकरते हूवे खरतरगच्छाधिपति श्रीसूरिजीके चरणका सरणालिया इत्यादि स्वरूप देखकर परमदयालु आचार्यश्रीबोले कि तुमारी For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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