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गच्छका बहुत महिमाउद्योत कीया तथा सं० १६५२ में श्रीगुरु महाराजने पंचनदी साधी उहांपांचपर मानभद्रयक्ष खोडियाक्षेत्र वालवगेरे देवोंको स्वाधीनकीये भूमंडलपर विचरते भव्य उपगार करते एकदा सं० १६६२में श्रीसलेमपातशाहने श्रीगुरु माहाराजको विशेष गुणवान सुणके वोलाके अपणे सेवाकरता हुवा गुरुकुं विशेष आग्रहकरके रक्खे वाद गुर्जरदेशमें विहारकीया तब एकतपगच्छीय यतिको अपनीस्त्रीके साथस्नेहकी एकांतमें वार्ताकरणावगेरें अनाचार देखके नाराजहोके कहा मेरे सब देशोमें जितने दर्शनि है उनुकुं स्त्रीयांदेदेवो स्त्रीको नलेवे उसकुं देशसे बाहिर करणा तब डरे भये षटमतके सन्याशी वगेरे केइक समुद्रकुं उल्लंघके द्वीपांतरे गये केइ भूमीघरमें छिपके रहै कितनेक जहां तहां रहै वहां आपत्तिपाइ तव श्रीजिन चंद्रमूरिजीमाहाराज पाटणसै विहारकर आगरा नगर आये बादसाह श्रीगुरुका दरसण करनेकों बहुत आदरसे बोलाए तब श्रीगुरुने बहोत चमत्कार बताके पहले जो दरसनियों के वास्ते आज्ञादीथी वहहुकम पीच्छा फिरवादिया सर्वत्र फुरमाणा भेजवाके यतिवगेरेको अपणे अपणे ठिकाणे पोहचाये सत्कार बादसाहने करा इस प्रकारसै श्रीजिनशासनकी बहुत प्रकारसै उन्नतिकरके विचरते भये, और श्रीगुरुके समयराज ( सकलचंद ) १ महिमराज २ धर्मनिधान ३ रत्ननिधान ४ ज्ञानविमल ५ ये पांच पांडव जैसे इनोकों आदिलेके पञ्चाणवें ९५ शिष्य भये.
ऐसे महाप्रभाविक युगप्रधानश्रीजिनचन्द्रमरिजी महाराज, सर्वायु ७५ पचत्तर वर्षको पालकरके, अणशण आराधन पूर्वक
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